बुधवार, 12 अप्रैल 2017

श्रीधर चातक की कविता अरी ओं दिवाली चली तू कहाँ



अरी ओ दीवाली चली तू कहाँ
 अभी देख उर में अँधेरा घना है.
युगों से जले जा रहे दीप सारे,
हुआ न आलोक उर में हमारे,
 दनुज देख पथ घेरे हुए है,
मनुजता खडी मौन बैठी किनारे,
मनुज भी न जाने दनुज क्यों बना है?
अभी देख उर में अँधेरा घना है.

यहाँ द्वार देखो छाई है उदासी,
मानव की तृष्णा भयानक है प्यासी,
कभी इस किनारे न आई दीवाली,
उलूकों से भरीं है यहाँ खूब डाली,
अज्ञानता से कण कण सना है,
अभी देख उर में अँधेरा घना है.

प्रजातंत्र भू के गगन से देखो,
सितारे गोलियों के थे बरसे,
चला न्याय लेने जन गण यहाँ का,
मुजफ्फर में ही थे वे तरसे,
यहीं शील अबला तुम्हारा हना है.
अभी देख उर में अँधेरा घना है.

नवदीप बनकर उतरना धरा पर,
तम हो तले ना तनिक भी तुम्हारे,
मनुजता हंसे औ दीवाली मनाये,
गरीबी,दनुजता हो वेबस किनारे,
निकले ये मुख से जग में सभी के,
मनुज आज देखो देवता बना है.
अरी ओ दीवाली चली तू कहाँ .
 अभी देख उर में अँधेरा घना है.
_________रचना –श्रीधर चातक

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