शनिवार, 27 जून 2020

कुछ बातें, कुछ यादें 21, ‘निरबिजु‘ ( गढ़वाली ) उपन्यास सृजन से जुड़ी यादें




    मेरा बचपन गांवों में बीता । गांव में हरे-भरे खेत और  जंगल मुझे बहुत अच्छे लगते । इन स्थानो में जाकर मन को असीम शांति का अहसास होता । इनके अलावा मेरा मन उन स्थानो में भी जाने को करता जो उजाड़ हैं   हरे-भरे जंगल के बीच ऐसे कई स्थान होते। मैं वहां बैठकर सोचता    मन में कई प्रश्न उठते ।  बाल मन उन प्रश्नो के उत्तर कल्पनाओं के माध्यम से खोजने का प्रयास करता । कभी कहीं कोई खंडहर दिखाई देता तो वहां बैठने का मन करता । मन में कई प्रश्न उठते। पहले यहां क्या रहा होगा ? जब यहां आबाद रहा होगा तो यहां क्या-क्या होता होगा ?  इसके खंडहर होने के क्या कारण रहे होंगे ?
     इन उजाड़ स्थानो की मन में बैठी स्मृतियां उथल-पुथल मचाने लगती । बहुत समय के बाद मन में विचार आया कि क्यों न ऐसी स्थिति पर एक उपन्यास लिखा जाए । वर्ष 2004 में  नरेन्द्र नगर आने के बाद इस पर मंथन करता रहा । वर्ष 2004 -5 में निरबिजु  नाम से इस उपन्यास की पांडुलिपि तैयार हो गई । नरेन्द्र नगर में डा. नागेन्द्र ध्यानीअरुणऔर मैं शाम को घूमने जाते थे । मैंने उन्हें उपन्यास की कहानी सुना दी । सुनकर वह बोले, ‘‘ बंधु ! मुझे यह उपन्यास बहुत अच्छा लग रहा है। यह एक ऐतिहासिक लोक उपन्यास की झलक दे रहा है। यह वर्तमान समय में व्याप्त अनैतिकता , अनाचार और पर्यावरण संरक्षण के प्रति उदासीन मनुष्य की आंखें खोलने वाला है।‘‘ डा. ध्यानी जी की बातों से उत्साह बड़ गया । बाद में मैंने इस उपन्यास की चर्चा डा शेष नारायण त्रिपाठी जी से भी की । उन्होंने भी मेरा उत्साह बढ़ाया ।
  इस उपन्यास में कल्पना की गई कि कोई ऐसा उजाड़ स्थान है जहां वर्तमान समय में कुछ नहीं उगता है। वहां कभी खूबसूरत जगह थी । धरती के इस टुकड़े पर कभी एक राजा का शासन चलता था । उस राजा ने कुछ भारी भूलें की थी । उसके द्वारा धरती पर किए अत्याचारों को धरती माता भी सहन न कर सकी । धरती ने वहां कुछ भी उपजाना बंद कर दिया । इस उपन्यास का सार उपन्यास के पात्र धर्मदत्त पुरोहित की इन बातों में झलकता है-
  कू भलू कू छ नखरू, जब पच्छाणे नि जांदू,
  धर्म कि मुखिड़ि पैरी, अधर्म  अग्वाड़ि आंदू,
  मनख्यात नी कखि दिखेन्दि, धर्म जख रोइ जांद,
  तै राज या घौर कू निरबिजू होई जांद ।

 

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