कचाकी(गढ़वाली
उपन्यास )
उपन्यासकार –डॉ
उमेश चमोला
समीक्षक –हरि
मोहन’मोहन’ सम्पादक’ नवल’
प्रकाशक
---अविचल प्रकाशन 3/11 हाईडील कोलोनी बिजनौर उत्तर प्रदेश
कचाकी उमेश
चमोला का दूसरा गढ़वाली लघु उपन्यास है.कचाकी का अर्थ है घाव अर्थात चोट.यहाँ इसे सौतेली
माँ द्वारा अपनी सौतेली पुत्री के दाम्पत्य जीवन में किये गए घाव के अर्थ में लिया
गया है जिसका परिणाम बाद में स्वयं उसे भुगतना पड़ता है.
कथानक गढ़वाल की ग्रामीण पृष्ठभूमि से लिया गया
है.दीपा की माँ बचपन में ही घास काटते समय पहाडी से गिरकर मर जाती है.उसका पिता
मासंती से दूसरा विवाह कर लेता है जिससे एक बेटा और बेटी होते हैं.कालान्तर में
दीपा विवाह योग्य हो जाती है.उसका विवाह जन्मकुंडली के अनुसार तय हो जाता है.दीपा
के विवाह से पूर्व उसके पिता बीमारी से दम तोड़ देते हैं तो लड़के वाले शुद्ध होने
तक रुकने से मनाकर रिश्ता तोड़ देते हैं.उम्र बढ़ने व रिश्ता न मिलने पर पण्डित
जीवानंद दीपा की नकली जन्मकुंडली बनाकर उसका विवाह अपने मामा के बेटे प्रभात से
करा देता है.वह अपने ज्योतिष के विद्वान मामा से अपने अपमान का बदला लेने के लिए
यह प्रपंच रचता है.सौतेली माँ मासंती जिस पर दीपा पूरा भरोसा करती है उसके
दाम्पत्य जीवन में दरार ही नहीं डालती टोना टोटका कर उसके पति को मारने की कोशिश
भी करती है जिससे उसकी मृत्यु के बाद दीपा को उसकी जगह सरकारी नौकरी मिल
जाय.मासंती की साजिश का पता लगने पर प्रभात दीपा को छोड़ देता है.वह मायके में रहने
लगती है.मासंती पंचायत के माध्यम से दीपा को गुजारा भत्ता और दहेज़ उत्पीड़न का झूठा मुकदमा कर भारी
रकम उसके ससुराल वालों से ऐठ लेती है.सारा धन मासंती स्वयं हड़प लेती है.भोली दीपा
उसकी बातों में आकर अपना घर बर्बाद कर देती है.सौतेली माँ को अपनी गलती का एहसास
तब होता है जब उसके दुष्कृत्य अपनी सगी बेटी के विवाह में बाधक बन जाते हैं.फलस्वरूप
वह पागल हो जाती है.दीपा की भी आँखें खुल जाती है.वह फिर से अपनी गृहस्थी बसाने चल
पड़ती है.
उपन्यास में सौतेली माँ मासंती के अत्याचार को
प्रमुखता से उठाया गया है जिसकी आँखों पर उपभोक्तावाद और बाजारवाद का चश्मा लगा
है.स्वार्थवश सौतेली बेटी दीपा के दाम्पत्य जीवन में दरार डालने के लिए वह तरह तरह
के हथकंडे अपनाती है.व्यक्तिगत स्वार्थ और सौतेलेपन की भावना के चलते रिश्ते
बिगड़ने व परिवार के टूटने की भयावहता को दर्शाते हुए इस तरह की स्थितियों से बचने
का सन्देश उपन्यास में दिया गया है.दीपा के दाम्पत्य जीवन को बर्बाद करने के लिए अपनाये जाने वाले जिन
हथकंडों को दिखाया गया है वे यहाँ के समाज में प्रचलित रहे हैं.आधुनिक युग में भी
अन्धविश्वास और टोन टोटको पर लोग विश्वास करते हैं.गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्र के
लोकजीवन के विविध पहलुओं की झलक उपन्यास में मिलती है.दीपा की माँ की मृत्यु जंगल
में घास काटते समय पांव फिसलने से पहाडी से गिरकर होती है.यह घटना यहाँ की महिलाओं
के कष्टकर जीवन को ही बयां करती है.मासंती द्वारा खेत का ओडा खिसकाना व गालियाँ
देना गांवों में आम बात है.पंडित द्वारा शराब का सेवन व रुपयों के लिए दीपा की
कुण्डली में उम्र और गृह बदल देना इस सम्मानित पेशे में बाजारवाद के चलते आ रही
गिरावट को दर्शाता है.गांवों में जहाँ एक ओर रूढ़िवादिता चली आ रही है दूसरी ओर
आधुनिक प्रगति का प्रभाव भी पड़ा है.टोने टोटके किये जा रहे हैं तो सरकारी
नौकरी,पंचायत ,अदालत का सहारा भी लिया जा रहा है.
उपन्यास के सभी पात्र कथानक के अनुरूप अपने
चरित्र का निर्वहन करते दिखाई देते हैं.कचकी की भाषा बोलचाल की गढ़वाली है जिसे
गढ़वाली पाठक आसानी से समझ सकता है.गढ़वाली न जानने वालों के लिए उपन्यास के
परिशिष्ट में कठिन शब्दों के हिन्दी अर्थ भी दिए गए हैं.संवाद पात्रोंनुकूल एवं
उनकी मनोदशा प्रकट करने में सक्षम हैं.लोक में प्रचलित लोकोक्तियों और मुहावरों का
भी यथास्थान उपयोग किया गया है जो गढ़वाली भाषा की समृधि को दर्शाते हैं.तत्सम
शब्दों के साथ ही देशज शब्दों ने भी स्थान स्थान पर उपयोगिता सिद्ध की है.गढ़वाल के
ग्रामीण जीवन को उजागर करने वाले इस उपन्यास को आंचलिक गढ़वाली उपन्यास कहना उचित
होगा.गढ़वाली गद्य साहित्य को समृद्ध करने में डॉ उमेश चमोला की यह कृति सराहनीय
योगदान है.
नवल
(अक्तूबर –दिसम्बर २०१४ ) से साभार
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