मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

श्रीधर चातक की कविता



    मैं ऐसे दीप जलाता हूँ
दीपावली दीप की वर्तिका पर
 प्रिय ! आज क्यों मौन साधे हुए हो ?
तुम्हारे जीवन की पहेली निराली,
 जाने क्या ग्रंथि उर में बांधे हुए हो ?
लो सजे थाल में,
 मै दीपक सजा दूँ,
करो आरती तुम,
मै दीपक जला दूँ,
   प्रिये! क्या करोगी दीपक जलाकर ,
   मेरे देश की देखो सीमा घिरी है,
   कुत्सित चीनी  चील दृष्टि लगी है,
    ह्रदय में हमारे विद्युत सी गिरी है,
बुझा दो दिए ये मैं जलने न दूंगा,
अरुणोदय यहाँ का ढलने न दूंगा,
क्षितिज में बिखरी घटा श्याम देखो,
चुनौती दे रही औ लहू मांगती है,
मरण के हिण्डोले चढ़ा दो उन्ही को,
जनता जहाँ की धरा लांघती है,
   उन्हीं के लहू से तब दीपक जलाना,
   शहीदों की चरण रज तुम माथे चढाना,
   चलो दीप जलकर मैं तुमको जलाऊँ,
   हाजीपीर की उन गहराइयों में,
   जलना निरन्तर औ आगें लपकना,
   छम्ब की ध्वस्त  उचाइयों में,
   ह्रदय की मलिन कारा को भस्म कर दे,
   ह्रदय रागिनी को प्रेम का स्वर दे,
  अंतरतम के तिमिर को काव्य स्वरों से,
  यों भगाता हूँ,
   मैं ऐसे दीप जलाता हूँ.
-----रचना श्रीधर चातक




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