सोमवार, 15 मई 2017

पुस्तक समीक्षा


कचाकी :रूढ़िवादी परम्पराओं पर चोट
उपन्यासकार –डॉ उमेश चमोला
समीक्षक –कालिका प्रसाद सेमवाल
कचाकी उपन्यास डॉ उमेश चमोला का नागपुरिया गढ़वाली भाषा में लिखा गया है.कचाकी को गढ़वाली में कचाक,घौ,चोट आदि कहा जाता है.हिन्दी में इसका सीधा अर्थ है घाव.डॉ उमेश चमोला का यह दूसरा उपन्यास है.इससे पहले उनका पर्यावरणीय संरक्षण और सामाजिक सरोकारों पर आधारित उपन्यास निरबिजू नाम से प्रकाशित हो चुका है.
 वर्तमान समय में उपभोक्तावाद और बाजारवादी मानसिकता के कारण मानवीय रिश्ते भी तार तार होते जा रहे हैं.अब हमारे गढ़वाल में भी आये दिन रिश्तों के टूटने तथा कलंकित होने की खबरें आती रहती हैं.इसका सजीव चित्रण कचाकी में लेखक ने किया है.कितनी विडम्बना है कि आज के वैज्ञानिक युग में कुछ रुढ़िवादी लोग अपने स्वार्थ के लिए तंत्र मन्त्र,झाड़,फूंक करने वाले लोग अपनों को ही तबाह करने का कार्य करते है.इस उपन्यास में इन्हीं घटनाओं का बारीकी से चित्रण किया गया है कि किस तरह से एक सौतेली माँ अपनी सौतेली पुत्री के बसे बसाये घर बार को तबाह कर देती है.अपने कुचक्रों की कुल्हाड़ी मारती है तो उस कुल्हाड़ी की चोट से जो घाव लगता है वही इस उपन्यास का कथानक व शीर्षक बन गया.
 उमेश के इस उपन्यास में कथानक जितना मनोरंजक है उतना ही  सन्देश देने वाला है.गढ़वाल के कुछ लोग टोने टोटके करने का व्यवसाय करते हैं.इन्होने आम लोगों को भ्रम की स्थिति में रखा है.उपन्यास का नायक प्रभात भी इस रुढ़िवादी व्यवस्था का शिकार होता है.लेखक ने टोने टोटके से सावधान रहने का आह्वान किया है.जिन उद्देश्यों को लेकर यह उपन्यास लिखा गया है उस पर न्याय करने की कोशिश लेखक द्वारा की गयी है.देश,काल और परिस्थिति के सन्दर्भ में यह उपन्यास गढ़वाल के वर्तमान परिवेश को उद्घाटित करता है.
(युगवाणी जनवरी २०१५ के अंक से साभार )

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