शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

उत्तराखंड की क्षेत्रीय भाषाओँ में बाल साहित्य
 -------डॉ उमेश चमोला
Children Literature in regional languages of Uttarakhand  : Review by Dr.  Umesh  Chamola
    उत्तराखण्ड की क्षेत्रीय भाषाओँ में बाल साहित्य हमें दो रूपों में देखने को मिलता है- पहला लोकसाहित्य की विधाओं में समाहित बालसाहित्य और दूसरा इन भाषाओं के कवियों एवं लेखकों द्वारा रचित बालसाहित्य | पहले हम लोकसाहित्य में समाहित बालसाहित्य की बात करते हैं | जैसा कि हम जानते हैं कि लोकसाहित्य लोक अर्थात आम जन का साहित्य होता है | यह जंगल में खिलने वाले फूल की तरह प्रकृति के निकट रहता है | यह आकाश में उड़ने वाले पक्षी की तरह स्वच्छंद और गंगा की धारा की तरह पवित्र और सरल होता है (डॉ कुंदन लाल उप्रेती) | मोहन लाल बाबुलकर ने लोकसाहित्य को पद्य,गद्य और मिश्रित भागों में बांटा है | उन्होंने पद्य साहित्य को लोकगीत,लोकगाथा,देवगाथा,पद्यात्मक कहावत और नृत्य नाटिका में वर्गीकृत किया है | लोककथा,लोकोक्ति और लोकाभिव्य्क्ति जैसे स्वांग और जोकरिंग को उन्होंने गद्य साहित्य में सम्मिलित किया है | लोकगीतों के श्री बाबुलकर ने चौदह प्रकार बताये हैं | बालसाहित्य की दृष्टि से विचार किया जाय तो इनमे बच्चों के गीत जैसे लोरी गीत गिने जा सकते हैं |
       उत्तराखण्ड में कई बाल लोकगीत प्रचलित हैं |जैसे –अट्गण-बटगण ,अक्कू –मक्कू,ताति- ताति पूड़ी आदि | इन गीतों की सरलता, सभी पंक्तियों में एक समान मात्रा होना और गेयता इन्हें बालसाहित्य के मानकों पर खरा उतारती है | बचपन में आकाश में उड़ते मल्यो (पहाडी कबूतरों) को देखकर सभी बच्चों का ‘कल्यो,मल्यो,तेरी ब्वे ब्व्नी शिकार ल्यो (हे कबूतर! तेरी माँ कह रही है शिकार ला )को जोर –जोर से कहना हमारे स्मृतिपटल पर आज भी अंकित है | इसी प्रकार ‘लाटू-कालू,भट भुजालू,मी नि दयुलू त थपड़ खालु’( हे लाटे अर्थात सीधे साधे या बेवकूफ! भट्ट भूजकर मुझे नहीं देगा तो थप्पड़ खायेगा) गीत गाकर बच्चे एक दूसरे को चिढाते थे | ये लोकसाहित्य के उत्कृष्ट गीतों में से हैं| इसी प्रकार लोकमानस ने कई लोरी गीत रचे हैं | इन गीतों को गाकर कई माताओं ने अपने शिशु सुलाए हैं | इन गीतों में एक बहु प्रचलित गीत इस प्रकार है –
 ‘घुघुती,बसूती,क्या खांदी? दूध भात |’
(हे घुघुती !(फाख्ता पक्षी ) तू क्या खाती है ? मैं दूध और भात खाती हूँ |) यह गीत गढ़वाल में प्रचलित है | उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मण्डल में यह इस रूप में गाया जाता है-
 ‘घुघुती,बसूती, आम काँ छ ?
 बाड़ में छ,के करने छ ?
बड पकने छ,एक बड़ो में दे,
काच्चे छ,नाती काच्चे छ|
दूध भात|’
(इस गीत में बच्चा घुघुती पक्षी से आम मांगता है|)
   कालान्तर में यह गीत छोटे बच्चों को कन्धा घोड़ी(कंधे में झुलाने का खेल) के समय खेल गीत के रूप में गाया जाने लगा | ऐसे ही खेलगीत कबड्डी, टोपी का खेल, कूडी भांडी (मकान और बर्तन सम्बन्धी), पत्थर के छोटे-गोल टुकड़े (गारे) को खेलने वाले खेलों में गाया जाने लगा|
    लोकगीतों की तरह उत्तराखंड के लोक में लोकगाथाओं का विपुल भण्डार मौजूद है | ये लोकगाथायें विविध विषयों पर आधारित हैं | कुछ गाथाएँ पौराणिक कथानक और देवताओं तथा कुछ इतिहास के पात्रों पर आधारित हैं जैसे –तीलू रौतेली | इन लोकगाथाओं में सभी बालसाहित्य परक नहीं हैं | कुछ लोकगाथाएं नैतिकता,देश प्रेम की भावना और जीवन संघर्ष जैसे मूल्यों को आधार लेकर रची गई हैं | ऐसी लोकगाथाओं को बालोपयोगी कहा जा सकता है|
    लोकगाथाओं की तरह उत्तराखंड में कई लोककथाएँ प्रचलित हैं | ये कथाएँ धार्मिक, उपदेशपरक, भूत-प्रेत, राजा –रानी, पशु-पक्षी आदि विविध विषयों पर आधारित हैं | कल्पना तत्व, सरलता, सरसता और नैतिक मूल्य जैसे परिश्रम की जीत, पर्यावरण संरक्षण आदि से ओत प्रोत होने के कारण इनमे से कई कथाएँ बच्चों के लिए उपयोगी हैं | कुछ कथाएँ भूत-प्रेत और अंधविश्वासों को ध्यान में रखते हुए लोकरंजन के लिए ही लिखी गयी हैं |
    लोक गद्य साहित्य में लोकोक्ति या कहावतों को स्थान प्राप्त है | इन्हें उत्तराखंड में अखाणा या पखाणा कहा जाता है | ये लोक में व्याप्त उक्ति हैं| यह बहुत छोटी किन्तु गहरे भाव वाली होती हैं | गागर में सागर का भाव रखने वाली यह कहावतें जीवन के खट्ठे-मीठे अनुभवों का निचोड़ होती हैं | यह शिक्षाप्रद और नीतिपरक होने के साथ ही किसी की हंसी मजाक उड़ाने वाली भी होती हैं |
    इनके कुछ उदाहरण इनमे छिपे मर्म के साथ यहाँ प्रस्तुत हैं –
1 –आज-आज, भोल –भोल
   दिन बीत्याँ सोल –सोल |    (गढ़वाली)
    मर्म –समय का महत्व |
2 – जां कुकुड़ू नि बासन,
    वा रात नै जै कै ब्यानी|     (कुमाउनी)
     मर्म –समय पर जागना |
3 –जू डोरी,स्वो कबि नि मौरि |   (गढ़वाली)
  मर्म –जोखिम भरे कार्यों से भय|
    लोकोक्ति की तरह लोक में पहेलियां भी व्याप्त हैं | ये भी लोकोक्ति की तरह छोटी और सरस होती है किन्तु इनमें बुद्धि और तार्किकता का तत्व होता है | इन्हें कुमाउनी में आण और गढ़वाली में आणा भी कहते हैं |  औखाणा ,मौणा और बुझनी भी इनके लोक में प्रचलित नाम हैं | इनमें समाहित लघुता, सरसता, बौद्धिकता, तार्किकता और लयात्मकता के तत्व इन्हें बाल साहित्य की विधा होने का आधार प्रदान करती है| इनके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं –
 1-काला घोडा पर सुफैद सवारी,
  यका पिछ्नै हैकाकि बारी|              (गढ़वाली)
   उत्तर –तवा और रोटी |
2- चमिकिनि बामिणी,लामिकिनी धोति|     (गढ़वाली)  
     उत्तर –सुई और धागा|
3- भौं भौं करनि भौंकरी छ,
   आसन बादि जोगि छ |                 (कुमाउनी)
4- छोटु फ़कीर,
   तैका पेट मा एक लकीर |               (गढ़वाली)
      उत्तराखंड के लोक में प्रचलित आणो-पखानो का संग्रह कई विद्वानों ने किया है | इनमें यमुना दत्त वैष्णव की ‘गढ़वाली पखाण, पं ० शालिग्राम वैष्णव की ‘गढ़वाली भाषा के पखाणो’(१९३८), पं० शालिग्राम वैष्णव की ही ‘गढ़वाली कहावतें’(१९५२),सुदामा प्रसाद प्रेमी की ‘गढ़वाली आणा पखाणा (२००५),पुष्कर सिंह कंडारी की गढ़वाली पखाणो-मुहावरों –कहावतों का वृहत संकलन(२०११) और सुधीर बर्त्वाल की लोक कहावतों का संकलन’ प्रमुख हैं | डॉ महावीर प्रसाद लखेडा का शोध ‘गढ़वाली लोकसाहित्य के अंग लोकगीत-गाथा –कथा –लोकोक्ति के आधार पर गढ़वाली लोकसाहित्य की विवेचना’ और चन्द्र शेखर कपरवाण का शोध ‘गढ़वाली कहावतों का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन’ लोकसाहित्य सम्बन्धी प्रमुख शोध हैं |
    लोकसाहित्य में समाहित बालसाहित्य के विवेचन के बाद अब दृष्टि डालते हैं लोकभाषाओं में सृजित बालसाहित्यपरक रचनाओं पर | इन्हें जानने के लिए हमें उत्तराखंडी भाषा विकास के इन सोपानो पर दृष्टिपात करना होगा –
1 –प्रथम सोपान (सन १९०० से पहले और १९०० तक )
2 –द्वितीय सोपान (सन १९०१ से १९२५ तक )
3 –तीसरा सोपान  (सन १९२६ से १९५० तक)
4 –चौथा सोपान  (सन १९५१ से १९७५ तक )
5 –पांचवां सोपान (सन १९७६ से अब तक )
     गढ़वाली भाषा में पहली पुस्तक ईसाई मिशनरी द्वारा सन १८३० में प्रकाशित बाइबिल का गढ़वाली अनुवाद है | यह पुस्तक बालसाहित्य के अंतर्गत सम्मिलित नहीं की जा सकती है किन्तु इसमें निहित कुछ प्रसंग बालोपयोगी माने जा सकते हैं | सन १९०० में पं० गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल ने ‘हितोपदेश’ का गढ़वाली में अनुवाद किया | इस पुस्तक में निहित विषयवस्तु की सरल भाषा,सरसता और इनमें छिपी सीख इसे बालसाहित्यपरक बनाती है | इसी प्रकार सन १९०१ से १९२५ तक के कालखंड में प्रकाशित शशिशेखरानन्द सकलानी की ‘शिक्षा’,मथुरा दत्त नैथानी की ‘स्वदेश प्रेम’,रत्नानंद चंदोला की ‘मातृभूमि’ और सन १९१४ में भवानी दत्त थपलियाल द्वारा लिखित नाटक ‘प्रहलाद’ बाल साहित्य के सम्बोधों के दृष्टि से मूल्यवान पुस्तकें हैं |
     सन १९२६ से १९५० तक के काल में प्रकाशित पुस्तकों में से शालिग्राम शास्त्री के ‘नीति प्रकाश’ कमल साहित्यालंकार की ‘कर्तव्य बोध’ तुलाराम शर्मा की ‘कर्तव्य बोध’ तुलाराम शर्मा की ‘कर्मयोग’(गीता के दो अध्यायों का अनुवाद ),घनानंद बहुगुणा की सन १९३० में प्रकाशित ‘समाज’ शालिग्राम शास्त्री की सन १९३२ में प्रकाशित ‘नीति शतक’ और श्रीदेव सुमन की जेल में लिखी कहानी ‘बाबा जी’ बालसाहित्य की पुस्तकें मानी जा सकती हैं |
    सन १९५१ से १९७५ तक के काल मे कई पुस्तकें लिखी गई|इनमें योगेन्द्र कृष्ण दौगादत्ती शास्त्री के सन १९५६ में ‘कर्मभूमि’ में प्रकाशित रचना ‘तीलू रौतेली’ और डॉ गोविन्द चातक की ‘जंगली फूल’(सात एकांकी नाटकों का संग्रह) बच्चों के लिए उपयोगी साहित्य के अंतर्गत रखी जा सकती है|
    सन १९७६ से अब तक के कालखंड में सन १९९१ में आदित्य राम दुद्पुड़ी की अनुवादित कृति ‘गढ़गीता छंदावली’ और ‘गढ़नीति शतक’,हरि दत्त नौटियाल की ‘लघु रामायण’ और ‘लघु भारत’,मुकुंद राम बडथ्वाल की ‘बाल बोध दीपिका’(भाषा टीकाकार चक्रधर भट्ट) और इसी प्रकार अठारहवीं शताब्दी में लिखित मोला राम तोमर की ‘ज्ञानामृत काव्य’ बालोपयोगी पुस्तकों में से प्रमुख हैं |
     उपर्युक्त वर्णित कालखंडों का हम सिंहावलोकन करें तो यह बात सामने आती है कि जिन्हें हम बालोपयोगी साहित्य कह रहे हैं उनमे से अधिकांश उपदेश और नीति आधारित है |इसलिए यह बच्चों के नैतिक विकास के दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं | आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बालसाहित्य उपदेशात्मक नहीं होना चाहिए | यह बच्चों के ह्रदय पर प्रभाव डालने वाला और रोचक होना चाहिए | इस दृष्टि से सन २०१० में ललित केशवान की लिखी पुस्तक ‘बाल कविताओं का संग्रह’ को विशुद्ध बाल साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है | सन २०१२ में डॉ उमेश चमोला के उपन्यास ‘निरबिजू’ को डॉ नन्द किशोर ढोंडीयाल ‘अरुण’ ने प्राथमिक स्तर के बच्चों के लिए उपयोगी माना है(देखिए ‘रंत रैबार’ १७ दिसम्बर २०१२ और ‘खबरसार’ का अंक )| इसी प्रकार विनीता जोशी और डॉ उमेश चमोला की पच्चीस-पच्चीस गढ़वाली और कुमाउनी बाल कविताओं की पुस्तक ‘नान्तिनो कि सजोलि’ को उत्तराखंडी लोकभाषाओं गढ़वाली और कुमाउनी में किया गया एक महत्वपूर्ण प्रयास कहा जा सकता है | इस पुस्तक के भूमिका में डॉ नंदकिशोर ढोंडीयाल’अरुण’ ने इस संग्रह को गढ़वाली और कुमाउनी बाल कविताओं का पहला संयुक्त संकलन माना है|
    गढ़वाली की तरह कुमाउनी भाषा में भी इन काल खण्डों में कई पोथियाँ रची गयी हैं | गुमानी पन्त की कुछ कविताओं में बालसाहित्य के संबोंध समाहित हैं| इसी प्रकार गिरीश तिवाडी गिर्दा की कई रचनाएँ बालसाहित्यपरक हैं | पीताम्बर पाण्डेय की कुमाउनी भाषा में लिखी पुस्तक ‘चिड़ियों की बारात’,रतन सिंह किरमोलिया की ‘आमा पहरू’ कहानी संग्रह ,रतन सिंह किरमोलिया की ही ‘आपण आपण रत्थ’’पुतई दीदी’,दान सिंह फर्त्याल की पुस्तक ‘म्यार गीत छम छवेलि’ और उदय किरोला की ‘जागरे दिने बात’ विशुद्ध रूप से बालसाहित्य की पुस्तकें हैं|
    जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान देहरादून से छपी जौनसारी भाषा प्रवेशिका ‘आइतीनीति’(कक्षा एक और दो में पढने वाले बच्चों के लिए) बालसाहित्य सृजन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है | इस पुस्तक में वर्णमाला और बालगीतों पर आधारित सुंदर चित्र भी दिए गए हैं |
    उत्तराखण्ड में गढ़वाली और कुमाउनी में छपने वाली पत्र-पत्रिकाओं का भी बालसाहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है | उदय किरोला द्वारा सम्पादित त्रैमासिक पत्रिका ‘बाल प्रहरी’ और डॉ हयात सिंह रावत द्वारा की कुमाउनी मासिक पत्रिका ‘पहरू’ का नाम इस सन्दर्भ में लिया जा सकता है | वैसे तो ‘बाल प्रहरी’ हिन्दी बाल साहित्य की पत्रिका है किन्तु इसमें कुमाउनी और गढ़वाली बाल कविताओं का एक –एक स्तम्भ हर अंक में दिया रहता है | इसके अतिरिक्त ‘पहाडा नना हाल –चाल ‘नाम से कुमाउनी गद्य का स्तम्भ भी होता है |’पहरू’ में कुमाउनी बालसाहित्य के लिए स्थान दिया रहता है | गढ़वाली और कुमाउनी में प्रकाशित अखबार और पत्रिकाएं जैसे ‘गढ़ ऐना’,रंत रैबार’,खबरसार’,चिट्ठी पत्री’गढ़वाली धे’धाद’,कुमगढ़’,गढ़ गरिमा’,दुद् बोली आदि वैसे तो गढ़वाली और कुमाउनी में लिखी सभी प्रकार की रचनाओं को स्थान देती है किन्तु कभी –कभी ये बालसाहित्य आधारित रचनाओं को भी स्थान देती रही है | हल्द्वानी से प्रकाशित होने वाली ‘कुमगढ़’ कुमाउनी और गढ़वाली में संयुक्त रूप से प्रकाशित होने वाली पत्रिका है | इसमें बालसाहित्यपरक आलेख,नाटक और भाषा पाठ के अंतर्गत कुमाउनी,गढ़वाली और रंवालटी तथा व्याकरण सम्बन्धी साहित्यिक सामग्री को समय –समय पर स्थान दिया जाता रहा है |
     उत्तराखण्ड से हिन्दी में प्रकाशित पत्रिकाएं जैसे   ‘युगवाणी’, उत्तराखण्ड स्वर’,’ उत्तराँचल’,’ उत्तराखंड मंथन’,’ गढ़ गरिमा’,’ दस्तक’,’ नवल, रीजनल रिपोर्टर,’ साहित्य मानसरोवर’, समय साक्ष्य, लोक गंगा आदि वैसे तो बाल साहित्य की पत्रिकाएं नहीं हैं किन्तु इनमें कभी –कभी बाल साहित्य की रचनाएँ भी देखने को मिल जाती हैं | इनमे बाल साहित्य आधारित रचनाओं को और अधिक महत्व दिए जाने की आवश्यकता है | इन्हें कोई अंक बाल साहित्य विशेषांक के रूप में निकालना चाहिए| अगस्त्यमुनि रुद्रप्रयाग से प्रकाशित ‘दस्तक’ का जून २०११ का अंक उत्तराखण्ड की बोली भाषा पर केन्द्रित था | इस अंक में गढ़वाली,कुमाउनी,जौनसारी और भोटिया बोली भाषाओँ पर लेख और कविताओं को स्थान दिया गया था | इस अंक में उमा भट्ट का आलेख ‘लोकभाषा मा क्या हो पाठ्यक्रम कि शुरवात’ बालसाहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है | यह बच्चों के लोकभाषाओं से सम्बंधित पाठ्यक्रम विकास के एक दृष्टि देता है|
     देहरादून से प्रकाशित और डॉ चन्द्र सिंह तोमर ‘मयंक’ द्वारा सम्पादित ‘साहित्य प्रभा’ हिन्दी त्रैमासिक शोध पत्रिका में देश के अलग –अलग प्रान्तों के शोधार्थियों द्वारा हिन्दी साहित्य के विविध पक्षों पर आधारित शोध आलेख प्रकाशित होते हैं | यद्यपि यह सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के शोधात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करती है किन्तु समय –समय पर यह उत्तराखण्ड की क्षेत्रीय भाषाओँ पर आधारित शोध आलेखों को भी स्थान देती रही है |
 नरेन्द्र सिंह नेगी का गढ़वाली में लिखा और गाया गीत’ऐ मेरि आन्ख्यों कु रतन बाला स्ये जांदी’ एक पूर्ण लोरी के गुण दिखाता है | यह रचना पहाड़ की नारी के कष्टों को भी बयां करती है |
  आज के तकनीकी प्रधान युग में फेसबुक,ट्विटर और इलेक्ट्रोनिक पत्रिकाओं के माध्यम से उत्तराखण्ड की क्षेत्रीय भाषाओँ में काफी कुछ लिखा जा रहा है | इन माध्यमों में लिखने वाले लेखकों में भीष्म कुकरेती का नाम सर्वोपरि है | भीष्म कुकरेती के गढ़वाली भाषा में सिखाने के आलेखों की श्रृंखला एक श्रेष्ठ बालसाहित्यिक कार्य है |
   इस शोध आलेख में कई कवि,लेखकों और उनकी रचनाओं का वर्णन आने से रह गया होगा | इसका कारण उनकी रचनाओं का बालसाहित्यपरक न होना नहीं है अपितु इस शोधार्थी का अल्प ज्ञान और आलेख का सीमित स्थान होना है|
   सार रूप में कहा जा सकता है कि उत्तराखण्ड का लोक बालसाहित्य से परिपूर्ण है |उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय भाषाओँ में हर विधा में लिखा जा रहा है | यद्यपि कविता लेखन में अधिक कार्य हो रहा है,तुलनात्मक रूप से गद्य साहित्य लेखन कुछ उपेक्षित सा है | बालसाहित्य भी इससे अछूता नहीं रह गया है किन्तु बालसाहित्य की दिशा में इन क्षेत्रीय भाषाओँ में बहुत कुछ किए जाने और बाल साहित्य को गति दिए जाने की महती आवश्यकता है|

सन्दर्भ संकेत –
1-       बाबुलकर,मोहन, गढ़वाली लोक साहित्य की प्रस्तावना.भागीरथी प्रकाशन    गृह बौराडी नई टिहरी उत्तराखण्ड |
2-   भट्ट,दिवा,उत्तराखण्ड की लोकसाहित्य परंपरा,श्री अल्मोड़ा बुक डिपो द   माल अल्मोड़ा ,उत्तराखण्ड|
3- गुप्त विष्णु,नवनीत,लोकसाहित्य,कनु प्रकाशन शास्त्री नगर मेरठ         उत्तर प्रदेश|
4- शर्मा ,बी० डी, गढ़वाली भाषा एवं साहित्य का विकासात्मक परिचय
  गढ़वाली साहित्य संकलन हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल
  विश्वविद्यालय श्रीनगर गढ़वाल,उत्तराखण्ड|
5- चमोला,उमेश,उत्तराखण्ड की लोककथाएँ(काथ-काणी,रात ब्याणी),खंड
    1 बिनसर प्रकाशन देहरादून उत्तराखण्ड|
6-   चमोला,उमेश,उत्तराखण्ड की लोककथाएँ  (काथ-काणी,रात
    ब्याणी),खंड 2 ,अखिल ग्राफिक्स, हाइडिल कोलोनी,बिजनौर
    उत्तर प्रदेश |
7-  चमोला उमेश ,जोशी विनीता,नान्तिनो की सजोलि,(गढ़वाली और
  कुमाउनी बाल कविताओं का संग्रह),आधारशिला प्रकाशन हल्द्वानी
  उत्तराखण्ड|
8-  भट्ट उमा,लोकभाषा में क्या हो पाठ्यक्रम कि शुर्वात,दस्तक,सम्पादक दीपक बेंजवाल,उत्तराखण्ड शहीद यशोधर बेंजवाल स्मृति संस्था अगस्त्यमुनि रुद्रप्रयाग,उत्तराखण्ड|
9-  उनियाल ईश्वर प्रसाद,सम्पादक ‘रंत रैबार’ शिखर सन्देश प्रेस,न्यू  चुक्खूवाला देहरादून उत्तराखण्ड|
10- नेगी विमल,सम्पादक ‘खबर सार’,नेगी प्रिंटर्स एंड स्टेशनर्स पुरानी
   ट्रेजरी पौड़ी उत्तराखण्ड|
  11-रावत ,हयात सिंह,सम्पादक ‘पहरू’,इंद्र सदन,सुनारी नौला अल्मोड़ा
    उत्तराखण्ड |
  12-किरोला उदय,संपादक बाल प्रहरी, जाखनदेवी रोड अल्मोड़ा
    उत्तराखण्ड|
  13- जोशी देवांशु,दामोदर,संपादक कुमगढ़,श्री रामपुरम देवल
    चौड़,बंदोबस्ती हल्द्वानी,नैनीताल उत्तराखण्ड|अंक 5 -6 सितम्बर –
    अक्तूबर २०१५ भाषा पाठ 6 पृष्ठ ३९ एवं अन्य अंक|
 14 – तोमर ,मयंक,डॉ चन्द्र सिंह,सम्पादक ‘साहित्य प्रभा’ आमवाला
     अपर डाकघर तपोवन नालापानी देहरादून उत्तराखण्ड |



     






 





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