रविवार, 28 मई 2017

 सुमित्रानंदन पन्त जयंती पर विशेष (२० मई २०१७)
                                    -डॉ० उमेश चमोला
    आज ही का दिन सन  १९०० मा उत्तराखण्ड कि स्वानि धरति कौसानी मा एक नौन्यालन जलम लीनि छौ.कैतें पता छौ कि स्वो नौनु हिन्दी साहित्य का अगास मा चमकण वालू सूरज बणुलु.जन विद्वान बोल्दन बल कविता दुःख कि नौनि होंदी.तै क्रूर कालन भी ये नौना तैं कवि बनोने छै सोचीं.तबै त जलम लेण का कुछ घंटों का बाद तेन तै नौना तैं ब्वे कि कोखिली हर्चे
दीनि.जी बात होणी छ प्रकृति का सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पन्त कि जौन अपुणु भोग्युं सच यों पंक्त्यों मा बिन्गाई-
 ‘वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान,
 उमड़ कर अधरों से चुपचाप,बही होगी कविता अनजान.’
जु छायावादा चार खम्बों –जयशंकर प्रसाद,महादेवी वर्मा,निराला अर सुमित्रानंदन पन्त मदि एक छन.ब्वे से बिछण की तौंकी जिकुड़ी की पीड़ा यों पंक्त्यों मा देखि सकेंदी –
 ‘नियति ने ही निज कुटिल कर से,
 सुखद गोद मेरे लाड की थी छीन ली,
बाल्य में ही हो गयी थी लुप्त हा,
मातृ अंचल की हाय छाया मुझे.’
 एक तरफ ब्वे कि कोखिली हरचण की पीड़ा अर हैकि तरफा प्रकृति रूपि ब्वे कु लाड-प्यार-उलार.ये से पन्त ज्यू की  बटिन कवितो धारू बौगण बैठी.पन्त ज्युकि किताब्यों मदि ग्रंथि,गुंजन,ग्राम्या,युगांत,स्वर्ण किरण,स्वर्ण धूलि,कला और बूढ़ा चाँद,लोकायतन,सत्यकाम,चिताम्बरा प्रमुख छन.कविता का दगड़ा पन्त ज्यून नाटक,एकांकी,रेडियो रूपक अर उपन्यास भी लेखिन.सहृदय कवि होण का दगड़ा पन्त ज्यू एक कठोर आलोचक भी रेन.तौंकी आलोचना का वार से सरस्वती पत्रिका का सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी भी बचि नि सक्याँ.
  सुमित्रानंदन ज्यू का रचना काल पर नजर दौडायो जो त तौंकि पैलि- पैलि लेखीं कवितों तै प्रकृति का स्वाणा चित्रों कि संज्ञा दी सकेंदी.वेका बादे कवितों मा छायावादा बिम्ब  अर कोंगिलि भावना बींगि सकेंदि.पन्त ज्यू पर कार्लमाक्स अर फ्रायडा विचारों कु प्रभो भी पडी.ये से तौंकि कै कविता प्रगतिवाद का चौ पर भी खडी छन.ईं कविता मा त सुमित्रानंदन पन्त अफु तैं कबीरपंथी बतलोंदन—
 ‘सूक्ष्म वस्तुओं से चुन-चुन स्वर,
 संयोजित कर उन्हें निरन्तर,
 मैं कबीरपंथी कवि,
 भू जीवन पट बुनता नूतन.’
पन्त ज्यूका कृतित्व कु मर्म ‘ग्रंथवीथी’ मा लेख्या यों शब्दों मा छलकद,जु हिन्दी मा तोंका लेख्याँ कु गढ़वाली भावानुवाद छ-
 ‘प्रकृति यकु छ.पैलि तींका भैर का स्वरूप से मेरु लग्यार हवे छौ अर मीन प्रकृति का चौ पर खडी कविता रचिन.बाद मा मी प्रकृति का भितर का रूप तैं देखण बैठ्यु जू मनखी अर मनखी जीवन मा अभिव्यक्त होंदु.’
हिन्दी साहित्य कु यु सूरज अपणा भौतिक रूप मा २८ दिसम्बर १९७७ का दिन अछ्लेगी छौ पर येकु उजालू हम सबुतें आज भी बाटू बतलौणु छ.कवि कि जयंति पर कवि कु भावपूर्ण स्मरण अर नमन.

शनिवार, 20 मई 2017

पुस्तक समीक्षा


तेरे जाने के बाद (कविता संग्रह )
कवि –दिनेश सिंह रावत
समीक्षक –डॉ उमेश चमोला
‘तेरे जाने के बाद’ दिनेश सिंह रावत की पचपन कविताओं का संग्रह है.इस कृति से पूर्व रावत की ‘माटी’काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है.समीक्ष्य संग्रह में पहाड़ और गाँव की नैसर्गिक सुन्दरता,जन्मोत्सव,मशीनों के सहारे चलती जिन्दगी,गाँव में जानवरों का खौफ,करवा चौथ,नारी,लोकदेवता,संवेदना,लोकशिल्पियों की उपेक्षा,एकान्तिक अनुभूति ,शिक्षा के नाम पर व्यापार आदि विषयों पर आधारित कविताओं को स्थान दिया गया है.
 ‘टावर’ कविता में कवि वर्तमान समय की विडंबना को व्यक्त करता है की किस प्रकार लोग अपनी मांगें मनवाने के लिए टावर पर चढ़ते हैं .’परिवर्तन’ और ‘जादू की छड़ी’कविताओं में व्यंग्य की हल्की सरसराहट महसूस की जा सकती है.परिवर्तन कविता में कवि का दृष्टिकोण व्यक्त होता है कि टमाटर,आलू और अण्डों के महंगे होने के कारण अब जनता स्याही और जूते  फेंककर जन प्रतिनिधियों के प्रति अपना आक्रोश प्रकट करती है.
‘गाँव’ कविता में कवि पलायन से  वीरान हुए गाँव की तस्वीर कुछ यों खीचता है –
‘आज अगर कुछ बचा है तो
बस जर्जर बुढ़ापा,
हांफती सांसे,बंजर खेत-खलियान,
सूने घर आँगन,गली,चौबारे व् पनघट
तथा अटाली-तिवारी में किसी के आने की आस में
पथरीली हो चुकी आँखें.’
संग्रहीत कविताओं के बारे में साहित्यकार महावीर रवांल्टा लिखते हैं –‘पहाड़ के गाँव,वहाँ के समाज व संस्कृति को उनकी कवितायेँ उदघाटित करती हैं.दाम्पत्य जीवन,प्रेम,संघर्ष व नारी को लेकर रची गयी उनकी कविताएँ अपने समय की सादगी भरा खाका प्रस्तुत करने में समर्थ हैं.”
दिनेश सिंह रावत की यह कवितायेँ पहाड़ के नैसर्गिक सौन्दर्य के साथ-साथ जीवन के यथार्थ को भी बयां करती है.कविताओं की भाषा सरल है.यह कवि के उद्गारों को व्यक्त करने में सफल है.दिनेश रावत की कविताओं को  शिल्प और काव्य मानकों की दृष्टि से अभी परिपक्वता प्राप्त  करने की आवश्यकता है.आशा है कवि का सृजन कर्म निरन्तर चलता रहेगा और वे भविष्य में वे अपनी अर्थ गाम्भीर्य कविताओं के साथ फिर प्रस्तुत होंगें.
पुस्तक का मुद्रण स्पष्ट है. मुखपृष्ठ आकर्षक है,प्रयुक्त कागज उत्तम गुणवत्ता का है.
पुस्तक का मूल्य –२०० रु
प्रकाशक –अर्पित पब्लिकेशन्स,अक्षरधाम,गुरु तेग बहादुर कालोनी कैथल ,हरियाणा ,
कवि संपर्क –9927272086,9456527453

गुरुवार, 18 मई 2017

पुस्तक समीक्षा


 नानतिनो कि सजोलि
(गढ़वाली –कुमाउनी बाल कविता संग्रह )
रचनाकार –डॉ० उमेश चमोला/विनीता जोशी
प्रकाशक –आधारशिला प्रकाशन हल्द्वानी नैनीताल
समीक्षक –डॉ० सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी
 कवितायेँ कवि के मन की उदगार होती हैं,जिनके द्वारा उसका व्यक्तित्व पूर्ण रूप से परिलक्षित होता है.कविताओं में निहित भावपक्ष,कलापक्ष और उनमे संप्रेषित ज्ञान के आधार पर उन्हें अच्छी या बुरी कहा जाता है.मेरा मानना है कि जो कविता आत्मिक शान्ति के साथ दूसरों के लिए शिक्षाप्रद और आनंद देने वाली हो वह अच्छी कविता कही जा सकती है.जहाँ तक बाल कविताओं की बात है बच्चों के भीतर वैज्ञानिक सोच पैदा करने,अतीत.वर्तमान और भविष्य का बोध कराने ,अज्ञानता दूर करने,नैतिकता का पाठ पढाकर चारित्रिक गुणों का विकास करने तथा जीवन को प्रगतिपथ पर अग्रसर करने वाली कविता ही अच्छाई के पद को विभूषित करती है.डॉ उमेश चमोला और विनीता जोशी के संयुक्त प्रयास से रचित ‘नानतिनो कि सजोलि’गढ़वाली और कुमाउनी कविताओं की पुस्तक इन सभी विशेषताओं से युक्त है.
अपने में मौलिकता लिए हुए ये कवितायेँ बालमन को गुदगुदाते हुए  पढने की लालसा जाग्रत करने,भरपूर मनोरंजन,अपनी संस्कृति से रूबरू होने और नैतिकता के साथ शिक्षा  को फैलाने में पूर्ण सक्षम हैं.दोनों रचनाकारों ने मानों स्वयं बालमन में उतरकर उनकी मानसिकता के अनुरूप कविताएँ रचकर जिज्ञासाएं शांत की.विषय सामग्री के साथ भावपक्ष और कलापक्ष का जो ग्राह्य स्वरूप प्रस्तुत किया,वह देखते ही बनता है.
   डॉ उमेश चमोला ने गढ़वाली और विनीता जोशी ने कुमाउनी में पच्चीस-पच्चीस कविता रुपी पुष्प पुस्तक में पिरोकर एक नया प्रयोग किया है.यह मात्र बच्चों के लिए ही बहुउपयोगी न होकर बड़ो के लिए भी लाभदायी है.
पुस्तक का शुभारम्भ परम्परा का पालन करते हुए डॉ चमोला ने गढ़वाली कविता ‘शारदे वंदना’ से किया है –
‘भला-भला बाटों,मीते हिटे दये,ज्यू कु अन्ध्यारू ब्वे तू मिटे दये.
सबि नौना –नौनि,हैंसदा रौन,जन अगास मा,हैसदु ज्वोंन.
इस कविता के माध्यम से कवि यह संदेश भी देना चाहता है कि कोई भी बाल अधिकारों का हनन न करे.उन्हें अच्छी शिक्षा और संस्कार देकर ज्ञानवान बनाये ताकि वे जीवन भर हँसते रहे.

पहाड़े सौगात’ कविता द्वारा विनीता जोशी ने अपनी कुमाउनी कविताओं का शुभारम्भ किया है.इसमें पारम्परिक अन्न,हवा,पानी,फल-फूल और व्यंजन आदि का सटीक चित्रण किया है –
मंडूवे  रवाट/गदुवक साग
निमुवे झोलि/मनिरोक भात.पहाडेकि सौगात.
कवयित्री इस कविता के माध्यम से मानो प्रवासियों को पहाड़ लौटने की याद दिला रही है.’मीतें स्वांदु’ गढ़वाली कविता में एक प्रवासी के अन्तर्द्वन्द्व,मातृभूमि की विशेषताओं और मैदानी क्षेत्र की परेशानियों का अंतर अनुभव करते हुए उसकी छटपटाहट को दर्शाया गया है –
मी छौं उन्द शैर मा ,जख गाडयों कू घुंघ्याट,
राति बगत व्हे त व्हे,दिन मा भी लूटपाट,

पौन –पंछी नी दिखेंदा,नी घसेरू की भौण,
चुडा-बुखणा अर अरसा,खांदु छौ मी जमी तैं.
कुमाउनी कविता ‘चौद नौम्बर’के द्वारा बच्चों को महान पुरुषों  पर केन्द्रित दिवसों को मनाने और उनके पदचिह्नों पर चलने का सन्देश दिया है.इसी प्रकार घुघुती त्यार’ कविता के माध्यम से पक्षियों के प्रति अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया है-
घुघुत पाकी,लगड़ पाकी /बड पाकी,पाकी खीर,
आ रे काले,कौवा ऐ जा/खे जा घुघुत,खे जा खीर.
गढ़वाली कविता ‘देशगीत’ में मातृभूमि की महानता का वर्णन करते हुए देशभक्तों के महान कार्यों का भी उल्लेख किया है –
दुन्याँ मा सबसे पैलि/ज्ञान कु द्यु जले,
भटकदा  मनखी छा/वूंते बाटू बते,
कुमाउनी कविता ‘घाम दिदी’ और गढ़वाली ‘गैणु’ कविता के माध्यम से समय पर काम करने और प्रगति पथ पर बढ़ने की प्रेरणा दी गयी है.यही भाव गढ़वाली कविता ‘पोथिली’में भी दृष्टिगोचर होता है.’फूल’ कविता डॉ० चमोला की शिक्षाप्रद के साथ ही काँटों के बीच फूल की तरह कठिनाइयों में हँसते हुए जीने की प्रेरणा देती है-
 रिंगला-पिंगला फूल/कांडों दगड़ा हैंसदा स्वान्दा,
 खैरी मा भी हैंसा/सबु मू यन छ्वीं लगांदा.
कुमाउनी कविता ‘एक,द्वी.तीन’ के माध्यम से कवयित्री ने बच्चों को गिनती सिखाने का जो अनूठा प्रयास किया है वह प्रशंसनीय है.गढ़वाली कविता द्यु के माध्यम से दूसरों की भलाई में अपना सर्वस्व कुर्बान कर देने का जो सन्देश दिया है उससे कवि की उदारवादिता का पता चलता है.
   विस्तार भय से यहाँ सभी कविताओं का उल्लेख संभव नहीं है.दोनों ही रचनाकारों द्वारा स्थानीय भूगोल, वनस्पतियों, तीज त्यौहारों,रीतिरिवाजों,जीव जन्तुओ पर केन्द्रित बहुउद्देश्यीय कविताओं की रचना सराहनीय है.डॉ० संजीव चेतन द्वारा कविताओं में व्यक्त भावों के अनुरूप जो चित्रांकन किया गया है उससे निश्चित ही पाठकों विशेषकर बाल पाठकों को अधिक आनन्दानुभूति होगी.छपाई व मुखपृष्ठ भी सुंदर व आकर्षक है.
    (नवल जनवरी –मार्च २०१५ से साभार )



सोमवार, 15 मई 2017

पुस्तक समीक्षा


कचाकी :रूढ़िवादी परम्पराओं पर चोट
उपन्यासकार –डॉ उमेश चमोला
समीक्षक –कालिका प्रसाद सेमवाल
कचाकी उपन्यास डॉ उमेश चमोला का नागपुरिया गढ़वाली भाषा में लिखा गया है.कचाकी को गढ़वाली में कचाक,घौ,चोट आदि कहा जाता है.हिन्दी में इसका सीधा अर्थ है घाव.डॉ उमेश चमोला का यह दूसरा उपन्यास है.इससे पहले उनका पर्यावरणीय संरक्षण और सामाजिक सरोकारों पर आधारित उपन्यास निरबिजू नाम से प्रकाशित हो चुका है.
 वर्तमान समय में उपभोक्तावाद और बाजारवादी मानसिकता के कारण मानवीय रिश्ते भी तार तार होते जा रहे हैं.अब हमारे गढ़वाल में भी आये दिन रिश्तों के टूटने तथा कलंकित होने की खबरें आती रहती हैं.इसका सजीव चित्रण कचाकी में लेखक ने किया है.कितनी विडम्बना है कि आज के वैज्ञानिक युग में कुछ रुढ़िवादी लोग अपने स्वार्थ के लिए तंत्र मन्त्र,झाड़,फूंक करने वाले लोग अपनों को ही तबाह करने का कार्य करते है.इस उपन्यास में इन्हीं घटनाओं का बारीकी से चित्रण किया गया है कि किस तरह से एक सौतेली माँ अपनी सौतेली पुत्री के बसे बसाये घर बार को तबाह कर देती है.अपने कुचक्रों की कुल्हाड़ी मारती है तो उस कुल्हाड़ी की चोट से जो घाव लगता है वही इस उपन्यास का कथानक व शीर्षक बन गया.
 उमेश के इस उपन्यास में कथानक जितना मनोरंजक है उतना ही  सन्देश देने वाला है.गढ़वाल के कुछ लोग टोने टोटके करने का व्यवसाय करते हैं.इन्होने आम लोगों को भ्रम की स्थिति में रखा है.उपन्यास का नायक प्रभात भी इस रुढ़िवादी व्यवस्था का शिकार होता है.लेखक ने टोने टोटके से सावधान रहने का आह्वान किया है.जिन उद्देश्यों को लेकर यह उपन्यास लिखा गया है उस पर न्याय करने की कोशिश लेखक द्वारा की गयी है.देश,काल और परिस्थिति के सन्दर्भ में यह उपन्यास गढ़वाल के वर्तमान परिवेश को उद्घाटित करता है.
(युगवाणी जनवरी २०१५ के अंक से साभार )

रविवार, 14 मई 2017

पुस्तक समीक्षा कचाकी





  पुस्तक समीक्षा
    कचाकी
प्रकाशक –अविचल प्रकाशन हाईडिल कोलोनी बिजनोर उत्तर प्रदेश
समीक्षक –डॉ सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी
यथार्थता को चित्रित करता उपन्यास कचाकी
कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है.हर समाज और समय पर यह शत प्रतिशत सटीक सिद्ध होता है.इसी पर साहित्यकार की सफलता निर्भर करती है.मुंशी प्रेमचंद जैसे साहित्यकार इसीलिये लोकप्रिय हुए क्योंकि उनकी कल्पना यथार्थता लिए होती है.जब हम डॉ उमेश चमोला के गढ़वाली उपन्यास ‘कचाकी’पर दृष्टि डालें तो उनकी काल्पनिक कथावस्तु इतने सुंदर ढंग से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की गयी है जो वास्तविक जान पड़ती है.उन्होंने गढ़वाल के कतिपय ऐसे लोगों के चरित्र को विशेष रूप से उभारने का सफल प्रयास किया है जो अपनी नकारात्मक सोच और कुकृत्यों द्वारा दूसरों के अनिष्ट करने का कुचक्र रचते रहते हैं.उपन्यासकार इस कृति द्वारा यह सन्देश देना चाहते हैं इस प्रकार के षड्यंत्रकारियों का समाज में विरोध किया जाना चाहिए.साथ ही उनकी कलुषित मानसिकता को समझकर स्वय का बचाव भी करना चाहिए.
  डॉ चमोला ने उपन्यास के संक्षिप्त कलेवर में आंचलिक संस्कृति के कतिपय प्रसंगों द्वारा विभिन्न चरित्रों को प्रदर्शित करने में गागर में सागर भरने जैसा कार्य किया है.घोर गढ़वाली शब्दों,लोकोक्तियों,चरित्रों,क्रियाकलापों का वर्णन कर इसे आंचलिक उपन्यास बनाया है.साथ ही किसी भी पाठक को समझने में कठिनाई न हो गढ़वाली शब्दों का हिन्दी में अर्थ भी उपलब्ध है.
  पुस्तक का अधिकांश भाग टोना टोटका और ज्योतिष विद्या के प्रयोगों पर आधारित है.नक्षत्र बल के आधार पर जनमपत्रियों के मिलान,जुड़ने,न जुड़ने की बात कहना,तंत्र मन्त्र का पूजा विधान पर उन्होंने सम्पूर्ण उपन्यास के अधिकांश अंशों को जोड़ा है.तंत्र मन्त्र को हथियार बनाकर सीदे सादे लोगों को लूटने वालों की पोल उन्होंने अपने ज्ञान के माध्यम से खोली है.इस रचना में उन्होंने यह भी दर्शाया है कि बुधि विवेक से कम न करने पर किस तरह कष्ट भोगना पड़ता है.
 डॉ चमोला ने उपन्यास में ठेठ गढ़वाली शब्दों के साथ ही प्रसंगानुसार मामा घोणा डालो छैल होंदु ,तिम्ला तिमला खतेन्या अर नांगा नांगां दिखेनया,गुरो भी मरी जौ अर लाठी भी ना टूटू,तरुने ना मौरू ज्वे अर बाले ना मौरि ब्वे जैसी अनेक लोकोक्ति व मुहावरों का भी प्रयोग किया गया है.यह लेखक की आंचलिक संस्कृति की पकड़ को प्रदर्शित करते हैं.
 कचाकी शब्द दूसरों को पीड़ा,कष्ट ,दुःख पहुचाने और प्रहार करने के भाव को व्यक्त करता है.जब कोई अपनी वाणी,कार्य के द्वारा किसी को आहत करता है या ठेस या चोट पहुंचाता है तो गढ़वाली में उसे कचाकी कहते हैं.इसे डॉ चमोला ने अपने उपन्यास में पूरी तरह परिलक्षित किया है.
रीजनल रिपोर्टेर जनवरी २०१५ अंक से साभार


पुस्तक समीक्षा कचाकी




कचाकी(गढ़वाली उपन्यास )
उपन्यासकार –डॉ उमेश चमोला
समीक्षक –हरि मोहन’मोहन’ सम्पादक’ नवल’
प्रकाशक ---अविचल प्रकाशन 3/11 हाईडील कोलोनी बिजनौर उत्तर प्रदेश
कचाकी उमेश चमोला का दूसरा गढ़वाली लघु उपन्यास है.कचाकी का अर्थ है घाव अर्थात चोट.यहाँ इसे सौतेली माँ द्वारा अपनी सौतेली पुत्री के दाम्पत्य जीवन में किये गए घाव के अर्थ में लिया गया है जिसका परिणाम बाद में स्वयं उसे भुगतना पड़ता है.
 कथानक गढ़वाल की ग्रामीण पृष्ठभूमि से लिया गया है.दीपा की माँ बचपन में ही घास काटते समय पहाडी से गिरकर मर जाती है.उसका पिता मासंती से दूसरा विवाह कर लेता है जिससे एक बेटा और बेटी होते हैं.कालान्तर में दीपा विवाह योग्य हो जाती है.उसका विवाह जन्मकुंडली के अनुसार तय हो जाता है.दीपा के विवाह से पूर्व उसके पिता बीमारी से दम तोड़ देते हैं तो लड़के वाले शुद्ध होने तक रुकने से मनाकर रिश्ता तोड़ देते हैं.उम्र बढ़ने व रिश्ता न मिलने पर पण्डित जीवानंद दीपा की नकली जन्मकुंडली बनाकर उसका विवाह अपने मामा के बेटे प्रभात से करा देता है.वह अपने ज्योतिष के विद्वान मामा से अपने अपमान का बदला लेने के लिए यह प्रपंच रचता है.सौतेली माँ मासंती जिस पर दीपा पूरा भरोसा करती है उसके दाम्पत्य जीवन में दरार ही नहीं डालती टोना टोटका कर उसके पति को मारने की कोशिश भी करती है जिससे उसकी मृत्यु के बाद दीपा को उसकी जगह सरकारी नौकरी मिल जाय.मासंती की साजिश का पता लगने पर प्रभात दीपा को छोड़ देता है.वह मायके में रहने लगती है.मासंती पंचायत के माध्यम से दीपा को गुजारा  भत्ता और दहेज़ उत्पीड़न का झूठा मुकदमा कर भारी रकम उसके ससुराल वालों से ऐठ लेती है.सारा धन मासंती स्वयं हड़प लेती है.भोली दीपा उसकी बातों में आकर अपना घर बर्बाद कर देती है.सौतेली माँ को अपनी गलती का एहसास तब होता है जब उसके दुष्कृत्य अपनी सगी बेटी के विवाह में बाधक बन जाते हैं.फलस्वरूप वह पागल हो जाती है.दीपा की भी आँखें खुल जाती है.वह फिर से अपनी गृहस्थी बसाने चल पड़ती है.
 उपन्यास में सौतेली माँ मासंती के अत्याचार को प्रमुखता से उठाया गया है जिसकी आँखों पर उपभोक्तावाद और बाजारवाद का चश्मा लगा है.स्वार्थवश सौतेली बेटी दीपा के दाम्पत्य जीवन में दरार डालने के लिए वह तरह तरह के हथकंडे अपनाती है.व्यक्तिगत स्वार्थ और सौतेलेपन की भावना के चलते रिश्ते बिगड़ने व परिवार के टूटने की भयावहता को दर्शाते हुए इस तरह की स्थितियों से बचने का सन्देश उपन्यास में दिया गया है.दीपा के दाम्पत्य जीवन को बर्बाद करने के लिए अपनाये जाने वाले जिन हथकंडों को दिखाया गया है वे यहाँ के समाज में प्रचलित रहे हैं.आधुनिक युग में भी अन्धविश्वास और टोन टोटको पर लोग विश्वास करते हैं.गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्र के लोकजीवन के विविध पहलुओं की झलक उपन्यास में मिलती है.दीपा की माँ की मृत्यु जंगल में घास काटते समय पांव फिसलने से पहाडी से गिरकर होती है.यह घटना यहाँ की महिलाओं के कष्टकर जीवन को ही बयां करती है.मासंती द्वारा खेत का ओडा खिसकाना व गालियाँ देना गांवों में आम बात है.पंडित द्वारा शराब का सेवन व रुपयों के लिए दीपा की कुण्डली में उम्र और गृह बदल देना इस सम्मानित पेशे में बाजारवाद के चलते आ रही गिरावट को दर्शाता है.गांवों में जहाँ एक ओर रूढ़िवादिता चली आ रही है दूसरी ओर आधुनिक प्रगति का प्रभाव भी पड़ा है.टोने टोटके किये जा रहे हैं तो सरकारी नौकरी,पंचायत ,अदालत का सहारा भी लिया जा रहा है.
 उपन्यास के सभी पात्र कथानक के अनुरूप अपने चरित्र का निर्वहन करते दिखाई देते हैं.कचकी की भाषा बोलचाल की गढ़वाली है जिसे गढ़वाली पाठक आसानी से समझ सकता है.गढ़वाली न जानने वालों के लिए उपन्यास के परिशिष्ट में कठिन शब्दों के हिन्दी अर्थ भी दिए गए हैं.संवाद पात्रोंनुकूल एवं उनकी मनोदशा प्रकट करने में सक्षम हैं.लोक में प्रचलित लोकोक्तियों और मुहावरों का भी यथास्थान उपयोग किया गया है जो गढ़वाली भाषा की समृधि को दर्शाते हैं.तत्सम शब्दों के साथ ही देशज शब्दों ने भी स्थान स्थान पर उपयोगिता सिद्ध की है.गढ़वाल के ग्रामीण जीवन को उजागर करने वाले इस उपन्यास को आंचलिक गढ़वाली उपन्यास कहना उचित होगा.गढ़वाली गद्य साहित्य को समृद्ध करने में डॉ उमेश चमोला की यह कृति सराहनीय योगदान है.

नवल (अक्तूबर –दिसम्बर २०१४ ) से साभार 

शनिवार, 13 मई 2017

पुस्तक समीक्षा



कचाकी गढ़वाली उपन्यास
उपन्यासकार –डॉ उमेश चमोला
समीक्षक –डॉ नागेन्द्र जगूड़ी नीलाम्बरम
समीक्षा शीर्षक --गढ़वाली में डॉ उमेश चमोला का उदंकार
मैं यह कहने की गुस्ताखी नहीं करूँगा कि मैं गढ़वाली भाषा का विद्वान हूँ.मैंने अपने को हमेशा साहित्य का एक जिज्ञासु विद्यार्थी ही माना है.मैंने गढ़वाली भाषा साहित्य में डॉ पुरषोत्तम दत्त डोभाल,घनश्याम शैलानी,भजन सिंह सिंह ,कन्हैया लाल डंडरियाल ,जीवानंद श्रीयाल,डॉ गोविन्द चातक,मोहन लाल नेगी,धर्मानंद कोठारी,पं०आदित्यराम दुधपुडी,डॉ महावीर प्रसाद गैरोला,गुणानन्द’पथिक’,डॉ सत्यानन्द बडोनी,अबोधबंधु बहुगुणा,भगवतीचरण निर्मोही,प्रेमी पथिक के रचनाकार तोताकृष्ण गैरोला,नरेन्द्र सिंह नेगी,मनोहर लाल उनियाल श्रीमन जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों को खूब पढ़ा.
 जहाँ तक मानक गढ़वाली सर्वमान्य भाषा का प्रश्न है,इस प्रसंग में मैं डॉ गोविन्द चातक को मानक रचनाकार मानता हूँ.गढ़वाली भाषा को उन्होंने हिन्दी के सहारे एक सबल सशक्त भाषा बनाया है.टीरियाली,सलाणी,श्रीनगरया,दश्योल्या,टकनौरी,रमोल्या,जौनपुरी आदि की क्षेत्रीयता  मे फंसकर हम लोग गढ़वाली का कद छोटा करके उनको एक बोली बना देते हैं.भजन सिंह,’सिंह’ जी और घनश्याम शैलानी जैसे दिग्गज साहित्यकारों ने भी गढ़वाली की क्षेत्रीयता की सीमाओ को तोड़कर मानक भाषा के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया है.
 वर्तमान गढ़वाली साहित्य में डॉ उमेश चमोला जैसे साधक साहित्यकार अपने अत्यंत कुशल भाषा शिल्प के साथ अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करने में सफल रहे हैं.डॉ उमेश चमोला का वर्ष २०१३ में प्रकाशित उपन्यास कचाकी’पढ़ते हुए मुझे जीवन में पहली बार महसूस हुआ कि गढ़वाली भाषा का मेरा ज्ञान काफी अपूर्ण है.हालाँकि मुझे लगा कि गढ़वाली भाषा के कुशल तैराक साहित्यकार डॉ उमेश चमोला ने कुछ ज्यादा ही प्राचीन (पुरानी)गढ़वाली का प्रयोग अपने आनंद अतिरेक में कर डाला है.इससे सबसे बड़ा लाभ ये हुआ कि गढ़वाली के लुप्त होते हुए प्राचीन शब्दों को उन्होंने अपने उपन्यास में सहेज लिया है.यह उपन्यास पुराने लुप्त होते हुए शब्दों का सुखद शब्दकोष है.लेकिन इससे साहित्य को यह भी नुक्सान हुआ है कि डॉ उमेश चमोला जैसे अध्येता साहित्यकार ने आधुनिक प्रचलित हिन्दीपरस्त  गढ़वाली में नएं पर्यायवाची शब्दों को खोजने का करिश्माई लेखन कार्य नहीं किया.मैं जानता हूँ कि डॉ चमोला वर्तमान गढ़वाली साहित्य के सर्वाधिक समर्थ रचनाकारों में से अग्रगणनीय हैं,एक वहीं हैं जो आधुनिक गढ़वाली साहित्य में नए शब्दों की सेना खडी कर सकते हैं.
 मेरी उनसे नवीन सृजन के हित में गुजारिश है कि वे प्राचीन शब्दों से काम चलाने के पर आधुनिक शब्दों का सृजन कार्य अपने हाथों में लें.वे कथा को बेल –बूटे लगाकर गूंथने-बुनने के कार्य में कुशल हैं.उनके पास  साहित्यिक मुहावरों का विशाल भंडार है.उनके पास सुगठित भाषा है.वे भावनाओं के प्रस्तुतीकरण के विशेषज्ञ हैं.
 हम अपनी  मातृभाषा गढ़वाली पर चाहे जितना गर्व कर लें,यह एक अकाट्य सत्य कि गढ़वाली भाषा का सर्वमान्य मानक स्वरूप अभी भी उभर कर सामने नहीं आ पाया है.अपनी दुध्भाषा और अपनी माँ को  सभी लोग प्यार करते हैं.दुध्बोली के मोह में भ्रमित होकर आज भी हम यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि गढ़वाली अपने आप में एक सर्वांग विकसित परिपूर्ण समर्थ भाषा हो चुकी है.हमारे पास महाकाव्यों में कितने प्रसिद्ध महाकाव्य हैं?हमारे पास तोता कृष्ण गैरोला की प्रेमी पथिक जैसी कालजयी काव्यकृति है.कन्हैयालाल डंडरियाल का नागराजा जैसा महाकाव्य है और भजन सिंह सिंह जी की काव्यसंग्रह सिंहनाद जैसी अप्रितम रचना है.
 यदि संस्कृत और हिन्दी का कोई प्रकांड पंडित भी गढ़वाली भाषा के साहित्य को पढना और समझना चाहे तो नहीं समझ सकता.संस्कृत जैसी महान भाषा अपने कठोर व्याकरण के कारण आम जनता से छिन गयी है.चौसर के ज़माने की पुरानी अंगरेजी सेना के तम्बू भी उठ चुके हैं.कन्त्रोवरी टेल्स’ अब सामान्य अंगरेजी भाषा का काव्य नहीं रह गया है.इसीलिये मैं कहता हूँ पुरानी कठिन गढ़वाली का युग लद चुका है.हमें पुरानी गढ़वाली को अवश्य सहेजना चाहिए.उसके शब्दकोष  भी बनने चाहिए.आप उसके छौंके तो लगा सकते है लेकिन उसे मुख्य भाषा नहीं बना सकते.गढ़वाली में खेतों के लिए कहीं कहीं डोखरा और डोखरी शब्द है.कहीं पुन्गडा पुन्गडी शब्द है.कहीं खेत शब्द ही है.मक्खंन के लिए ही दर्जनों शब्द हैं- मक्खंन,थनोंट,चोखण,नौणी,गल्खिया आदि जगह जगह प्रचलित हैं.रचनाकारों को सोच समझकर मक्खन ही चुनना चाहिए ताकि शेष देशवासी भी हमारी भाषा को समझ सकें.
 डॉ उमेश चमोला गढ़वाली भाषा के एक सिद्दहस्त रचनाकार हैं.मैं कह सकता हूँ कि उनकी साहित्य साधना अगाध है.उन पर माता सरस्वती की प्रत्यक्ष कृपा है.मैंने जब उनका उपन्यास पढ़ा और जब उन्होंने मौसिया माता (सौतिया माँ) मासंती के जादू टोने,टूटमुने का लम्बा वर्णन किया तो मैं उपन्यास के प्रति काफी गुस्से और नफरत से भर उठा.मैंने सोचा कि इतने विद्वान रचनाकार   को इस पाखण्ड और अन्धविश्वास ढोंग का इतना विस्तृत वर्णन करने की क्या आवश्यकता पडी?इसमें मासंती जैसी डैण-डाकीण का इतना महिमा मंडन जैसा वर्णन करना पाठकों के लिए घातक है.
लेकिन सिर्फ एक आख़िरी पेज में कुशल रचनाकार ने अत्यंत कुशलता के साथ रचना का बहुत ही सुखांत और मनोवैज्ञानिक रूप से सटीक समापन कर डाला और पूरे कथानक को बिलकुल ही नया मोड़ डे दिया.तब पिछला अटपटा वर्णन एकाएक सार्थक और अनिवार्य हो उठता है.रूसी साहित्यकार लियो टाल्स्टाय के साहित्य में जारशाही के जमाने के रुढ़िवादी अन्धविश्वासी पाखंडी,ढोंगी सामंती रूसी समाज का बहुत विस्तृत वर्णन पाया जाता है.कम्युनिष्ट क्रांति के समकालीन साहित्यकारों ने जब लियो टाल्स्टाय को कोसना प्रारंभ किया तब लेनिन ने कहा कि लियो टाल्स्टाय का साहित्य हमारे लिए अमूल्य धरोहर है क्योंकि सामंती रूसी समाज की बीमारियों को गहराई से समझने में टाल्स्टाय का साहित्य हमारी सहायता करता है.
 पर्वतीय समाज में व्याप्त अन्धविश्वास,ईर्ष्या ,द्वेष,सामाजिक रोगों ,ठेठ ग्रामीण जीवन विश्वास,पारिवारिक विघटन,सौतिया डाह के स्वरूप और प्रतिफल को समझने में डॉ उमेश चमोला का यह अद्वितीय उपन्यास पाठक को बड़ी सहायता करता है.
 कचकी उपन्यास का कथानक एक अत्यंत दूरस्थ विकट भूगोल में स्थित ठेठ पर्वतीय गाँव से सम्बंधित है.पर्वतीय नारी की कठिन और प्राणघाती दिनचर्या को लेखक ने बड़ी ही चतुरता के साथ रेखांकित किया है.उपन्यास का प्रथम वाक्य ही है –‘’दीपा भारि डक़ख्वा छै.कैसे पर्वतीय नारी पेढों पर चढ़ कर ,जान हथेली पर रखकर जीवनयापन करती है.इस चिंता को उपन्यासकार ने पुरे समाज की चिंता बना दिया है.दीपा की माँ सुरिणी पहाड़ पर घास काटते हुए फिसल कर मर जाती है.कुछ समय बाद दीपा का पिता हयातु मासंती से दूसरा विवाह कर लेता है.
 पर्वतीय दूरस्थ सीमान्त ग्रामीण इलाकों में लोग अपनी पत्नी की बहिनों से दूसरा विवाह करते रहे हैं.औरत पर्वतीय जीवन की सबसे कुशल मजदूर हैं.अधिक खेती व पशुपालन चलाने के लिए यहाँ बहु विवाह सामाजिक रूप से सर्वस्वीकृत रहे हैं.पर्वतीय जन जीवन में इसी कारण मौसिया माँ(मौसियाँण ब्वे)की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है क्योंकि करीब एक तिहाई परिवारों में प्रथम बहू पेड़ से गिरकर .पहाड़ से फिसल कर ,भूस्खलन से या पत्थर लगने से मर जाती है.मौसियाण माता शब्द ही कभी उन माताओं के लिए चला होगा जो पहले मौसी होती थी और बाद में माँ बन जाती है.मौसी और माँ का अंतर कभी भी पाटा नहीं जा सकता.ये मौस्यांण ब्वे जब सौत्याँ (सौतिया माता) के क्रूर अत्याचारी रूप में मासंती बनकर अवतरित होती है तब पूरे परिवार का जीवन षड्यंत्रों से भर जाता है.
 पर्वतीय जन जीवन में विवाह पूर्व जन्मपत्री कुण्डली मिलाने का पाखंडपूर्ण अन्धविश्वास कितनी गहराई तक व्याप्त है इस तथ्य को उकेरने में उपन्यासकार बहुत ही सफल रहा है.जीवानंद बामण कई कई बार फर्जी नकली कुंडलियाँ बनाकर शादियाँ कराने का धंधा करता रहता है.इस पाखंडी अन्धविश्वासपूर्ण अनिवार्य धार्मिक विश्वास के नाम पर होने वाले पोथी पातडे जन्म्पत्रों के बामण कुकर्म को लेखक ने बड़ी कुशलता से बेनकाब किया है.यह उपन्यास इसी कारण वास्तव में पुरस्कृत करने के लायक अत्यंत श्रेष्ठ उपन्यास है.
 उपन्यास की नायिका दीपा का विवाह भी नकली जन्म कुण्डली की बदोलत ही उपन्यास के नायक प्रभात के साथ हो जाता है.सौतिया माता मासंती पर अपनी सौतेली बेटी दीपा का वैवाहिक जीवन बर्बाद करने की बुरी सनक सवार हो जाती है.यह इसके लिए अथर्ववेद के तांत्रिक कार्यों ,पर्वतीय जीवन में बुरी तरह प्रचलित कापालिक टोनो,भूतप्रेत पूजा का सहारा लेती है.यह पाखंडी तांत्रिक षड्यंत्री पूजा इस उपन्यास की केन्द्रीय कहानी बन गयी है.दीपा के पिता हयातु का पर्वतीय जीवन के निष्क्रिय पुरुष का जीवन है.मौसियाण बवे मासंती सुविख्यात खलनायिका है.ऐसी मासंती पर्वतीय जन जीवन के हरेक गांवों में दर्जनों की संख्या में रहती है.वह विकट पर्वतीय जीवन धारा में जहर घोलती रहती है.मासंती खेतों के ओडे (सीमा चिह्न)खिसकाती है.सौतिया बेटी दीपा का पूरा वैवाहिक जीवन बर्बाद करती है.दामाद पर भरण पोषण की धनराशि पंचायत में लगवाती है.धनवसूली करके भी दामाद और उसके परिवार को दहेज़ के झूठे मुकद्दमे में फंसा देती है.दहेज़ के झूठे मुकदमे का वर्णन करके  उपन्यासकार ने भारतीय समाज की दुखती रग पर हाथ रखा है.सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि लोग दहेज़ उत्पीडन के हजारों झूठे मुकदमे दायर करके कानून का भारी दुर्प्रयोग कर रहे हैं.
 दहेज़ का झूठा मुकदमा लगाकर मासंती अपनी सौतिया बेटी दीपा के ससुराल वालों से पांच लाख रूपये की बड़ी रकम ऐंठ लेती है.जब अपनी खुद की बेटी सुरेखा की शादी इसी बदनामी के कारण से होते होते रह जाती है और रिश्ता टूट जाने का सदमा तब मासंती बर्दाश्त नहीं कर पाती.सदमा लगने से मासंती पागल हो जाती है.वह अर्ध विक्षिप्त स्थिति में अपने सारे पाप,कुकर्म,जादू टोने के कुकृत्य स्वयं ही स्वीकार कर लेती है.बुराई करने का बुरा प्रतिफल स्वयम मासंती के जीवन और उसकी युवा पुत्री सुरेखा के भविष्य को नष्ट कर देता है.इसके साथ ही मायके में अटकी हुई दीपा को लेने के लिए प्रभात अपना विश्वस्त सन्देश वाहक भी भेज देता है.यहीं पर उपन्यास का सुखान्तकारी समापन  हो जाता है.
 उपन्यासकार ने अपनी इस रचना में वास्तव में अपनी साहित्यिक सामर्थ्य का भरपूर प्रयोग किया है.हम त तिराल का ढुंगा छन (हम तो टूटते ढलान नदी तट के पत्थर हैं),तरुने ना मौरू ज्वे अर बाले ना मौरू ब्वे(जवानी में जोडीदार न मरे और नवजात बच्चे की माँ न मरे)जैसे जबरदस्त मुहावरों से यह उपन्यास लबालब भरा है.द्विचित्या,उदंकार,यकुलांस,अफबदु,हुरमुर,असुखि,अन्खतोप,फैडी,कबजल जैसे विशिष्ट श्रेणी के साहित्यिक शब्दों की इस उपन्यास में भरमार है.
 उपन्यास अत्यंत सोद्देश्यपूर्ण है.अपनी मुख्य धारा में उपन्यास का नायक प्रभात नायिका दीपा से साफ़ साफ़ कह देता है –टोनू-मोनु उकटनत कु बाटू छ.(तांत्रिक मन्त्र पूजा अंतत; विनाश का रास्ता है.
 कुल मिलाकर यह गढ़वाली उपन्यास एक अत्यंत पठनीय,साहित्यिक कलाकारी से भरपूर एक उत्कृष्ट रचना है.यह गढ़वाली साहित्य का एक अमूल्य मोती है.इस रचना के बाद हम कह सकते हैं कि साहित्यिक प्रतिभा के धनी डॉ उमेश चमोला जैसे साधक तपस्वी रचनाकारों की पीढी ही गढ़वाली भाषा को मानक स्वरूप प्रदान करेगी.डॉ चमोला ने गढ़वाली साहित्य के क्षितिज पर नया उदंकार इस उपन्यास के रूप में प्रकाशित किया है.
-------उत्तराखण्ड स्वर अगस्त २०१५ से साभार


शुक्रवार, 12 मई 2017

पुस्तक समीक्षा













फूल(बाल कविता संग्रह)
समीक्षक –हरि मोहन ‘मोहन’
कवि –डॉ उमेश चमोला
प्रकाशक : अखिल ग्राफिक्स;3/11 हाईडील कोलोनी बिजनौर ,उत्तर प्रदेश
 डॉ उमेश चमोला के बाल कविता संग्रह “फूल” में २७ कवितायेँ हैं.इनमे से अधिकांश चार से आठ लाइन की छोटी कवितायेँ हैं.कवितायेँ दैनिक परिवेश से जुड़े पशु-पक्षी;फल-फूल,प्रकृति,दैनिक उपयोग की वस्तुओ पर हैं जिनसे बच्चे अच्छी तरह परिचित हैं.कम शब्दों और कम पंक्तियों की कवितायेँ बच्चों को अधिक पसंद आयेंगी  और उन्हें याद भी रहेंगी.
 भाव व भाषा शिल्प की दृष्टि से भी कवितायेँ बच्चों के मानसिक स्तर की व सहज तादात्म्य बनाने वाली है.प्रत्येक कविता के साथ उससे सम्बंधित चित्र बच्चों को आकर्षित करने वाले हैं.झरना,दीपक,फूल,चिड़िया,कोयल,हवा,मेंढक,स्कूल,गुब्बारे,आम,मोबाईल,घड़ी,प्यारी बहना आदि छोटी कवितायेँ हैं जिन्हें शिशु गीत भी कहा जा सकता है.
संग्रह की पहली कविता ‘अ’ से बच्चों को वर्णमाला का ज्ञान कराने वाली है.
अ से अमरूद,आ से आम,ये दोनों हैं फल के नाम,
दीपक कविता सन्देश देती है –
दीपक जैसा हम बन जाएँ,अन्धकार को दूर भगाएँ.
हाथी दादा कविता में पर्यावरण की चिंता दिखाई देती है-
हाथी दादा क्यों बिगड़े,सड़क के पेड़ क्यों उखड़े?
काट दिए जब से जंगल,शहर में करता हूँ दंगल
चार पंक्तियों की घड़ी कविता भी सन्देश देने वाली है –
टिक टिक टिक बोले घड़ी,समय की कीमत बहुत बड़ी,
समय की कीमत जो जाना,समय ने उसको है माना,
पहेलियाँ कविता में विभिन्न पक्षियों से सम्बंधित पहेलियाँ बुझी गयी हैं जिनसे बच्चों के ज्ञान में वृद्धि ही होगी.पतंग,चंदा मामा,बच्चे प्यारे,आजादी का मोल,सपना कवितायेँ अपेक्षाकृत बड़ी हैं और बड़ी उम्र के बच्चों को ही पसंद आएंगी.
 बाल कविता संग्रह की एक विशेषता यह है कि डॉ चमोला ने पुस्तक प्रकाशन से पूर्व कुछ विद्यालयों में बच्चों को ये कविताएँ पढ़वाकर उनसे इन पर राय मांगी.बच्चों ने अपनी समझ के अनुसार उन पर अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की.विभिन्न विद्यालयों के १९ बच्चों की ये प्रतिक्रियाएं संग्रह में कविताओं से पूर्व दी गयी हैं.इस प्रयोग से बच्चों की रूचि और कविताओं के प्रति रुझान का पता भी चलता है.यह एक अभिनव प्रयोग है जिससे बच्चों की रूचि का पता तो चलता ही है और मिलता है बाल रचनाकारों के लिए मार्गदर्शन.
    नवल(अप्रैल –जून २०१५) से साभार



गुरुवार, 11 मई 2017

कविता

साजिश 
तुम मेरे जीवन का एक दुखद अध्याय हो ,
इसमें लिखी है
मेरे विरुद्ध तुम्हारी की गयी साजिशों की इबारतें,
इसमें लिखा है कि तुमनें रुपयों की खातिर
कैसे रची थी मेरी मौत की साजिश,
और छिन्न भिन्न कर डाला विश्वास का अटूट बन्धन,
तुम्हारी साजिशों की दीवार को फांदकर
मैं कैसे बच गया था ,
यह भी इसमें लिखा है ,
अभी भी समय समय पर
तुम्हारी साजिशी आंधी के थपेड़े
मुझे विचलित करने आते हैं ,
पर याद रखना कि यह थपेड़े मुझे डिगा नहीं सकते
क्योंकि मैं अब बन चुका हूँ हिमालय
और मेरे ऊपर विराजते हैं नीलकंठ.

रचना-----डॉ उमेश चमोला