रविवार, 6 अगस्त 2017

         गीत समीक्षा (गढ़वाली)
  ये शीर्षक का भितर गढ़वाली गीत अर कवितों कि मेरि किताबी ‘पथ्यला’ मा अयां गीत अर कवितों की समीक्षा कु वर्णन कर्या जालु | ई समीक्षा वरिष्ठ साहित्यकार अर समीक्षक श्री ईश्वर प्रसाद उनियाल जी द्वारा ‘रंत रैबार’ मा करे गै छै | समीक्षा का वास्ता तौंकू भौत-भौत आभार |
                    (1)
                    ऐ जा ! मेरा गौ मा
टक लगैक सूण,ढोलकी चैत की,
छांछरी लगान्दी बेटूली मैत की;
कबि खुदेड़ गीत, कबि सदें लगान्दी,
थडया ,चौफलों का हुलेर चौक मा,
मेरा गौ मा ,
ऐ जा ! मेरा गौ मा |

हिलांस,कफू की खुदेंदी भौंण मा,
बुरांस का स्वाणा,फुल्यारा बौंण मा,
काफलपाकू बसद हरा –भरा ये बौंण,
लुणक-झुणक आम रैंदिन  डाल्यों मा,
मेरा गौ मा ,
ऐ जा ! मेरा गौ मा |

हरीं डांडी कांठी जब कुयेडी छान्दी,
खुदेंदी घसेरी कबि गीत लगान्दी,
लुकदु कन सूरज बादलों का बीच,
देखण चांदि ऐ जा चौमास मैनों मा,
मेरा गौ मा ,
ऐ जा ! मेरा गौ मा |

गौत,तोर दाल,चुला मा धैरीक,
कुटेरि खुल्दि छुयुं की दगड़ा बैठीक,
लम्बी राति ह्युंद की कटदी छुयुं मा,
तू भी ऐ जा कछिडी मा,ह्युंद मैनों मा,

मेरा गौ मा ,
ऐ जा ! मेरा गौ मा |
     ---------रचना डॉ उमेश चमोला
               समीक्षा
          धै लगौनी कुदरत
        ----- आई ० पी ० उनियाल
    पहाडी जीवन एक सुपन्य जनु छ | वेका हर घूम पर नयु क्षितिज, हर डांडा पर नयि कुदरत | हर गाड़/गदनों का ओर –पोर नयि डाली बूटी | हर मनखी मा प्रकृति कु आकलन को अलग अंदाज | पर एक बात ज्व एक जनि छ, वो छ मनख्यों कि एक जनि मानसिकता | सीदा,सच्चा अर दुन्य का हेरफेर से भौत दूर | हालाँकि बोन वल़ा त बोदन कि पहाड़ त वखा जन्यां तनि छन पर वखा मनखी पहाड़ी नि रयां | वु अब समझदार अर स्वार्थी ह्वे ग्येनि | वूँकि आजे मानसिकता से अगर पैल्ये सोच दगिडी तुलना करे जाव त पता चललो कि यूंमा सर्ग पताल को भेद छ | य बात अब –अब ऐग्ये हमारा पहाडयों मा | पैलित वूँकि इमानदारी कि सौं खाए जांदा छा  |
   बात कुछ-कुछ मामलों मा सै छ | किले जौ लोगुन यि तर्क देनि वूँको  यो बरर्त्याँ  मामलों मा सै ह्वे सकद पर यि बथा अपवाद छन | वास्तव मा त वखा लोग्वी सीधी सोच आज बि बहुल रूप मा दयखे जै सकद | य बात हौर छ कि कुछ आधुनिक सोच अर जर्वतों का चलद वखा लोग स्वार्थी ह्वे ग्येनि पर कुलमिलैक स्थिति अबि इथगा बुरि नि
 ह्वे |
   एक बात हौर छ जैन अबि अपणु प्रकृति धर्म नि छोडि वे छ पहाड़ कि ऋतु, डाली-बूटी, बथों अर कुदरती उमैला दृश्यावलि | आज जबकि पहाड़ को पूरो जनमानस भैरमुख्या ह्वे ग्ये | वे तैं पहाड़ कि जिन्दगी भार मैसूस होण बैठ्ग्ये | चौतरफी पहाड़ छ्व्डनै होड़ मा भजा –भज लगीं छ | हर क्वी यो बोनमा बड़ादमें मैसूस कनू छ वु फलाण शहर मा नौकरी कर्द | जनकि यो बोन मा गर्व मेसूस कर्दन वो तीन साल का बाद पहाड़ अयां छन | यानि जू जथगा देर मा पहाड़ औंद वु अफुतैं उथगा गौरवशाली माणद | पर ईं बात तैं क्वी झुठलै नि सकदो कि वखै आबोहवा मा वी साक्यू पुरनि पुलक छ |बथों साक्यू जनु खुशबूदार | वखै डांडी कांठी अबि वख बटि पलायन कनै नि स्वचनी छ | वखै डाली बूटयोन अबि पहाड़ छवडनौ  मन नि बने | वखै उकाल –उन्दारि जख्या तखि छन | अबि बी उकळी चढ्द साँस सक्स्येंद अर उन्दार्यों मा खुटा खपचै जान्दन | वखै लम्बी –लम्बी   सड़क्यों मा पैदल चल्द जब कुरै चल्दी छै व अबि भी मैसूस करे जै सकद | वखा  बजार, वखा गौला-गुज्यरा, ढुंगा –माटो, घास, वनस्पति अबि भी सक्यों पुराणी अन्वार ल्हेकि मनखि तैं चिडोंद नजर औंद कि देख ल्या, भले ही खैरी डॉरो तुमुन पहाड़ छोड्नो सौंगु बाटू अपनै यालि पर हमुन अबि अपणु गुण /धर्म नि छोड़े | तुम त क्य तुमरि दर्जनों पीड़ी भी जब यख ऐलि वु बी हमतैं जन्यां तनि दयाखलि | बस यिनि भावनों ल्हेकि पहाड़ी प्रकृति से जुड़यां कवि –साहित्यकारून सृजनात्मकता का आश्रय ल्हे अर लिख देनि एक से एक खुदेडा अर पहाड़ी प्रकृति से जुड़यां गीत | यों मद्दे त कथगै रचना यिनि छन जुकि कालजयी ह्वे ग्येनि | बस वूतैं जरा जिकुड़ा भितर बटी मैसूस कनै जर्वत छ |
   यिना साहित्यकारोंमा डाक्टर उमेश चमोला शामिल छन | वूँकि रचनों मा पहाड़ी जन जीवन कि मौलिकता कि झलक दयखनो मिल्द | वूंकि रचनों से मैसूस होंद कि भले हि मन्खिन अपनि जन्मभूमि छ्व्डनमा गर्व कु अनुभव करदू हो पर एक बात छ कि वखै कुदरत अबि भी धै लगै लगैक बुलोंदि नजर औंद कि चुचों बौडी ऐ जावा | आज न त भोल तुमतैं मेरि शरण मा औण ही पडूलु | तुम नि एल्या त तुमरि अगलि पीड़ी पहाड़ का तर्फ मुख करलि पर तुम एक दिन जरूर म्यरि खुचल्या मा ऐल्या | किलेकि जैलु व आयूँ-सायूं पर ऐलुत गोळका मा
हि |
  प्रस्तुत गीत मा डॉ० चमोलान आज से करीब तीनेक दशक पैल्ये तस्वीर खैंची छ | जब वखा पुन्गडा-डोखरों मा वखै जनान्यू  का गीत सुनेन्दा छा | डांडा –पाखों मा घसेन्यू का खुदेडा सुनेदा छा | हिलांस –कफू को खुदेड़ भाव मैसूस करये जान्दो छौ | बेलतीड़ो, काफलपाको  अर तितर-चकोरू कि भौंण मा वखै धरती कि खुशबू औन्दी छै | वूंकि भौण ज्व प्रवास का दौरान वखा मनख्यों तैं आज बि मैसूस होंद | वखौ मुट्ठी भर सर्ग, ऊँची नीचि कुदरती क्षितिज कि लंग्यात | चौमास मा डान्डयों मा लौन्कदि कुयेडी, स्वां-स्वां कर्दा गाड़ गदेरा;रुड्यों मा आमुकि डाल्यों का छैल अर सड़क्यों नया-नया क्षितिजू(घूम) से प्रगट होन्दी मोटर-गाडयों कि अन्वार, वखै खेती पाती मा उगदा नाज अर ह्यूंद कि रात्यूं मा घरय लोगुकि कछडी मा लगदी छुयूं को दौर डॉ० चमोला का ये गीत मा दयखनो मिल्द|
  (रंत रैबार १६ जुलाई २०१२ ) बटिन




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