कचाकी गढ़वाली उपन्यास
उपन्यासकार –डॉ उमेश चमोला
समीक्षक –डॉ नागेन्द्र जगूड़ी
नीलाम्बरम
समीक्षा शीर्षक --गढ़वाली में डॉ उमेश चमोला का उदंकार
मैं यह कहने की गुस्ताखी नहीं करूँगा कि मैं गढ़वाली भाषा का विद्वान
हूँ.मैंने अपने को हमेशा साहित्य का एक जिज्ञासु विद्यार्थी ही माना है.मैंने
गढ़वाली भाषा साहित्य में डॉ पुरषोत्तम दत्त डोभाल,घनश्याम शैलानी,भजन सिंह सिंह
,कन्हैया लाल डंडरियाल ,जीवानंद श्रीयाल,डॉ गोविन्द चातक,मोहन लाल नेगी,धर्मानंद
कोठारी,पं०आदित्यराम दुधपुडी,डॉ महावीर प्रसाद गैरोला,गुणानन्द’पथिक’,डॉ सत्यानन्द
बडोनी,अबोधबंधु बहुगुणा,भगवतीचरण निर्मोही,प्रेमी पथिक के रचनाकार तोताकृष्ण
गैरोला,नरेन्द्र सिंह नेगी,मनोहर लाल उनियाल श्रीमन जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों को
खूब पढ़ा.
जहाँ तक मानक गढ़वाली
सर्वमान्य भाषा का प्रश्न है,इस प्रसंग में मैं डॉ गोविन्द चातक को मानक रचनाकार
मानता हूँ.गढ़वाली भाषा को उन्होंने हिन्दी के सहारे एक सबल सशक्त भाषा बनाया
है.टीरियाली,सलाणी,श्रीनगरया,दश्योल्या,टकनौरी,रमोल्या,जौनपुरी आदि की
क्षेत्रीयता मे फंसकर हम लोग गढ़वाली का कद
छोटा करके उनको एक बोली बना देते हैं.भजन सिंह,’सिंह’ जी और घनश्याम शैलानी जैसे
दिग्गज साहित्यकारों ने भी गढ़वाली की क्षेत्रीयता की सीमाओ को तोड़कर मानक भाषा के
निर्माण में अमूल्य योगदान दिया है.
वर्तमान गढ़वाली साहित्य में
डॉ उमेश चमोला जैसे साधक साहित्यकार अपने अत्यंत कुशल भाषा शिल्प के साथ अपनी
दमदार उपस्थिति दर्ज करने में सफल रहे हैं.डॉ उमेश चमोला का वर्ष २०१३ में
प्रकाशित उपन्यास “कचाकी’पढ़ते हुए
मुझे जीवन में पहली बार महसूस हुआ कि गढ़वाली भाषा का मेरा ज्ञान काफी अपूर्ण
है.हालाँकि मुझे लगा कि गढ़वाली भाषा के कुशल तैराक साहित्यकार डॉ उमेश चमोला ने
कुछ ज्यादा ही प्राचीन (पुरानी)गढ़वाली का प्रयोग अपने आनंद अतिरेक में कर डाला
है.इससे सबसे बड़ा लाभ ये हुआ कि गढ़वाली के लुप्त होते हुए प्राचीन शब्दों को
उन्होंने अपने उपन्यास में सहेज लिया है.यह उपन्यास पुराने लुप्त होते हुए शब्दों
का सुखद शब्दकोष है.लेकिन इससे साहित्य को यह भी नुक्सान हुआ है कि डॉ उमेश चमोला
जैसे अध्येता साहित्यकार ने आधुनिक प्रचलित हिन्दीपरस्त गढ़वाली में नएं पर्यायवाची शब्दों को खोजने का
करिश्माई लेखन कार्य नहीं किया.मैं जानता हूँ कि डॉ चमोला वर्तमान गढ़वाली साहित्य
के सर्वाधिक समर्थ रचनाकारों में से अग्रगणनीय हैं,एक वहीं हैं जो आधुनिक गढ़वाली
साहित्य में नए शब्दों की सेना खडी कर सकते हैं.
मेरी उनसे नवीन सृजन के हित
में गुजारिश है कि वे प्राचीन शब्दों से काम चलाने के पर आधुनिक शब्दों का सृजन
कार्य अपने हाथों में लें.वे कथा को बेल –बूटे लगाकर गूंथने-बुनने के कार्य में कुशल
हैं.उनके पास साहित्यिक मुहावरों का विशाल
भंडार है.उनके पास सुगठित भाषा है.वे भावनाओं के प्रस्तुतीकरण के विशेषज्ञ हैं.
हम अपनी मातृभाषा गढ़वाली पर चाहे जितना गर्व कर लें,यह
एक अकाट्य सत्य कि गढ़वाली भाषा का सर्वमान्य मानक स्वरूप अभी भी उभर कर सामने नहीं
आ पाया है.अपनी दुध्भाषा और अपनी माँ को
सभी लोग प्यार करते हैं.दुध्बोली के मोह में भ्रमित होकर आज भी हम यह कहने
की स्थिति में नहीं हैं कि गढ़वाली अपने आप में एक सर्वांग विकसित परिपूर्ण समर्थ
भाषा हो चुकी है.हमारे पास महाकाव्यों में कितने प्रसिद्ध महाकाव्य हैं?हमारे पास
तोता कृष्ण गैरोला की प्रेमी पथिक जैसी कालजयी काव्यकृति है.कन्हैयालाल डंडरियाल
का नागराजा जैसा महाकाव्य है और भजन सिंह सिंह जी की काव्यसंग्रह सिंहनाद जैसी
अप्रितम रचना है.
यदि संस्कृत और हिन्दी का कोई
प्रकांड पंडित भी गढ़वाली भाषा के साहित्य को पढना और समझना चाहे तो नहीं समझ
सकता.संस्कृत जैसी महान भाषा अपने कठोर व्याकरण के कारण आम जनता से छिन गयी
है.चौसर के ज़माने की पुरानी अंगरेजी सेना के तम्बू भी उठ चुके हैं.कन्त्रोवरी
टेल्स’ अब सामान्य अंगरेजी भाषा का काव्य नहीं रह गया है.इसीलिये मैं कहता हूँ
पुरानी कठिन गढ़वाली का युग लद चुका है.हमें पुरानी गढ़वाली को अवश्य सहेजना
चाहिए.उसके शब्दकोष भी बनने चाहिए.आप उसके
छौंके तो लगा सकते है लेकिन उसे मुख्य भाषा नहीं बना सकते.गढ़वाली में खेतों के लिए
कहीं कहीं डोखरा और डोखरी शब्द है.कहीं पुन्गडा पुन्गडी शब्द है.कहीं खेत शब्द ही
है.मक्खंन के लिए ही दर्जनों शब्द हैं- मक्खंन,थनोंट,चोखण,नौणी,गल्खिया आदि जगह
जगह प्रचलित हैं.रचनाकारों को सोच समझकर मक्खन ही चुनना चाहिए ताकि शेष देशवासी भी
हमारी भाषा को समझ सकें.
डॉ उमेश चमोला
गढ़वाली भाषा के एक सिद्दहस्त रचनाकार हैं.मैं कह सकता हूँ कि उनकी साहित्य साधना
अगाध है.उन पर माता सरस्वती की प्रत्यक्ष कृपा है.मैंने जब उनका उपन्यास पढ़ा और जब
उन्होंने मौसिया माता (सौतिया माँ) मासंती के जादू टोने,टूटमुने का लम्बा वर्णन
किया तो मैं उपन्यास के प्रति काफी गुस्से और नफरत से भर उठा.मैंने सोचा कि इतने
विद्वान रचनाकार को इस पाखण्ड और
अन्धविश्वास ढोंग का इतना विस्तृत वर्णन करने की क्या आवश्यकता पडी?इसमें मासंती
जैसी डैण-डाकीण का इतना महिमा मंडन जैसा वर्णन करना पाठकों के लिए घातक है.
लेकिन सिर्फ एक आख़िरी पेज में कुशल रचनाकार ने अत्यंत कुशलता के साथ
रचना का बहुत ही सुखांत और मनोवैज्ञानिक रूप से सटीक समापन कर डाला और पूरे कथानक
को बिलकुल ही नया मोड़ डे दिया.तब पिछला अटपटा वर्णन एकाएक सार्थक और अनिवार्य हो
उठता है.रूसी साहित्यकार लियो टाल्स्टाय के साहित्य में जारशाही के जमाने के
रुढ़िवादी अन्धविश्वासी पाखंडी,ढोंगी सामंती रूसी समाज का बहुत विस्तृत वर्णन पाया
जाता है.कम्युनिष्ट क्रांति के समकालीन साहित्यकारों ने जब लियो टाल्स्टाय को
कोसना प्रारंभ किया तब लेनिन ने कहा कि लियो टाल्स्टाय का साहित्य हमारे लिए
अमूल्य धरोहर है क्योंकि सामंती रूसी समाज की बीमारियों को गहराई से समझने में
टाल्स्टाय का साहित्य हमारी सहायता करता है.
पर्वतीय समाज में व्याप्त
अन्धविश्वास,ईर्ष्या ,द्वेष,सामाजिक रोगों ,ठेठ ग्रामीण जीवन विश्वास,पारिवारिक
विघटन,सौतिया डाह के स्वरूप और प्रतिफल को समझने में डॉ उमेश चमोला का यह अद्वितीय
उपन्यास पाठक को बड़ी सहायता करता है.
कचकी उपन्यास का कथानक एक
अत्यंत दूरस्थ विकट भूगोल में स्थित ठेठ पर्वतीय गाँव से सम्बंधित है.पर्वतीय नारी
की कठिन और प्राणघाती दिनचर्या को लेखक ने बड़ी ही चतुरता के साथ रेखांकित किया
है.उपन्यास का प्रथम वाक्य ही है –‘’दीपा भारि डक़ख्वा छै.कैसे पर्वतीय नारी पेढों
पर चढ़ कर ,जान हथेली पर रखकर जीवनयापन करती है.इस चिंता को उपन्यासकार ने पुरे समाज
की चिंता बना दिया है.दीपा की माँ सुरिणी पहाड़ पर घास काटते हुए फिसल कर मर जाती
है.कुछ समय बाद दीपा का पिता हयातु मासंती से दूसरा विवाह कर लेता है.
पर्वतीय दूरस्थ सीमान्त
ग्रामीण इलाकों में लोग अपनी पत्नी की बहिनों से दूसरा विवाह करते रहे हैं.औरत
पर्वतीय जीवन की सबसे कुशल मजदूर हैं.अधिक खेती व पशुपालन चलाने के लिए यहाँ बहु
विवाह सामाजिक रूप से सर्वस्वीकृत रहे हैं.पर्वतीय जन जीवन में इसी कारण मौसिया
माँ(मौसियाँण ब्वे)की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है क्योंकि करीब एक तिहाई परिवारों
में प्रथम बहू पेड़ से गिरकर .पहाड़ से फिसल कर ,भूस्खलन से या पत्थर लगने से मर
जाती है.मौसियाण माता शब्द ही कभी उन माताओं के लिए चला होगा जो पहले मौसी होती थी
और बाद में माँ बन जाती है.मौसी और माँ का अंतर कभी भी पाटा नहीं जा सकता.ये
मौस्यांण ब्वे जब सौत्याँ (सौतिया माता) के क्रूर अत्याचारी रूप में मासंती बनकर
अवतरित होती है तब पूरे परिवार का जीवन षड्यंत्रों से भर जाता है.
पर्वतीय जन जीवन में विवाह
पूर्व जन्मपत्री कुण्डली मिलाने का पाखंडपूर्ण अन्धविश्वास कितनी गहराई तक व्याप्त
है इस तथ्य को उकेरने में उपन्यासकार बहुत ही सफल रहा है.जीवानंद बामण कई कई बार
फर्जी नकली कुंडलियाँ बनाकर शादियाँ कराने का धंधा करता रहता है.इस पाखंडी
अन्धविश्वासपूर्ण अनिवार्य धार्मिक विश्वास के नाम पर होने वाले पोथी पातडे
जन्म्पत्रों के बामण कुकर्म को लेखक ने बड़ी कुशलता से बेनकाब किया है.यह उपन्यास
इसी कारण वास्तव में पुरस्कृत करने के लायक अत्यंत श्रेष्ठ उपन्यास है.
उपन्यास की नायिका दीपा का
विवाह भी नकली जन्म कुण्डली की बदोलत ही उपन्यास के नायक प्रभात के साथ हो जाता
है.सौतिया माता मासंती पर अपनी सौतेली बेटी दीपा का वैवाहिक जीवन बर्बाद करने की
बुरी सनक सवार हो जाती है.यह इसके लिए अथर्ववेद के तांत्रिक कार्यों ,पर्वतीय जीवन
में बुरी तरह प्रचलित कापालिक टोनो,भूतप्रेत पूजा का सहारा लेती है.यह पाखंडी
तांत्रिक षड्यंत्री पूजा इस उपन्यास की केन्द्रीय कहानी बन गयी है.दीपा के पिता
हयातु का पर्वतीय जीवन के निष्क्रिय पुरुष का जीवन है.मौसियाण बवे मासंती
सुविख्यात खलनायिका है.ऐसी मासंती पर्वतीय जन जीवन के हरेक गांवों में दर्जनों की
संख्या में रहती है.वह विकट पर्वतीय जीवन धारा में जहर घोलती रहती है.मासंती खेतों
के ओडे (सीमा चिह्न)खिसकाती है.सौतिया बेटी दीपा का पूरा वैवाहिक जीवन बर्बाद करती
है.दामाद पर भरण पोषण की धनराशि पंचायत में लगवाती है.धनवसूली करके भी दामाद और
उसके परिवार को दहेज़ के झूठे मुकद्दमे में फंसा देती है.दहेज़ के झूठे मुकदमे का
वर्णन करके उपन्यासकार ने भारतीय समाज की
दुखती रग पर हाथ रखा है.सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि
लोग दहेज़ उत्पीडन के हजारों झूठे मुकदमे दायर करके कानून का भारी दुर्प्रयोग कर
रहे हैं.
दहेज़ का झूठा मुकदमा लगाकर
मासंती अपनी सौतिया बेटी दीपा के ससुराल वालों से पांच लाख रूपये की बड़ी रकम ऐंठ
लेती है.जब अपनी खुद की बेटी सुरेखा की शादी इसी बदनामी के कारण से होते होते रह
जाती है और रिश्ता टूट जाने का सदमा तब मासंती बर्दाश्त नहीं कर पाती.सदमा लगने से
मासंती पागल हो जाती है.वह अर्ध विक्षिप्त स्थिति में अपने सारे पाप,कुकर्म,जादू
टोने के कुकृत्य स्वयं ही स्वीकार कर लेती है.बुराई करने का बुरा प्रतिफल स्वयम
मासंती के जीवन और उसकी युवा पुत्री सुरेखा के भविष्य को नष्ट कर देता है.इसके साथ
ही मायके में अटकी हुई दीपा को लेने के लिए प्रभात अपना विश्वस्त सन्देश वाहक भी
भेज देता है.यहीं पर उपन्यास का सुखान्तकारी समापन हो जाता है.
उपन्यासकार ने अपनी इस रचना
में वास्तव में अपनी साहित्यिक सामर्थ्य का भरपूर प्रयोग किया है.हम त तिराल का
ढुंगा छन (हम तो टूटते ढलान नदी तट के पत्थर हैं),तरुने ना मौरू ज्वे अर बाले ना
मौरू ब्वे(जवानी में जोडीदार न मरे और नवजात बच्चे की माँ न मरे)जैसे जबरदस्त
मुहावरों से यह उपन्यास लबालब भरा है.द्विचित्या,उदंकार,यकुलांस,अफबदु,हुरमुर,असुखि,अन्खतोप,फैडी,कबजल
जैसे विशिष्ट श्रेणी के साहित्यिक शब्दों की इस उपन्यास में भरमार है.
उपन्यास अत्यंत
सोद्देश्यपूर्ण है.अपनी मुख्य धारा में उपन्यास का नायक प्रभात नायिका दीपा से साफ़
साफ़ कह देता है –टोनू-मोनु उकटनत कु बाटू छ.(तांत्रिक मन्त्र पूजा अंतत; विनाश का
रास्ता है.
कुल मिलाकर यह गढ़वाली उपन्यास
एक अत्यंत पठनीय,साहित्यिक कलाकारी से भरपूर एक उत्कृष्ट रचना है.यह गढ़वाली
साहित्य का एक अमूल्य मोती है.इस रचना के बाद हम कह सकते हैं कि साहित्यिक प्रतिभा
के धनी डॉ उमेश चमोला जैसे साधक तपस्वी रचनाकारों की पीढी ही गढ़वाली भाषा को मानक
स्वरूप प्रदान करेगी.डॉ चमोला ने गढ़वाली साहित्य के क्षितिज पर नया उदंकार इस
उपन्यास के रूप में प्रकाशित किया है.
-------उत्तराखण्ड स्वर अगस्त २०१५ से साभार
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