मंगलवार, 5 जुलाई 2022

कुछ बातें , कुछ यादें 33

 





मैं और लियोटॉस्टॉय की कहानियां

   प्रत्येक पुस्तक या रचना के सृजन के पीछे कोई न कोई प्रेरक घटना अवश्य होती है। वर्ष 2020 में मेरी लियोटॉल्स्टाय की अंग्रेजी में उपलब्ध 16 कहानियों के गढ़वाली अनुवाद पर आधारित पुस्तक ‘ छै फुटै जमीन‘ प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक के सृजन के पीछे तब की प्रेरणा थी जब मैं कक्षा 7 का विद्यार्थी था। तब मेरे पिताजी अंग्रेजी पढ़ाते थे। एक दिन पिताजी ने मुझे अंग्रेजी में प्रकाशित एक कहानी ‘पिलिग्रिमेज‘ पढ़ने को दी। कुछ समय बाद मुझे हिन्दी की पाठ्यपुस्तक ‘नवभारती‘ में ‘सच्चा तीर्थयात्री‘ नाम से यही कहानी पढ़ने को मिली थी । मुझे यह कहानी बहुत अच्छी लगी थी ।  इसके बाद हमारी अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तक में एक कहानी मैंने और पढ़ी थी। इस कहानी में दो बच्चे एक छोटी सी बात पर लड़ते हैं। उन बच्चों की लड़ाई होते देख उनके अभिभावक आपस में लड़ पड़ते हैं। बड़े लोगों की लड़ाई चलती ही रहती है कि इसी बीच उन्हें वे ही दो बच्चे एक दूसरे से बड़े प्रेम से मिलते हुए दिखाई देते हैं। इसी तरह मुझे एक किसान की कहानी किसी पत्रिका में पढ़ने को मिली। इस कहानी में एक किसान से जमीन बेचने वाला शर्त रखता है कि सूर्याेदय से सूर्यास्त तक वह एक दिन में जमीन के जितने भाग का चक्कर लगाएगा   उतनी जमीन किसान की हो जाएगी।  किसान को जहां से चलना शुरू किया वहीं पर सूर्यास्त होने से पहले पहुंचना होगा। किसान जमीन के एक छोर से घूमना शुरू करता है। उसका लालच बढ़ता जाता है। वह दौड़कर अधिकतम भूमि को पाना चाहता है। सूर्यास्त तक वह लक्ष्य बिन्दु तक पहुंचता तो है किन्तु उसका शरीर साथ नहीं देता है। उसके हिस्से आती है बस छह फुट की जमीन वह भी मरने के बाद। ज्ञात हुआ कि महात्मा गंाधी को भी यह कहानी बहुत पसंद थी।

   एक कहानी प्रेमचन्द द्वारा अनूदित ‘क्षमादान‘ भी मैंने किसी पत्रिका में पढ़ी थी। इस कहानी में एक निरपराध व्यापारी को किसी की हत्या के अभियोग में जेल भेजा जाता है। कई वर्षों के बाद अपराधी आत्मसमर्पण करता है। जेल से उस व्यापारी को छोड़ने की तैयारी होती है तब तक वह ईश्वर को प्यारा हो जाता है।

  बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि मैंने ये जो भी कहानियां पढ़ी हैं, इन सबका रचनाकार एक ही व्यक्ति है। उस व्यक्ति का नाम है लियोटॉल्स्टाय। तब मैंने लियोटॉल्स्टाय के कृतित्व और जीवन के बारे में विस्तार से अध्ययन किया।  

 कक्षा 7 से उपजी मेरे मन की प्रेरणा  ने वर्ष 2020 में साकार रूप लिया जब मैंने लियोटॉस्टाय की अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध सोलह कहानियों का गढ़वाली में ‘छै फुटै जमीन‘ नाम से अनुवाद किया। इन कहानियों में से ‘लौस्ट अपोरचुनिटी‘, ‘हाउ मच लैण्ड डज ए मैन नीड‘, ‘द हर्मिटेज‘, ‘द ग्रेन‘, एल्योशा द पौट, व्हैर लव इज गॉड इज‘ आदि प्रमुख कहानियां हैं। इन कहानियों के पात्रों के नामों में गढ़वाल के सामाजिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए परिवर्तन किया गया और इन कहानियों के अंग्रेजी वाक्यांशों का गढ़वाली भाषा की लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग करते हुए रूपांतरण किया गया। 

 3 जनवरी 2017 को पिताजी  ने इस संसार से विदा ली थी। पिताजी की यादों और प्रेरणा को  समर्पित  यह पुस्तक 2020 में प्रकाशित  हो पाई ।



शुक्रवार, 14 मई 2021

पुस्तक समीक्षा , प्रीतम सतसई ,


 

                               कवि- डॉ. प्रीतम अपछ्याण

                                समीक्षक-डॉ. उमेश चमोला

      दोहा हिन्दी साहित्य में प्रचलित प्राचीन छंद है। वीरगाथा काल, भक्तिकाल और रीतिकाल सभी में दोहा एक महत्वपूर्ण छंद के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। जहाँ भक्ति काल में ईश्वर के प्रति भक्ति भावना और नीतिगत बातों को दोहों के माध्यम से व्यक्त किया गया वहीं रीतिकाल के कवियों ने अपने दोहों में नायिका के नख -शिख का वर्णन किया है। बिहारी ने तो तेरह और ग्यारह मात्राओं पर आधारित चार चरणो वाले इस छंद के माध्यम से भरे भवन में नायक और नायिका के द्वारा आँखों ही आँखों में आपस में बातों को कहने, इंकार करने,प्रसन्न होने, खीजने, मिलने, प्रसन्नता से खिलने और शरमाने जैसे  भावों को व्यक्त करने का चित्रण किया है। चार चरणो वाले इस छंद में भावों की व्यापकता को समेटने के कारण ही गागर में सागरवाली बात चलन में आई।

   सात सौ या  अधिक दोहों को सतसई नाम से संकलित कर प्रकाशित करने की परंपरा रही है। यदि हम  गढ़वाली साहित्य में दोहा रचना की परंपरा का अवलोकन करें तो अबोधबंधु बहुगुणा  द्वारा रचित तिड़काऔर भजन सिंह सिंह की सिंह सतसईप्रमुख कृतियों के रूप में सामने आती हैं। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए डॉ. प्रीतम अपछ्याण ने 793 दोहों के संकलन को प्रीतम सतसईनाम देकर प्रकाशित किया है। डॉ. अपछ्याण ने इन दोहों को लोक को ही अर्पित करते हुए लिखा है,

                                            ‘‘गढ़वळि सतसई सैंकदू,भाषा पिरेम्यूं हात,

                       प्रीतम तेरो बानो रैयो, लोक खड़ो सगछात।‘‘

   (इस गढ़वाली सतसई को मैं भाषा प्रेमियों के हाथों सौंपता हूँ। प्रीतम तुम तो इसके बहाने मात्र थे। वास्तव में लोक ही सामने साक्षात खड़ा रहा और उसी ने ये दोहे रचे हैं।)

    इससे स्पष्ट होता है कि कवि जिस लोक में जिया है उसी को सामने रखकर उसने इन दोहों की रचना की है। इन दोहों में उत्तराखण्ड का लोक जीवंत रूप में दिखाई दिया है। ये दोहे यहाँ के लोक देवताओं के वंदन, यहाँ बीते बालपन  ऋतुएँ, यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य, राजनीतिक और सामाजिक विद्रूपता, नशाखोरी, भ्रष्टाचार, यहाँ की जीवन शैली में आए बदलाव, फैशन, शिक्षा व्यवस्था, बेरोजगारी, सरकारी योजनाओं के साथ ही प्रेम की भावना, बाँद (नायिका के सौन्दर्य) की भाव भूमि पर आधारित हैं।

कुछ दोहों में यहाँ की व्यवस्था और सत्ताशाही पर तंज सीधे नहीं कसा गया है बल्कि इसके लिए यहाँ के लोक में प्रचलित मुहावरों, लोक कहावतों और लोक कथा तथा लोकगाथा से संबंधित प्रसंगों का प्रयोग किया गया है। जैसे-

 ‘‘सत्ता तेरी देळि मा, गिरबी रैगि   पराणि,

  गुरौ सि कब जी बणि सके,कितलो ताणी ताणि।

(हे सत्ता! तेरी देहरी पर अब सबने अपने प्राणो को गिरबी रखा हुआ है। इनको नहीं मालूम कि कितना ही जोर लगा ले, खिंच ले किन्तु केंचुआ कभी सर्प नहीं बनता है।)

यहाँ केंचुआ  कितना तन जाए किन्तु कभी सर्प नहीं बनता है।लोक कहावत का सुन्दर प्रयोग हुआ है।

इसी तरह -

 ‘‘कतगै करिल्या जोड़ जतन, हूणी ह्वै कि रांद,

  कर्म मुच्छ्याळी जौगि की समिणी ऐ ही जांद।‘‘

(चाहे तुम कितना ही प्रयास कर लो, होनी होकर ही रहती है। कर्म रूपी लकड़ियाँ भी जलकर सामने आ ही जाती हैं।)

जीतू बगड़वाल प्रसिद्ध लोकगाथा  के प्रसंग का प्रयोग कवि  सत्ता में चूर लोगों को चेताने में इस प्रकार करता है-

‘‘ सरकारि भेना ऐंठि ना, भोळ नि रालौ ब्याळि,

  जीतू की खैंगळि ह्वयै, एक थै भरणा स्याळि।‘‘

 ( ओ सरकार में बैठे हुए जीजा! इतना घमण्ड भी मत करो क्योंकि बीता हुआ कल आने वाले दिनो में नहीं रहता है। याद रखना जीतू बगड़वाल का भी विनाश हुआ था और उसकी भी भरणा नाम की एक साली थी।) 

 उत्तराखण्ड की प्रसिद्ध लोक कथा है काफल पाको, मिन ना चाखो। जब जंगलों में काफल पक जाते हैं तो यह कथा याद आती है। कवि ने दोहे के माध्यम से इस लोककथा के सार को इस प्रकार व्यक्त किया है-

 ‘‘काफल पकिग्या मेरि ब्वेई, चखिनी तेरू सौं,

क्रोधन कटकै प्राण म्यरा, त्यरे बणू मा छौं।‘‘

( हे मेरी माँ!काफल पक गए हैं। तेरी सौगंध है कि ये मैंने नहीं चखे हैं। तेरे क्रोध के कारण मुझे मरना पड़ा पर मैं अभी भी पक्षी के रूप में तेरे ही जंगल में हूँ।)

 ऐसे ही प्रयोग अन्य दोहों में  भी देखे जा सकते हैं।

 ब्योलि कथा‘, ‘कचोर्या‘, और फजीतूशीर्षकों के अंतर्गत दिए गए दोहे, दोहों के माध्यम से  कवि के किस्सागोई या कथा लेखन के कौशल को दिखाती हैं। यदि कवि भविष्य में किसी लोककथा या कहानी को   दोहा छंद के माध्यम से व्यक्त करे तो इसमें सफल हो सकता है।

  प्रकृति के आधार पर कवि ने समस्त दोहों को उन्नीस शीर्षकों के अंतर्गत स्थान दिया है। इसमें देवार्चन शीर्षक में कवि दोहों के माध्यम से वाग्देवी सरस्वती, शिव, केदारनाथ,कृष्ण, देवी भगवती,नंदा, गंगा मैया से प्रार्थना करता है। कवि भक्ति, विज्ञान और मानवता के बारे में अपनी भावना इस दोहे के माध्यम से व्यक्त करता है-

 ‘‘भक्ति त सूदी विश्वासी, अविश्वासी विज्ञान,

  मनख्याळी रौ मुंथा मा,इथी चैन्द भगवान।‘‘

( भक्ति तो निरी विश्वासी होती है जबकि विज्ञान नितांत अविश्वासी होता है। इस धरती पर मानवता बची रहे, हे भगवान!आपसे हम सिर्फ इतना ही चाहते हैं।)

देवार्चन में कवि एक दोहा महाकवि कन्हैयालाल डंडरियाल  को इस प्रकार समर्पित करता है-

 ‘‘ कत्रु सि जीवन, कत्रु मन,अद्भुत लेखी छोड़ि,

   महाकवि कन्हैयालाल जी, स्यवा लांदु हथजोड़ि।‘‘

(कितना सा जीवन था और कितना बड़ा मन था, कैसा अद्भुत कालजयी लिख छोड़ गए आप। महाकवि डंडरियाल आपको चरण स्पर्श कर प्रणाम करता हूँ।)

 

नीति शीर्षक के अंतर्गत कवि ने चौवन दोहे रचे हैं। इनके द्वारा कवि ने जीवन में घमण्ड न करने, पारिवारिक संस्कार, सुसंस्कृत घर, जीवन की क्षण भंगुरता, समय की गति, मानवता आदि पर नीतिपरक बातें आदि विषयों को महत्व दिया है। समय की गति विषयक एक दोहा इस प्रकार है-

‘‘समझांदो इतिहास यो, बगत बड़ो बेमान,

जौंकि छै जग मा चराचरी,मिटगे तौंका निशान।‘‘

( इतिहास हमें यही समझाता है कि समय बड़ा ही बलवान और बेईमान होता है। कभी जिनकी तूती संसार में बोलती थी, आज उनके निशान तक मिट गए हैं।)

 हमें बड़ी चीज को देखकर छोटी चीज की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यह बात रहीम यों कह गए हैं-

 ‘‘ रहिमन देख बड़ेन को लघु न दीजै डार,

   जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि,‘‘

डॉ. अपछ्याण इसी बात को दूसरे अंदाज में कहते हैं-

‘‘छ्वटों तैं सुदि मानि ना, सगत बड़ों का बीच,

पैजामा कू जोर बी, नाड़ु बिगर कुछ नी च‘‘

(बहुत बड़े-बड़े लोगों के बीच भी छोटों को तुच्छ नहीं मानना चाहिए। बिना दो रुपए के नाड़े के सौ रुपए के पैजामें का भी कोई मोल नहीं होता ।)

 इस नीतिपरक दोहे में नैतिक मूल्य के साथ ही व्यंग्य की सरसराहट महसूस की जा सकती है-

 ‘‘ दारू बास से जादा बुरी, बजट खयां की बास,

   एक बणांदो आम अर हैकु बणांदो खास,‘‘

( शराब की गंध से बुरी गंध वंचितों के हिस्से के बजट को खाने की होती है किन्तु दुर्भाग्य है कि शराब से आदमी साधारण हो जाता है और बजट से विशेष।)

 बचपनशीर्षक के अंतर्गत कवि ने नवजात के घर में आने की खुशी, कन्या जन्म पर प्रसन्नता, बालपन की यादों आदि को रचनाओं का विषय बनाया गया है। बच्चे के भविष्य के लिए कवि  शुभकामनाएँ यों देता है-

 ‘‘ऊँचो होलु हिमाल सीं, सौदो बर्फ सी होलु,

  परबत तेरा ब्वे बुबा, तू परबत सी होलु।‘‘

( सुनो बच्चे! तुम उत्तुंग हिमालय और धवल बर्फ जैसा होना, तेरे माता-पिता पर्वतों के वासी थे। इसलिए तुम भी पर्वर्तों जैसा ही होना।)

 दायों जसो फेरो बसंत  में उत्तराखण्ड में बसंत ऋतु के समय के प्राकृतिक चित्रण, मनोहारी फूल, चिड़ियों की चहचहाचट के साथ-साथ वियोग श्रृंगार की झलक भी देखने को मिलती है। एक दोहा देखिए-

  ‘‘ भंकोर्या बुरांस फुकणू, फुलार बणिगे काळ

   म्योली, घुघुती, सुवा तुमी, बींगा म्यरु घुतमाळ ।‘‘

(पूरा खिला हुआ यह बुरांस जला रहा है और फूलों की यह ऋतु साक्षात काल बन गई है। मेरे प्रियतम ऐसे में साथ नहीं हैं। इसलिए हे न्योली! हे घुघुती! हे तोते! तुम ही मेरे मन की कोमल भावनाओं को समझो।)

 सर-सर बहती हवा और तेज हवा पहाड़ी जीवन का अटूट हिस्सा है। तेज हवा के आने से ऐसा लगता है जैसे सारे जंगल को किसी ने झाड़ू से साफ कर दिया हो। बथों शीर्षक वाले एक दोहे में इस भाव का आनन्द लिया जा सकता है-

‘‘बौण सोरिगे ब्वानो सीं,तखन,झखन पुरजोर,

डाळा हल्के ठूंठ हिले, स्वीं-स्वीं बथों का जोर,‘‘

 रूड़ि‘, ‘बरखाऔर ह्यून्द  में दिए गए दोहे क्रमशः गर्मी, बरसात और शीत के समय की परिस्थितियों का चित्रण करते हैं। गाँवों की जीवन शैली में आए बदलाव का चित्रण इन पंक्तियों में देखने को मिलता है-

 ‘‘मन रूड़्यों सी नीरसो,तैला घाम कि झौळ,

  गौळि भिजौणू पेपसी,गऊँ छांछ गै खौळ।

(मन भी गर्मियों जैसा नीरस हो गया है। सिर्फ चटकदार धूप की गर्मी लग रही है। गाँवों की बेचारी छांछ का मखौल उड़ रहा है। अब तो लोग गला भिगाने के लिए पेप्सी को पी रहे हैं।)

तूफान के समय एक गरीब की विपत्ति को यह दोहा बखूबी बयां करता है-

‘‘थमे जा औडळु माणि जा, ये झ्वपड़ी पर आस,

म्हैल उथें छन जोंकु का,नि औ गरिबूं पास ।‘‘

( अरे ओ तूफान! कहना मान और अब थम जा, मेरी इकलौती आशा इसी झोपड़ी प् है, इसे मत उजाड़। अरे! जोंकों के बड़े-बड़े महल उधर हैं, वहीं जा। गरीबों के पास क्यों आते हो ?)

   गाँवों में खेती किसानी, शिल्प, घर और वन के कार्य, जंगल में लगने वाली आग गाँवों का सौन्दर्य, शिक्षा व्यवस्था, पलायन,  शराब का चलन, विकास के नाम पर गाँव में आया बदलाव,बारात, संस्कृति फैशन आदि पर आधारित दोहे  ग्राम जगतशीर्षक के अंतर्गत दिए गए हैं। गाँव में आए बदलाव  के प्रति कवि के हृदय की निराशा इस प्रकार व्यक्त होती है-

‘‘हर्चे आरु, अखोड़, स्यो,कख छिन तिमला पात,

दीन द्वफरि गढ़वाळ मा, पोड़गे औंसि रात‘‘

(आड़ू, अखरोट,सेब खो गए हैं। तिमिले के पत्तों का प्रयोग अब कहाँ ? लगता है कि गढ़वाल में दिन दोपहर में ही अमावस्या की रात्रि आ चुकी है।)‘‘

 समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों के माध्यम से समय-समय पर पहाड़ में मोटर दुर्घटनाओं के दुखदाई समाचार  सुनने को मिलते रहते हैं। कवि लोगों को यहाँ देखभाल कर चलने की सलाह देता है-

 ‘‘ खबर असगुनी टी.वी. पर, कळेजी ह्वे थथराट,

   पाड़ मा लम्डे गाड़ि फिर,  औंके हीट्यां बाट‘‘

( दूरदर्शन पर बहुत बुरी खबर आ रही है। कलेजा थरथरा रहा है। सुना है कि पहाड़ में फिर कोई गाड़ी गिर गई है। मित्रो! रास्तों में देखभाल कर चलना।)

   गाँवों में बढ़ रहे शराब के चलन और इसके विवाह आदि मांगलिक कार्यों का हिस्सा बनने की स्थिति पर भी कुछ दोहे ग्राम जगतमें दिए गए हैं। एक दोहा प्रस्तुत है-

‘‘दूध घ्यू त रै छट्ट छुट्यूं, चा तक छुटगे एक,

 जख तख देखा रंगळ्यां, दारू पर छ नेथ।‘‘

( दूध - घी तो पहले ही छूट गए थे। अब तो चाय पानी तक पूछने का रिवाज छूट गया है। जहाँ भी देखो सब उन्मत्त हैं और शराब पर ही नीयत टिकी हुई है।)

इसी तरह-

‘‘बैख नशों मा टुन्न छन, तरुण फिराक फिराक,

जनानि छ नेता फिल्म्यळी, पर्वत पर लगि हाक‘‘

( मर्द नशे में धुत्त हैं और युवक नशे की फिराक में लगे हैं। महिलाएं या तो नेतागिरी में हैं या फिल्मी बातों में।)

   मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनहीनता का नग्न चित्रण इस दोहे में देखने को मिलता है-

 तेरो मास च चलमलो, स्वाद भलो अनमोल,

 सबासे म्येखुणी सची, मोरलु तू कब बोल।‘‘

( तेरा मांस सचमुच ही स्वादिष्ट है और स्वाद तो अनमोल है। अच्छा सच-सच बता तू मेरे लिए कब मरेगा ?)

  रीतिकाल से ही दोहों के माध्यम से नायक और नायिका के प्रेम के विभिन्न पक्ष अभिव्यक्त होते रहे हैं। डॉ. अपछ्याण ने भी मायाशीर्षक के अंतर्गत लिखे दोहों में प्रेम की भावना व्यक्त की है लेकिन प्रेम के नाम पर दिखाई  दे रहे विकृत पक्षों पर  चोट भी की है। आधुनिक फैशन पर कवि यों व्यंग्य बाण चलाता है-

‘‘काटी बुलबुलि पैरि की, पैंट कमीज वा च,

 नौना नौनी एक जना, पतै नि चलणू क्वा च ?‘‘

( लंबी लटों को काटकर और पैंट कमीज पहनकर  ही वह भी चलती है। लड़के और लड़कियाँ अब एक जैसी हो गई हैं। पता ही नहीं चल रहा कि कौन आ जा रहा है ?)

 एक रूपसी, नायक को देखकर धीरे से हँसकर चली जाए तो नायक  इससे अधिक कुछ नहीं चाहता है। यह भाव इस दोहे में महसूस किया जा सकता है-

‘‘कोथिगेरुं कि लैंज मा, बस त्वी छ भलि बांद,

 सुरक हैंसि कै जै ल्यई, हौर जि मी क्या चांद‘‘

संयोग श्रृंगार की एक स्थिति देखिए-

‘‘एक अर द्वी फिर तीसरी, लगी छुयों कि मेस,

 प्यारि दगड़ त कैकु क्या, देस रौं चा परदेस‘‘

(एक, दो,तीन लगातार तुम्हारी बातों की लाइन लगी हुई है। अच्छा ही है यदि प्रिया साथ में है तो क्या देश, क्या परदेश, सारी जगह प्रसन्नता ही प्रसन्नता है।)

  यदि नायक कोमल दिल का कवि हो तो वह नायिका से अपनी भावना इन शब्दों में ही व्यक्त कर सकता है-

 ‘‘ जांदि त ल्हे प्यारि छुची,त्वेथैं मीन क्या द्यौण,

   क्वांसा दिलौ ल्यखदरु छौं,ल्हीजा गीत समौण।‘‘

( हे प्रिय!तुम जाना चाहती हो तो जाओ,मैं तुम्हें क्या दे सकता हूँ ? कोमल दिल का कवि हूँ तो ऐसा कर कुछ गीतों को सौगात के रूप में ले जा।)

 बांदशीर्षक मे दिए गए दोहे नायिका के सौन्दर्य को ही समर्पित हैं। नायिका के सौन्दर्य का एक शब्द चित्र देखिए-

 ‘‘स्योंदि पाटी तड़तड़ी,लटुली छै घुंघराळि,

  ऐना कंघी दगड़ा चा, बांद बड़ी नखर्याळि

( बालों के बीच की रेखा सीधी है और बाल घुंघराले हैं। दर्पण और कंघी हमेशा साथ रहती है। वह सुन्दरी बहुत नाज नखरों वाली है।)

 रीतिकाल के कवि केशवदास  के बारे में एक किस्सा प्रचलित है। एक बार वे वृद्धावस्था में किसी कुएँ के पास बैठे थे। उन्हें कुछ बालिकाओं ने बाबा कहकर पुकारा। उन्हें यह बुरा लगा। उन्होंने दोहा रच डाला-

‘‘ केशव केसिनि जस करी, बैरिहु जस न कराहि,

  चन्द्रवदन मृगलोचिनी, बाबा कहि-कहि जाहि।‘‘

( केशव के साथ बालों ने ऐसा किया जैसा कोई शत्रु किसी के साथ करता है। इन्हीं के कारण  चाँद जैसे वदन और हिरनी जैसी आँखों वाली कन्याएँ उसे बाबा कहकर पुकार रही हैं।)

  डॉ.प्रीतम अपछ्याण  ने एक अलग  स्थिति रच डाली है। यहाँ नायक भी केशव दास की तरह वृ़द्धावस्था में है ।  किसी सुन्दर कन्या को देखकर वह अतीत की स्मृतियों में खो जाता है। वह सोचता है जवानी में मेरी बुढ़िया की तस्वीर भी इसी कन्या की तरह खूबसूरत रही होगी। हे भगवान! तू इसका भाग्य सुनहरा रखना-

 ‘‘ राजि रखे नारैण रे, तीं बिचार्यो तकदीर,

   तनि कबि कनि रै छै अहा, मेरि बुडिळी तस्वीर।‘‘

  राजनीति किस प्रकार  मूल्यविहीनता की शिकार हो चुकी है ? राष्ट्रीय स्तर से गाँव तक की राजनीति को किस प्रकार स्वार्थपरता ने घेर लिया है ? यह राजनीतिशीर्षक के अंतर्गत दिए गए दोहों में देखा जा सकता है। इन दोहों में वक्रोक्ति देखी जा सकती है। गाँव की छोटी-बड़ी योजनाओं पर कमीशनखोरों की दृष्टि को  कवि इस प्रकार दिखाता है-

 ‘‘ गौं की छोटि बड़ि योजनौ, न्याळ्यां कमिशनखोर,

   बाँजा बौण वु घूळिग्या, रंभणा हमारा गोर।‘‘

( गाँव की छोटी-बड़ी हर योजना को कमीशनखोर ताक रहे हैं। घने बाँज के जंगलों को तो वे निगल चुके हैं और हमारी गाएं बस रंभा ही रही हैं।)

कौन कहता है  पृथक राज्य बनने के बाद विकास नहीं हुआ है ? नेताओं का विकास इस बात का प्रमाण है। बकौल डॉ. अपछ्याण-

 ‘‘सगत नेता दिल्ली गै, ढुपढुप्य देरादूण,

  छोटा चमचा ठेकदारिम्, जनता बैठी रूण,‘‘

( बड़े-बड़े जो नेता हुए वे सांसद बनकर दिल्ली चले गए। उनसे थोड़ा छोटे जो थे वे विधायक बनकर देहरादून बस गए। उनके छोटे-छोटे चमचे ठेकेदारी में मस्त हो गए और जनता बेचारी रोती ही रही।)

  भ्रष्टाचार की धारा कैसे ऊपर से नीचे की ओर बह रही है ? किस प्रकार अलग-अलग दलों के लोग चोर-चोर मौसेरा भाई की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं ? इसका यथार्थ चित्रण इन दोहों में देखा जा सकता है-

‘‘भ्रष्टाचारा ब्वे बुबा, लोकसभा मा रांद,

 विधानमंडल बटिन छिरी, पंचैतों तक आंद।‘‘

( भ्रष्टाचार के माँ-बाप असल में लोकसभा में रहते हैं। वहाँ से विधानमण्डलों के जरिए वे नीचे और नीचे पंचायतों तक आते रहते हैं।)

 

मी तेरी, तू मेरि कर, सी.बी.आई. जाँच,

भित्र त हम द्वी मौस्यरा, कतै नि आली आँच।

(तुम मेरी सी.बी.आई जांच कराओ और मैं तुम्हारी करवाऊँगा। अन्दर तो हम दोनो तो मौसेरे भाई हैं, किसी पर कोई आँच नहीं आएगी। बाहर वालों को पता भी नहीं चलेगा।)

 

इस प्रकार प्रीतम सतसईमें दोहों की विविधवर्णी छटा देखने को मिलती है। यहाँ देवताओं की स्तुति  है तो नीतिरक विचार भी हैं। विभिन्न ऋतुओं में पहाड़ के जीवन की झलक है तो नायिका का सौन्दर्य भी है। मूल्यविहीन राजनीति को आड़े हाथों भी लिया गया है। पुस्तक पठनीय है। जिन्हें गढ़वाली भाषा के कठिन शब्दों की समझ नहीं है उनके लिए दोहों का अर्थ हिन्दी में भी दिया गया है।

 

पुस्तक - प्रीतम सतसई

कवि- डॉ. प्रीतम अपछ्याण

समीक्षक- डॉ. उमेश चमोला

प्रकाशक- हिमालय लोकसाहित्य एवं संस्कृति विकास ट्रस्ट देहरादून।

वर्ष- 2020

मूल्य- 180 रू