वर्ष 1990 की बात है। मैं बी.एस-सी प्रथम वर्ष का छात्र था । जूलोजी का पीरियड
था । एक दिन प्रोफेसर एम.सी.शर्मा सर ने अपनी फाइल से एक कागज निकाल कर पढ़ा ।
इसमें लिखा था- ‘‘बी.एस-सी प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों
में से एक का चयन माॅडल पार्लियामेन्ट के लिए सांसद के रूप में किया जाना है। मेरे
एक मित्र ने मुझसे पूछे बिना मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया । दूसरे मित्र ने
प्रस्तावित नाम का समर्थन कर दिया । मैं चक्कर में पड़ गया । सोचने लगा,‘‘ उठकर मना कर दूंॅ कि मैं इसके लिए
तैयार नहीं हूंॅ। फिर सोचा,‘‘
यह भी एक
रचनात्मक कार्य होगा । यह लगभग डिबेट जैसा कार्य होगा जिसका कि मुझे पुराना अनुभव
है।‘‘ यह सोचकर मैं चुप रहा । मेरे विरोध में
मेरा एक मित्र उठ गया । मैंने उससे कहा, ‘‘मैं तेरे समर्थन में बैठ जाता हूंॅ।‘‘ उसने कहा,‘‘नहीं ! दोनो उठते हैं । देखते हैं कौन
जीतता है। ‘‘ हम दोनो के अलावा एक और मित्र ने भी
अपना नाम दे दिया । चुनाव हुआ । मेरा चयन माॅडल संसद के लिए सांसद के रूप में हो
गया ।
जब छात्र संघ चुनाव की चहल -पहल होनी शुरू
हुई तो हमारी कक्षा के साथियों ने मुझसे संयुक्त सचिव या विज्ञान संकाय प्रतिनिधि
के रूप में चुनाव लड़ने का अनुरोध किया । मैंने सोचा, ‘‘ छात्र राजनीति का हिस्सा बनने से पढ़ाई का भारी नुकसान हो जाएगा ।‘‘ मैंने मित्रों को चुनाव न लड़ने की अपनी
मंशा बता दी ।
एम.एस-सी, बी.एड और पत्रकारिता स्नातक की पढ़ाई के दौरान कभी मुझे चुनाव लड़ने के
बारे में सोचने का समय नहीं मिला । जब मैंने एम.एड में प्रवेश लिया तो एक दिन
श्रीनगर बाजार में घूमते-घूमते मित्र रघुनन्दन पुरी ने मुझसे कहा,‘‘ चमोला जी! शिक्षा संकाय प्रतिनिधि पद
पर कोई दावेदार नहीं है। तुम नामांकन करा लो । निर्विरोध चुन लिए जाओगे ।‘‘
मैंने सोचा,‘‘ एम.एस-सी की तुलना में यहांॅ इतना लोड नहीं है। इसलिए निर्विरोध
शिक्षा संकाय प्रतिनिधि बनने में बुराई भी नहीं है।‘‘
उस समय बी.एड में 150 से 200 तक की सीटें रहती थी और एम.एड में मात्र 15 सीटें थी । ये ही शिक्षा संकाय
प्रतिनिधि के पद के लिए वोटर थे । मैंने अपना नामांकन करा लिया । इसके बाद जब
मैंेने एम.एड में पढ़ने वालों से संपर्क करना चाहा तो पता चला कि एडमिशन कराने के
बाद अधिकांश लोग अपने घर जा चुके हैं। जब बी.एड वालों से मैं संपर्क कर रहा था तो
मैंने देखा एक व्यक्ति छह सात लड़कों से घिरा हुआ था । मुझे देखकर वह बोला,‘‘भाई साहब! शिक्षा संकाय प्रतिनिधि पद
के लिए लड़ रहा हूंॅ । मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए ।‘‘ मेरे बगल में खड़े मेरे एक समर्थक ने मेरी ओर संकेत करते हुए कहा,‘‘ आप भी इसी पद के लिए लड़ रहे हैं।‘‘ वह बोला,‘‘ मैं बी.एड का हूंॅ । मेरे पास 170-180 बी.एड में पढ़ने वाले वोटर हैं। आपके पास एम.एड के मात्र 15 लोग । उनमें से भी 4-5 तो मेरे पक्के समर्थक हैं। इसलिए आपका
हारना तय है।‘‘ मैंने उस व्यक्ति को अपनी चुनाव लड़ने
की मंशा बता दी। बाद में पता चला कि एक और
ने भी अपना नामांकन कराया है। इस प्रकार
शिक्षा संकाय प्रतिनिधि पद के लिए कुल तीन दावेदार मैदान में रह गए थे । एक मैं
एम.एड से था और दो बी.एड से । अगर कक्षावार
वोटों का ध्रुवीकरण होता तो मुझे मात्र 15 वोट मिलती । अंत में एक उम्मीदवार ने दूसरे के समर्थन में अपना नाम वापस
ले लिया । अब मैदान में केवल हम दो ही रह गए थे ।
यद्यपि यह बड़े पद का चुनाव नहीं था लेकिन मेरे
सामने बड़े पद पर चुनाव लड़ने से भी विकट परिस्थितियां थी । चुनाव का परिणाम आया और मुझे विजयी घोषित किया
गया । मेरी जीत ऐतिहासिक थी क्योंकि इससे पहले हमेशा बी.एड में पढ़ने वालों में से
ही शिक्षा संकाय प्रतिनिधि चुना जाता रहा था ।
एक बार छात्र संघ ने कुछ मांगों को लेकर
विश्वविद्यालय में रोज धरने पर बैठने का निर्णय लिया । नियमित धरना चलता रहा
। मैं भी रोज धरने में शामिल रहा । एक दिन
मुझे ‘पर्वतीय अंचल में जड़ी बूटियां‘ विषय पर वार्ता के लिए आकाशवाणी पौड़ी
बुलाया गया था। मैं रिकार्डिंग के लिए नियमित समय पर आकाशवाणी केन्द्र पौड़ी पहुंॅच
गया । रिकार्डिग करने के बाद जब मैं शाम को श्रीनगर पहुंॅचा तो गोला बाजार में कुछ
साथी मिल गए । मुझे देखकर वह बोले,‘‘ अरे ! तुम यह यहांॅ ? ‘‘ मैंने कहा, ‘‘क्यों ? वे बोले, ‘‘
आज तो छात्र संघ
के सभी पदाधिकारियों को पौड़ी जेल भेज दिया गया है। तुम कैसे रह गए ? ‘‘
कुछ दिन पौड़ी जेल में रहते हुए जब छात्र संघ
पदाधिकारी वापस आए तो उनका अभिनन्दन किया गया । अभिनन्दन समारोह में मैंने कहा,‘‘ जन हितों के लिए जेल जाना नेता के
बायोडाटा को मजबूती देता है। मैं तो नेता बनते- बनते बाल बाल बच गया ।
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