सोमवार, 14 अगस्त 2017

     गीत समीक्षा (गढ़वाली) 3
         त्वैतें बुलौणा    

  मेरि किताबी ‘पथ्यला’ मा अयां ये गीत की  समीक्षा वरिष्ठ साहित्यकार (समीक्षक) श्री ईश्वर प्रसाद उनियाल जी द्वारा ‘रंत रैबार’ मा करे गै छै | समीक्षा का वास्ता तौंकू भौत-भौत आभार | ईं पोस्ट से पैलि  ‘ऐ जा मेरा गौं मा’ अर ‘पथ्यला बौण का’ कि समीक्षा का बाद  गीत दगिडी ईं पोस्ट मा श्री उनियाल जी द्वारा करीं तिसरा  गीत ‘त्वैतें बुलोणा’  कि समीक्षा पेश छ –
                    (3)
             त्वैतें बुलौणा
गाड़ गदेरा गीत गीत सुनोणा,
किले नि औणु त्वैतें  बुलोणा,

कफ्फू बासणा,घुघुती घुराणी,
बणों- बणों मा ,हिलांस रोणी,
लैंया का पुंगड़ा,छन भौत स्वाणा,
किले नि औणु त्वैतें  बुलोणा |

जू डाला बोट्ला, रोप्यां छा त्वेन,
यति साल बीत्याँ सी फूली गैन,
सुंघाण भौत फूलों से औणी,
किले नि औणु त्वैतें  बुलोणी|

जूं डालों तौला,छैल छौ  रौंदू,
जूं बौणों मा छौ तू गाजी चरोंदू,
बौण मुछाला बणीक रोणा,
किले नि औणु त्वैतें  बुलोणा |

बसगाल,ह्यूंद,रूड भी गैन,
तेरा बाटा तैं हेरदा  रैन,
गगडांदू सर्ग धै छ लगाणु,
किले नि औणु त्वैतें  बुलोणु |

औंदू मोल्य़ार जब गौं गल्यु मा ,
हैंसदा छन फूल,डाल्युं डाल्यों मा,
संगरांद चैते  त्वेतें  धधोणी,
किले नि औणु त्वैतें  बुलोणी|

चैते समोण फूल प्युली का,
खुदेड़ गीत दीदी भूली का ,
कै कोणा तेरा जिकुड़ा  मा होला,
कबि न कबि त्वेतैं बुलोला |
गाड़ गदेरा गीत गीत सुनोणा,
किले नि औणु त्वैतें  बुलोणा |
     -----रचना – डॉ० उमेश चमोला

समीक्षा
बौण मुछाला बणीक रोणा
------ आई ० पी ० उनियाल
  जन्मभूमि कु दर्द कनु होंद,य बात कै प्रवासी तैं पूछी पता चल सकद | जन्मभूमि का कण- कण मा बचपन कि याद समयीं रैंद | यी वजै छ कि सब कुछ संपन्न होणा बावजूद प्रवास कि पिडा सैनै मजबूरी वैका गला पडी रैंद | भौत कम लोग होंदन जु माटी कु दर्द मैसूस नि कर्दा पर अमूमन मनखि होणा नाता लोगु को जन्मभूमि को प्यार हर टैम टीस बणी सतोणी रैंद |
  प्रवासी पिडा क्वांसो पराण वला कवि अपण गीतों मा त क्वी कथा-कवितों मा अंकित कनौ कोशिश कर्दन तब कखि जैकि वुँका मन कि तसल्ली ह्वे सकद | जन्मभूमि का ढूगा-डाला, गौला-गुज्यारा, पुंगडा-डोखरा, सैरा,उखाड़ी, थौल-बजार, गोर-बखरा, भैस्यूंको खरक, आम्वी डाल्यों को छैल, उची-निसी डांडी, गैरी गदनी जनि कतगै यनि विद्या छन जौ से पल्ला छडोणु प्रवासी का वास्ता भौत कठिन होंद | शहरकि हल्ला-गुल्ला भरी जिन्दगी, बनावटी सुभौ वला लोग, मुख अगनै कुछ हौर अर पीठ पिछनै कुछ हौर चरित्र रखण वलों का बीच कम से कम पहाडी परिप्रेक्ष्य भौत श्रेष्ठ होंद | वेसे कैबि क्षेत्र माहौल कि तुलना नि करे जै सकदी |
  आज कुछ लोग जु कि भौतिकवाद का बथों मा अपणु बचपन तक बिसरि ग्येनि वूंसे त क्वी शिकैत कनि ढुंगा तैं पाणी चरणु जनु छ | जै मनखि का वास्ता सब कुछ रूप्या छन त वैसे अगर पुछै  जाव कि वैतें कबि जलमभूमि कि खुद बि लगद त वेको साफ़ जवाब होंद कि क्या फर्क पड़द याद कन नि कन से | एक मित्र छ मेरो बचपन कु | काफी बड़ी पोस्ट पर कार्यरत छ | बाल बच्चों का नों पर द्वी नौनी अर एक नौनु छ | नौन्यों को ब्यौ-मंतर ह्वे ग्येनि | नौना को बि ब्यौ ह्वेग्ये | यानि सर्वसम्पन्न,एक दां मैं वूंका घर कै काम से पौंछ्यों | सोचि छौ दगड्या दगड़ी भेंट बि ह्वे जालि अर अपण दिल कि बात बि वैमा सुनै दयोलो | घर पौंछ्यों त घर मा वेकि ब्वारी छै | हौर क्वी ना | जांदे स्यवा सौंली ह्वे | औपचारिकता का रूप मा पूरी मेजबानी करेग्ये पर बर्ताव मा रस्याण को कखि नौं दयखनो नि मिलि | पूछे कि भुला कब रिटायर होणु छ | पता चलि कि वेकि नौकरी का दुएक साल बच्यां छन | जब पूछे कि रिटायर होणा बाद वेको क्य कनौ सोच्युं छ | जवाब मिलि कि सुदि घर मा बैठी बि वूंन क्य कन | ये वास्ता कखि नौकरी कि तलाश करला | वुन वूंते अबि बटी ऑफर औणी छन | तुम जणदे छा कि वुंकि गणित कथगा तेज छ | ये वास्ता कखि मा बि बैठ जाला | त बुढ़ापा तक काम कर सकदन | सोचि छौ वुंसे गौं का विकास कि बात करए जैलि अर वेका आधार पर कुछ कार्यक्रम तैं जमीन मा उतारे जाव | बस सोच दिल का दिल मा रैग्ये | यु वाकया बीच मा लायेग्ये कि हम सोच सकां कि आखिर जन्मभूमि को हम पर जु कर्ज छ वेसे हम कनक्वे उरिण ह्वे सकला | निराश ह्वेकि घर ऐ गयों | पर चला क्वी त स्व्चणू छैछ अपनि जन्मभूमि का कर्ज से मुक्त होणे जुगत |
  बस यिनी विधा पर एक गीत –कविता ल्यखीं छ डॉ उमेश चमोला जी कि | वूंकि कविता-गीत से लग जान्द कि भले ही अगर हम वापस अपनि जन्मभूमि मा नि जै सकों पर यिथगा त छैंछ कि हम अपनि भावना तैं कलम मा उतारी अपणा भाव प्रगट कर सकणा छं | डॉ० चमोला कि ईं कविता को भौ सीधु जिकुड़ा पर चोट कर्द | भाव यो छ कि प्रवासि तैं वेका गौंका गाड़,गदेरा गीत लगोंद पूछणा छन कि कब घौर औनू छै | कविता से लगद जन कि कवि घुघुती, कफ्फू, हिलांस कि भाषा समझी वूंका मन कि पिडा मैसूस कनू हो |
   लगद जनकि गौं का गौला गुज्यारा, खेती पाती, डाला-बोट्ला अपणा प्रवस्युं तैं पूछणा होवन कि बता त जरा घर कब औनू छै | जौ डालो का छैल बैठी वूंन कबि थौ बिसै होलि वु अबि तक अपणा दगडया मनख्यों कि खुशबू मैसूस कना छन| कवि मैसूस कनू छ कि जनकि वखा बौण मुछ्याला बणी धै लगोणा होवन कि बोल कब आणु छै घर | बसग्याल, ह्यून्द, गगडाँदो सर्ग, औंदों मोल्यार, हैंसदि प्योली, बुरांस,  चैते संगरांद त्वे दयखनो बेताब होयां छन बस एक ही रौड(जिद) लगीं छ कि बोल कब तक एल्यु तु घर |
  कुल मिलैकि डॉ चमोलान यी कविता मा यिना भाव निवेशित करनि कि हर अंतरा पढ्दरा प्रवासि तैं अपनि जन्मभूमि का दर्शन का वास्ता प्रेरित कर्द |
(रंत रैबार २०  मार्च  २०१२  बटिन)








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