मेरा बचपन गांवों में बीता । गांव में
हरे-भरे खेत और जंगल मुझे बहुत अच्छे लगते
। इन स्थानो में जाकर मन को असीम शांति का अहसास होता । इनके अलावा मेरा मन उन
स्थानो में भी जाने को करता जो उजाड़ हैं ।
हरे-भरे जंगल के बीच ऐसे कई स्थान होते। मैं वहां बैठकर सोचता ।
मन में कई प्रश्न उठते । बाल मन उन
प्रश्नो के उत्तर कल्पनाओं के माध्यम से खोजने का प्रयास करता । कभी कहीं कोई
खंडहर दिखाई देता तो वहां बैठने का मन करता । मन में कई प्रश्न उठते। ‘पहले यहां क्या रहा होगा ? जब यहां आबाद रहा होगा तो यहां
क्या-क्या होता होगा ? इसके खंडहर होने के क्या कारण रहे होंगे ?
इन उजाड़ स्थानो की मन में बैठी स्मृतियां
उथल-पुथल मचाने लगती । बहुत समय के बाद मन में विचार आया कि क्यों न ऐसी स्थिति पर
एक उपन्यास लिखा जाए । वर्ष 2004
में नरेन्द्र नगर आने के बाद इस पर मंथन
करता रहा । वर्ष 2004 -5 में ‘निरबिजु‘ नाम से इस उपन्यास की पांडुलिपि तैयार हो गई । नरेन्द्र नगर में डा.
नागेन्द्र ध्यानी‘अरुण‘ और मैं शाम को घूमने जाते थे । मैंने उन्हें उपन्यास की कहानी सुना
दी । सुनकर वह बोले, ‘‘ बंधु ! मुझे यह उपन्यास बहुत अच्छा लग
रहा है। यह एक ऐतिहासिक लोक उपन्यास की झलक दे रहा है। यह वर्तमान समय में व्याप्त
अनैतिकता , अनाचार और पर्यावरण संरक्षण के प्रति
उदासीन मनुष्य की आंखें खोलने वाला है।‘‘ डा. ध्यानी जी की बातों से उत्साह बड़ गया । बाद में मैंने इस उपन्यास
की चर्चा डा शेष नारायण त्रिपाठी जी से भी की । उन्होंने भी मेरा उत्साह बढ़ाया ।
इस उपन्यास में कल्पना की गई कि कोई ऐसा उजाड़
स्थान है जहां वर्तमान समय में कुछ नहीं उगता है। वहां कभी खूबसूरत जगह थी । धरती
के इस टुकड़े पर कभी एक राजा का शासन चलता था । उस राजा ने कुछ भारी भूलें की थी ।
उसके द्वारा धरती पर किए अत्याचारों को धरती माता भी सहन न कर सकी । धरती ने वहां
कुछ भी उपजाना बंद कर दिया । इस उपन्यास का सार उपन्यास के पात्र धर्मदत्त पुरोहित
की इन बातों में झलकता है-
कू भलू कू छ नखरू, जब पच्छाणे नि जांदू,
धर्म कि मुखिड़ि पैरी, अधर्म
अग्वाड़ि आंदू,
मनख्यात नी कखि दिखेन्दि, धर्म जख रोइ जांद,
तै राज या घौर कू निरबिजू होई जांद ।
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