मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

कुछ बातें, कुछ यादें 11 शिक्षक का सम्मान




     विद्यार्थी जीवन में मेरी रूचि भाषण, वाद – विवाद प्रतियोगिता और कविता पाठ में रही थी | शिक्षक के रूप में कार्य करने के बाद कई अवसरों पर मैंने देखा कि बच्चों को तो दूर हमारे साथियों को भी वाद – विवाद प्रतियोगिता, भाषण और तात्कालिक भाषण के बीच के अंतर का पता नहीं था | वर्ष १९९७ से १९९८ तक मैंने प्रवक्ता पद पर श्री गुरु राम राय पब्लिक स्कूल श्रीनगर गढ़वाल में कार्य किया | श्रीनगर गढ़वाल में विभिन्न संस्थाओं के द्वारा बच्चों के लिए क्विज, तात्कालिक भाषण, लोकगीत, लोकनृत्य , वाद – विवाद आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता था | एक बार वाद – विवाद प्रतियोगिता का विषय ‘राजनीति में महिलाओं को आरक्षण दिया जाना आवश्यक है रखा गया था | 
      इसी  विषय पर बिड़ला संघटक महाविद्यालय श्रीनगर से मेरा चयन अंत:विश्वविद्यालयी ( राष्ट्रीय स्तर ) के लिए हुआ था | अब मुझे बच्चों को इसी विषय के पक्ष और विपक्ष में तैयारी करानी थी | मेरे पास कक्षा 12 की दो बालिकाओं ( एक पक्ष और एक विपक्ष ) ने अपना नाम लिखाया था | मैंने उनसे कहा, इस विषय पर पहले तुम कुछ मैटर तैयार करके लाना और मुझे सुनाना  | दो – तीन दिन के अन्दर वे इस विषय पर मैटर तैयार करके लाये | मैंने उन्हें वाद – विवाद प्रतियोगिता में सफल होने के टिप्स देते हुए उनके द्वारा सुनाए मैटर में संशोधन किया | वाद – प्रतियोगिता के मानकों के आधार पर उनके डिबेट की तैयारी पूरी करा ली | श्रीनगर के नगरपालिका हाल में वाद – विवाद प्रतियोगिता होनी थी | मैं वहाँ नियत समय पर पहुँच गया | बच्चों ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और श्री गुरुरामराय पब्लिक स्कूल ने नगर के सभी विद्यालयों के बीच पहला स्थान प्राप्त किया | जब बच्चों को प्रतीक चिह्न दिया जा रहा था तो एक बालिका ने संयोजक मंडल से कहा मुझे अपने सर के हाथों ये सम्मान पाना है | मुझे मंच पर बुलाया गया | मंच से उतरने के बाद मैंने देखा कि हॉल में उस बालिका के माता – पिता भी उपस्थित थे | बालिका ने अपने माता – पिता से मेरा परिचय कराया| बालिका के माता – पिता ने कहा,सर हमारी बालिका को पहला स्थान मिला है | इसका श्रेय आपको ही जाता है | हमारी बालिका ने बताया कि आपने डिबेट में बहुत मेहनत कराई है |
       इस घटना से मैं अभिभूत हो गया था | मैंने सोचा, यह बालिका मंच पर सम्मान देने के लिए अपने माता – पिता को  भी  बुला सकती थी किन्तु उसने मुझे बुलाया | शिक्षक को उस बालिका द्वारा दिए सम्मान से मैं स्वयं को भी सम्मानित महसूस करने लगा |
cc- डॉ ० उमेश चमोला

कुछ बातें , कुछ यादें १०



मूल्य शिक्षा से साक्षात्कार 
    मैं वर्ष १९९८ से २००४ तक राजकीय इंटर कालेज लमगोंडी रुद्रप्रयाग में कार्यरत रहा | वर्ष २००० की   बात है | एक दिन मुझे प्रधानाचार्य द्वारा अवगत कराया गया कि जिला विद्यालय निरीक्षक रुद्रप्रयाग से प्राप्त पत्र के क्रम में मुझे कम्प्यूटर प्रशिक्षण के लिए डायट रुड़की जाना है | मैं राजकीय इंटर कालेज लमगोंडी से डायट रुड़की जाने के लिए कार्यमुक्त हुआ | मेरा प्रशिक्षण का यह पहला अनुभव था | डायट रूड़की के प्रवेश द्वार से अन्दर जाने पर मैंने देखा कि एक व्यक्ति हाथ में कुदाल लेकर वहाँ की घास फूस को हटा रहा है | उस समय शाम के सात बज रहे थे | मैंने मन में सोचा, यह व्यक्ति ऑफिस टाइम के बाद भी कितनी तन्मयता से कार्य कर रहा है | शायद यह स्वच्छता कर्मी होगा | उस व्यक्ति की कर्तव्यनिष्ठा के प्रति मेरे मन में आदर का भाव जाग्रत हुआ | सिर श्रद्धा से झुक गया |  मुझे देखकर उस व्यक्ति ने मुझसे पुछा, क्या आप कल से होने वाले कम्प्यूटर प्रशिक्षण के लिए आये हैं ? मैंने कहा, हाँ’’| उस व्यक्ति ने अपने हाथ में रखी कुदाल को जमीन में रखा और किसी और व्यक्ति को नाम लेकर पुकारा | वह व्यक्ति जी , जी कहता हुआ दौड़ा – दौड़ा आया | उन्होंने उससे कहा, गुरूजी ट्रेनिंग के लिए आये हैं | इनका बैग होस्टल ले जाकर इनके लिए कमरे की व्यवस्था करो | अब मुझे पता चला कि हाथ में कुदाल लेकर डायट परिसर में काम करने वाला वह शख्स कोई और नहीं बल्कि डायट को अकादमिक नेतृत्व देने वाले डायट के प्राचार्य श्री मोहन सिंह नेगी जी हैं |
    ऐसा ही मुझे एक चुनाव में देखने को मिला | मेरी पीठासीन अधिकारी के रूप में शायद टिहरी के राजकीय प्राथमिक विद्यालय डागर टिहरी के बूथ में ड्यूटी लगी थी | चुनाव की गाडी से उतरने के बाद काफी पैदल भी चलना पड़ा था | सौभाग्य से मुझे बहुत अच्छी टीम मिली थी | बूथ में पहुँचते ही हमारी मुलाकात बूथ लेवल अधिकारी श्री राधाकृष्ण जी से हुई जो कि वहाँ हेड के रूप में कार्यरत थे | उन्होंने सभी मतदाताओं को घर – घर जाकर पहचान वाली पर्ची बाँट रखी थी | उनकी उपस्थिति के कारण मतदाताओं की पहिचान में कोई कठिनाई नहीं हुई | निष्पक्ष और निर्विवाद मतदान संपन्न हुआ | बातों – बातों में उन्होंने बताया कि वे दस दिन के बाद सेवानिवृत्त होने वाले हैं | उनकी ऊर्जा और उत्साह को देखकर कहीं नहीं लग रहा था कि वे इतनी जल्दी सेवानिवृत्त होने वाले हैं |
  हमें अपने आस – पास ऐसे कई लोग मिल जाते हैं जिनके कार्यों से हमें प्रेरणा मिलती है | इन लोगों के  कार्यों  से जुड़े प्रेरक प्रसंग इतिहास की पुस्तकों में  दर्ज महापुरुषों के प्रसंगों से कम नहीं आँके  जा सकते  हैं  | इनके कार्यों को ह्रदय में अनुभूत करना मूल्य शिक्षा पर दिए जाने वाले भाषण को सुनने से कहीं अधिक प्रभावी हो सकता है |
cc- डॉ० उमेश चमोला


कुछ बातें, कुछ यादें ९



श्रीनगर का संजय टाकीज और फिल्मों से जुड़ी यादें
     जब हम जूनियर हाईस्कूल की कक्षाओं में पढ़ते थे उस समय गाँव में कुछ लोग वीडियो दिखाने लाते थे | वे उस दौर की हिट फिल्मों को गाँव में किसी स्थान पर दिखाते थे | वे देखने वालों से कुछ रुपये लेते थे | उनकी भी अच्छी कमाई हो जाती थी और गाँव में लोगों को फिल्म देखने को मिल जाती थी | जूनियर हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के बाद जब मेरा चयन एकीकृत परीक्षा के जरिए श्रीनगर आवासीय छात्रावास के हुआ तब मैंने श्रीनगर के संजय टाकीज में पहली फिल्म ‘वीर भीमसेन’ देखी थी | हमारे छात्रावास अधीक्षक सर ने कहा था अच्छी फिल्म लगी हुई है | जो देखना चाहता है देख सकता है | सब अलग – अलग ग्रुप में जाएंगे | हम फिल्म देखने चले गए | बड़े परदे पर फिल्म देखने का अपना मजा था | इसके बाद हमें फिल्म देखने का चस्का लग गया था | उस समय फिल्म देखने के बारे में यह धारणा थी कि फिल्म देखने से बच्चे बिगड़ जाते हैं | (यह धारणा आज भी प्रचलित है |) हम होस्टल से चोरी छिपके फ़िल्में देखने जाते थे | तीन या चार लड़के मिलकर फिल्म देखने की योजना बनाते | दो लड़के फिल्म शुरू होने से पहले चले जाते | वे समय पर टिकट ले लेते | सीट की भी व्यवस्था कर देते | बाकी कुछ देर बात जाते | कभी पकड़े भी जाते थे तो डांट भी पड़ जाती | कभी कुछ मार भी खाने को मिल जाती | हमारे छात्रावास अधीक्षक किशोर मनोविज्ञान के जानकार थे | उनको पता लगा कि कुछ बच्चे चोरी छिपे फिल्म देखने जाते हैं तो उन्होंने योजना बनाई कि क्यों न छात्रावास में ही वीडिओ किराये पर लाया जाय | यह काम छुट्टी के दिन किया जाता | ऐसा करने से चोरी छिपकर फिल्म देखने वालों की संख्या कम होने लगी |
      मुझे तब भी लगता था कि फिल्म देखने बुरा नहीं है | खूब पढने – लिखने के बाद बीच – बीच में फिल्म देखने से दिमाग ताजा हो जाता था | मुझे फ़िल्मों से बहुत कुछ सीखने को मिला | फिल्मों में मुझे वे दृश्य अच्छे लगते थे जब नायक महफिल में कुछ बोल रहा है | कोई गीत सुना रहा है | कविता सुना रहा है और तालियाँ बज रही हैं | इससे मुझे सभा में भाषण देने की प्रेरणा मिली , कविता सुनाने को मैं प्रेरित हुआ | इसका परिणाम यह हुआ कि विद्यालय में आयोजित भाषण, वाद – विवाद , कविता पाठ आदि प्रतियोगिताओं में मैं बढ़ चढ़कर भाग लेने लगा | उस समय सम्पूर्णानन्द और महादेवी वर्मा वाद – विवाद प्रतियोगिताएँ विद्यालय स्तर से राज्य स्तर तक संचालित होती थी | सम्पूर्णानन्द वाद विवाद प्रतियोगिता में प्रमोद कुकरेती और मुझे  मंडल स्तर पर प्रथम स्थान प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ था | यह सिलसिला डिग्री कोलेज तक भी जारी रहा |
      हिन्दी विषय में एक प्रश्न परीक्षा में आता था | कहानी के तत्वों के आधार पर अमुक कहानी का विश्लेषण करो | इसमें कहानी का शीर्षक , उद्देश्य , पात्र और चरित्र चित्रण, कथोपकथन, देश , काल और परिस्थिति आदि के आधार पर विश्लेषण किया जाता | मुझे लगा कि फ़िल्में कहानी के इन तत्वों के आधार पर विश्लेषण करने का सशक्त माध्यम होती हैं |
  इंटर करने के बाद जब हम छात्रावास से विदा ले रहे थे , छात्रावास अधीक्षक सर ने मुझे अपने 
पास बुलाया | उन्होंने कहा, बेटा ! तुम कब – कब फिल्म देखने जाते थे | मुझे सब पता रहता था | मैं तुम्हें इसलिए नहीं टोकता था क्योंकि तुम पढाई भी बहुत करते थे | तुम में साहित्यिक प्रतिभा है | इसलिए तुम्हें फिल्म देखना बुरा नहीं है |
  श्रीनगर आते समय बस से उतरने से पहले पिक्चर हाल संजय टाकीज पर नजर पडती है जो कि अब बंद हो चुका है तो इससे जुडी यादें मन में उभरने लगती हैं |
c- डॉ. उमेश चमोला

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019



‘समोण अर बुझोण’ पर चर्चा के बहाने
‘समोण’ श्री सर्वेश्वर दत्त कांडपाल द्वारा लिखित खंडकाव्य है | यह सन १९७१ में प्रकाशित हुआ था | सन १९७२ में यह ‘समोण अर बुझोण’ नाम से द्वितीय संस्करण के रूप में प्रकाशित हुआ था | सन २०१२ में इसका तृतीय संस्करण ‘समोण अर बुझोण’ लोकभाषा आन्दोलन समिति रुद्रप्रयाग ,कलश संस्था और श्री कांडपाल के परिवारीजनों के सहयोग से संस्कृति प्रकाशन अगस्त्यमुनि द्वारा प्रकाशित किया गया | इसमें समोण खंड के अंतर्गत ‘समोण’ खंडकाव्य पर आधारित विषयवस्तु को स्थान दिया गया है | ‘बुझोण’ में श्री सर्वेश्वर दत्त कांडपाल द्वारा लिखित 14 कविताओं को जगह दी गई है |
‘समोण’ खंडकाव्य पहाड़ की पहाड़ जैसे जीवन जीने वाली नारी की व्यथा कथा है | इसमें खैरी खाने वाली बेटी –ब्वारी की प्रतीक है सरला | सरला के रूप में पहाड़ की बेटी –ब्वारी के कष्टों का जो यथार्थ चित्रण कवि ने किया उसे पहाड़ की नारी ने आत्मसात किया और सरला में अपने रूपों को महसूस किया | यही कारण यह खंडकाव्य १९७० के दशक में पहाडी नारी द्वारा खूब पढ़ा गया | रात को खाने बनाते समय या और कामों को करने के साथ –साथ महिलाओं द्वारा इसी रचना का गायन किया जाता रहा और छ्वीं – बत भी इसी के सम्बन्ध में होती रही | यह कृति गढ़वाल की नारी की कंठहार बन गई |
इस खंडकाव्य की कथा में सरला के पिता वीरू लड़ाई में गुम हो जाते हैं | उसकी माँ इस वियोगजनित पीड़ा को सह नहीं पाती है और उसी अज्ञात लोक को चली जाती है जहाँ उसके पति जा चुके थे | अब सरला अनाथ हो गई थी | उसका लालन – पालन उसकी गाँव की काकी द्वारा किया गया | समय बदलता है और एक दिन सरला के पिता घर आ जाते हैं | वह अपने हाथों सरला का कन्यादान कर देती है |
इस खंडकाव्य के सर्गों में शार्दुलविक्रीडित, द्रुतविलंबित, मंदाक्रांता और कवित्त छंदों का प्रयोग किया गया है | पहाड़ के मेले,त्यौहार. यहाँ की वनस्पति ग्वीराल,प्यूली,किनगोड,करोंदा,हिसर तथा यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को जीवंत बनाने वाली पक्षियों घुघुती,सेंटुली,हिलांस आदि की मीठी भौण इस खंडकाव्य में महसूस की जा सकती है | ग्रामीण जीवन का यथार्थ यहाँ देखा जा सकता है |
खंडकाव्य में आम जन में प्रयुक्त गढ़वाली शब्दों का प्रयोग किया गया है | कहीं –कहीं पर संस्कृतनिष्ठ भाषा भी प्रयोगित है जैसे –
‘जननि हे ! गढ़भूमि प्रभामयी,
वरदहस्त विभावन सुन्दरी,
सकल पुष्प पराग प्रसर्पिता,
गिरिलतावृत्त माँ ममतामयी |’
‘बुझोण’ खंड में रामलीला से सम्बंधित कुछ गीत जैसे ‘पंचवटी में राम’ , ‘सीता –जनक संवाद’ और ‘सूर्पणखा लक्ष्मण संवाद ‘ दिए गए हैं | ‘सूर्पणखा लक्ष्मण संवाद’ में सूर्पणखा द्वारा अपनी सुन्दरता की तुलना रत्तादाणि (एक प्रकार का सुन्दर बीज ) से करना बेजोड़ है |
मुझे याद है मंदाक्रांता , शिखरनी आदि छंदों से हमारा परिचय हाई स्कूल तथा इंटर की कक्षाओं में हिन्दी के पठन से हुआ | हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में वर्णित श्री अयोध्या प्रसाद ;हरिऔध’ की इन पंक्तियों को हमने कंठस्थ किया था –
‘जब हुए समवेत शने –शने,
सकल गोप सधेनु समन्डली ,
तब चले ब्रज भूषण को लिए,
अति अलंकृत गोकुल ग्राम को |’
यद्यपि इन छंदों से हमारा वास्तविक परिचय हिन्दी की पाठ्यपुस्तक से हुआ था किन्तु प्राथमिक स्तर से ही हम इन छंदों में आबद्ध पद्याशों को गाते थे | इसका कारण था हमारे घर में श्री राम प्रसाद गैरोला कृत ‘सुद्याल’ ,मेघढूत(गढ़वाली ) ,समोण’ जैसी पुस्तकें थी | अपने माता – पिता के मार्गदर्शन में हम इन छंदबद्ध
पद्याशों का गायन कर आनंदित होते थे | उस समय सूचना सम्प्रेषण तकनीकी के संसाधन सीमित थे | इसके बावजूद ‘समोण’ और ‘सुद्याल’ जैसी कृतियों का लोकप्रिय होना इन कृतियों का भावप्रणव होना था | आज परिस्थितियां बदल गई हैं | आज ह्वटसअप, फेसबुक,इन्स्टाग्राम आदि के माध्यम से गढ़वाली –कुमाउनी भाषाओँ का खूब प्रचार प्रसार हो रहा है | गढ़वाली और कुमाउनी भाषा में सृजनात्मक चिंतन और लेखन के लिए ह्वटसअप और फेसबुक में सक्रिय रचनाधर्मियों ने कई समूह बनाए हैं | यू ट्यूब के माध्यम से भी गढ़वाली और कुमाउनी भाषा में कई कवितायेँ सृजित कर प्रस्तुत की जा रहीं हैं | इन माध्यमों से गढ़भाषाओं में सृजन और प्रचार –प्रसार के लिए युवा वर्ग सक्रिय रूप से आगे आ रहा है | कई मेलों, रामलीला और अन्य उत्सवों के अवसरों पर जगह –जगह कवि सम्मेलनों का आयोजन किया जा रहा है | यह सभी प्रयास हमारी दुदबोली भाषा के प्रचार –प्रसार और उन्नयन की दृष्टि से एक सुखद अहसास देते हैं |
वर्तमान में गढ़वाली भाषा में बहुत पुस्तकें लिखी जा रही हैं | यदि प्रकाशित पुस्तकों का हम विश्लेषण करें तो पाएंगे कि इन पुस्तकों में से अधिकांश पुस्तकें काव्य की पुस्तकें हैं | गद्य: कविनाम निकष: वदन्ति (गद्य कविता की कसौटी है) लिखकर विद्वानों ने कविता के सन्दर्भ में गद्य की महत्ता को दर्शाया है | गढ़वाली भाषा में गद्य में लिखी जाने वाली पुस्तकों की संख्या बहुत कम है | किसी भी भाषा को समृद्ध बनाने के लिए उस भाषा में प्रत्येक विधा में लिखा जाने वाला अनिवार्य है | अत: गढ़वाली भाषा में हर विधा में लिखा जाना होगा तभी भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में अपनी दुदबोली भाषाओँ को सम्मिलित करने का हमारा दावा मजबूत होगा | गढ़वाली भाषा में निबंध, कहानी, जीवनी, उपन्यास, रिपोर्तार्ज आदि सभी विधाओं के साथ –साथ बालसाहित्य, व्यंग्यसाहित्य आदि उपेक्षित क्षेत्रों पर गंभीरतापूर्वक कार्य किए जाने की आवश्यकता है | वर्तमान युग की आवश्यकताओं के अनुरूप विज्ञान आधारित साहित्य,समीक्षा और शोध की दिशा में भी लिखे जाने की आवश्यकता है | आज ह्वटसअप, फेसबुक ,यु ट्यूब आदि माध्यमों ने नए –नए रचनाकारों को मंच प्रदान किया है | इन माध्यमों में अधिक समय दिए जाने के कारण हमारे स्वाध्याय में कमी आई है | स्वाध्याय का अर्थ मुद्रित सामग्री के अध्ययन के साथ –साथ ई सामग्री के अध्ययन से भी है |
आज प्रस्तुत की जाने वाली कई कवितायेँ मंचीय दृष्टि से तो अत्यधिक सफल हैं किन्तु साहित्यिक कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही हैं | मंचीय कविताओं में प्रस्तोता की भाव भंगिमा, वाचन और गायन शैली कई बार रचना की विषयवस्तु और साहित्यिकता के ऊपर हावी होती है | इस कारण रचना की लोकप्रियता के बावजूद वह शिल्प विधान, बिम्ब आदि की दृष्टि से कमजोर साबित होती है | आज प्रस्तुत कई कवितायेँ तुकात्मक सपाटबयानबाजी की शिकार हो चली हैं |
अत: युवा रचनाकारों को वरिष्ठ, नए और पुराने रचनाकारों की रचनाओं का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करना चाहिए | इससे उनकी रचनाओं में प्रौढ़ता आएगी | वे अपनी विरासत से परिचित हो पायेंगे | उन्हें जानकारी प्राप्त हो पायेगी कि इन रचनाकारों ने क्या लिखा है ? उन्हें किन नए क्षेत्रों में कलम चलानी चाहिए ? ‘समोण अर बुझोण’ जैसी कृतियों को नएं रूप में प्रकाशित कर पाठकों तक पहुँचाने का लक्ष्य भी शायद यही है नई पीढ़ी भी अपनी गौरवशाली विरासत को जान सकें | इस नवीन संस्करण का मूल्य ३५ रु शायद इसीलिये निर्धारित किया गया है ताकि पुस्तक आम पाठक तक पहुँच जाय |
‘समोण अर बुझोण’ के प्रकाशन के इस पुनीत लक्ष्य को सफल बनाने की दिशा में लोकभाषा आन्दोलन समिति, कलश संस्था और कलश लोकसंस्कृति ट्रस्ट, श्री कांडपाल जी के परिवारी जनो के साथ ही संस्कृति प्रकाशन अगस्त्यमुनि रुद्रप्रयाग को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |
पुस्तक का नाम – समोण अर बुझोण
कवि – सर्वेश्वर दत्त कांडपाल
मूल्य – ३५ रु
प्रकाशक –संस्कृति प्रकाशन विजय नगर ,अगस्त्यमुनि ,रुद्रप्रयाग ,उत्तराखण्ड भारत
समीक्षक –डॉ ० उमेश चमोला

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कुछ बातें , कुछ यादें ८

 
                           वो चोरी चोरी पढ़ना

  यह उन दिनो की बात है जब हम राजकीय इंटर कोलेज श्रीनगर पौड़ी गढ़वाल में पढ़ते थे | कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद हमारा चयन एकीकृत परीक्षा के द्वारा श्रीनगर छात्रावास के लिए हुआ था | श्रीनगर में सुधीर न्यूज एजेंसी में नंदन, चम्पक, पराग, धर्मयुग, कादम्बिनी, विज्ञान प्रगति, मधु मुस्कान, लोटपोट, चंदा मामा, चाचा चौधरी और साबू से सम्बंधित कामिक्सों की सीरीज, हिन्दुस्तान आदि  तथा फ़िल्मी पत्रिकाएं जैसे मायापुरी, फ़िल्मी कलियाँ, स्टार डस्ट आदि मिल जाती थी |  हम कोर्स की पुस्तकों के अलावा इन पत्रिकाओं को खूब पढ़ते थे | होस्टल में हर लडके के पास अलग – अलग पत्र – पत्रिकाएँ होती थी | इसलिए हम इन पत्र – पत्रिकाओं की अदला – बदला किया करते थे | पत्र – पत्रिकाओं का  यह  नेटवर्क चुपके – चुपके अपना काम किया करता था | कोर्स की पुस्तकों के बीच में हम ये पत्र – पत्रिकाएँ चोरी छिपकर पढ़ा करते थे | होस्टल में समय – समय पर छात्रावास अधीक्षक राउंड में आते थे | वे भी छात्रावास में ही रहते थे | इसलिए हम पर उनकी नजर हमेशा बनी रहती थी | 
      मैंने इन पत्र – पत्रिकाओं को छिपाकर पढने का एक तरीका खोज निकाला | मैं इन पत्रिकाओं को एटलस के अन्दर रखकर पढ़ा करता था | एटलस बढ़े आकार में होती थी | इसलिए इन पत्र – पत्रिकाओं को एटलस के अन्दर छिपाकर पढने में पता नहीं चल पाता था | हम जिस कमरे में रहते थे, वह बड़ा था | और कमरों में दो – दो लड़के रहते थे | हमारे कमरे में पांच लड़के रहते थे | एक दिन मैं अपने कमरे में चारपाई में बैठकर कामिक्स पढ़ रहा था | अचानक हमारे कमरे में सीनियर ( भाई साहब ) आ गए | होस्टल में भाई साहब लोगों को देखकर वही आदर मिश्रित भय का अहसास होता था जो छात्रावास अधीक्षक सर को देखकर | उन्हें देखकर मैंने कामिक्स झट से एटलस के अन्दर छिपा ली | कमरे में उस समय हम चार लड़के थे | एक बाहर जा रखा था | मैं एटलस के अन्दर कामिक्स पढ़ रहा था | बाकी तीन लड़के गप्पें लड़ा रहे थे | भाई साहब ने उन्हें डांटते हुए कहा, “ तुम जोर – जोर से गप्पें लड़ा रहे हो | देखो तुम्हारा एक साथी  किताब पढ़ रहा है | उसको  डिस्टर्ब तो मत किया करो | भाई साहब की यह बात सुनकर मैं अन्दर ही अन्दर डर रहा था कि कहीं भाई साहब को पता न चल जाय कि मैंने एटलस के अन्दर कामिक्स छिपा रखी है |
      एक दिन छात्रावास अधीक्षक सर ने शाम की प्रार्थना के समय कहा,” जिसके पास भी कोर्स से बाहर की कोई पत्र – पत्रिका है वह मेरे पास जमा कर दे | ऐसा करने वालों को कोई डांट नहीं पड़ेगी | नहीं तो बाद में पता चलने पर दंड दिया जाएगा | कुछ लडकों ने अपने पास की पत्र – पत्रिकाएँ सर के पास जमा कर दी थी | एक सप्ताह के बाद छात्रावास अधीक्षक सर ने मुझसे कहा, “तुम्हारे पास भी बहुत सारी पत्रिकाएँ हैं | तुमने अभी तक जमा क्यों नहीं की है ? “ मैंने कहा , सर ! मेरे पास साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं | मैंने समझा कि आपने उपन्यास और फ़िल्मी पत्रिकाओं को जमा करने के लिए कहा है | “ मेरी बात को सुनकर सर ने कहा,” बेटा! ये पत्र – पत्रिकाएँ कोर्स की किताबों के बीच टोनिक का कार्य करती   हैं  लेकिन ध्यान रखना कहीं इनको पढने का चस्का लगने से आपके कोर्स की किताबों की पढाई प्रभावित न हो |
c- डॉ० उमेश चमोला