मित्र
कई बार पूछते हैं, ‘‘ आप क्यों लिखते हो ? लिखा है तो इसी विषय पर क्यों लिखा है ? ‘‘ जब लेखक के आस-पास कोई ऐसी घटना घटित
होती है जो उसे अन्दर से झकझोर देती है तो कविता के रूप में एक भावधारा कागज पर
उतर आती है। जब वह बहुत अधिक आनंदित होता है तब भी ऐसी स्थिति आ सकती है। कवि की
दृष्टि मामूली सी समझी जाने वाली घटना में भी ऐसी स्थिति देखकर महसूस कर सकती है।
कई
बार ऐसी स्थिति भी आती है जब किसी पत्र-पत्रिका के संपादक या किसी कार्यक्रम के
आयोजक का संदेश प्राप्त होता है कि अमुक विषय पर इस तारीख तक कोई कविता भेज दीजिए
। ऐसे में यदि रचनाकार के पास पहले से बनी कोई कविता न हो तो उसे बैठकर और सोच समझ
कर दिए गए विषय पर कविता रचनी पड़ती है। इस प्रकार लिखी गई कविता से वह आत्म
संतुष्टि और आनन्द प्राप्त नहीं होता जो किसी घटना को देखते हुए स्वतः जन्म लेती
है।
यहांॅ पर संदर्भ है मेरे गढ़वाली गीत कविता
संग्रह ‘पथ्यला‘ के शीर्षक गीत /कविता ‘हम पथ्यला बौण का‘ ।
बात वर्ष 2000 की है। मैं राजकीय इण्टर काॅलेज लमगौण्डी जिला रुद्रप्रयाग में
कार्यरत था । बोर्ड परीक्षा के समय मूल्यांकन पुस्तिकाओं का बण्डल संकलन केन्द्र
राजकीय इण्टर काॅलेज अगस्त्यमुनि में जमा करना पड़ता था । लमगौण्डी से अगस्त्यमुनि
जाने के दो रास्ते थे। एक था लमगौण्डी से जीप में बैठकर गुप्तकाशी जाने का । वहां
से जीप या बस से अगस्त्यमुनि पहुंचने का ।
दूसरा लमगौण्डी से कुण्ड जंगल से होकर
पैदल रास्ता था । लमगौण्डी से गुप्तकाशी
वाले रास्ते दिन के समय जीपें कम मिलती थी । इसलिए मुझे यह पैदल वाला रास्ता अधिक सुविधाजनक लगता था । मैं
प्रायः इसी रास्ते से कुण्ड आकर अगस्त्यमुुनि वाली बस मैं बैठकर अगस्त्यमुनि
पहुंॅच जाता था । लमगौण्डी से कुण्ड पैदल रास्ता घने जंगल से होकर गुजरता है। यह
रास्ता बहुत सुनसान था । भरी दोपहर में जंगल में पक्षियों और झींगुर की आवाज जंगल
में गूंजती रहती थी । हवा की सनसनाहट जंगल के सन्नाटे को और भी बड़ा देती थी । इस सुनसान जंगल का रास्ता सूखे पत्तों से
भरा रहता था । मैं इस रास्ते मूल्यांकन की पुस्तिकाओं के बण्डल लेकर जा रहा था ।
मैं इन पत्तों के बीच मैं अचानक फिसल गया । इस समय मेरे मन में यह पंक्तियां आईं-
‘‘ ठौर नी ठिंगणू नी,
बथों चै जख लिजौ,
कैका खुट्योन कुर्चि जौं,
बट्वे रौड़ु गाळि खौं,
अपणि छ्वीं लगौण क्या,
हम पथ्यला बौण का ।‘‘
यह पंक्तियां मैंने झटपट अपनी जेब में रखे कागज
पर नोट कर दी । संकलन केन्द्र में बण्डल जमा करने के बाद अगस्त्यमुनि से गुप्तकाशी
पहुंचते -पहुंचते बस में इस कविता के 6-7 पद्यांश तैयार हो गए । घर आकर शाम को मैंने इन्हें डायरी में
व्यवस्थित रूप से नोट कर दिया । बाद में
सन् 2011 में प्रकाशित गढ़वाली गीत कविता संग्रह
‘पथ्यला‘ में यह रचना शीर्षक गीत /कविता के रूप में सम्मिलित की गई। ‘रंत रैबार‘ में श्री ईश्वरी प्रसाद उनियाल जी ने
इस पुस्तक में दिए गए हर गीत की अलग-अलग
समीक्षा लिखी । उन्होंने हम पथ्यला बौण का गीत को विकास रूपी आंधी से हुए पलायन की
प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति लिखा ।
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