सहज-सरल – सुगम
शिक्षण : परिणामोन्मुखी
शिक्षण के लिए एक दिग्दर्शिका
शिक्षण
प्राचीन काल से ही दार्शनिकों, शिक्षा के अध्येताओं और चिंतकों के लिए विचार
विश्लेषण का विषय रहा है | शिक्षण को परिणामोन्मुखी बनाने के लिए कई अध्ययन और शोध
किये गए हैं | इसके अलावा शिक्षण की प्रक्रिया में शिक्षकों द्वारा व्यक्त अनुभव
शिक्षण को समझने,शिक्षण में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों तथा उनके समाधान में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं | प्राथमिक शिक्षकों के शिक्षण को सरल बनाने के
उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए पुस्तक ‘सहज-सरल-सुगम शिक्षण’ लिखी गई है जिसका
संपादन प्रो ० दुर्गेश पन्त, निदेशक उत्तराखण्ड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसन्धान
केंद्र देहरादून,प्रो० जे० के ० जोशी,वरिष्ठ वैज्ञानिक सलाहकार उत्तराखण्ड विज्ञान
शिक्षा एवं अनुसन्धान केंद्र देहरादून,डॉ० ओम प्रकाश नौटियाल वैज्ञानिक उत्तराखण्ड
विज्ञान शिक्षा एवं अनुसन्धान केंद्र देहरादून तथा डॉ० सुनील कुमार गौड़ शिक्षक –प्रशिक्षक
राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् उत्तराखण्ड देहरादून द्वारा किया
गया है |
इस पुस्तक के माध्यम से संपादक मण्डल द्वारा
शिक्षण,अध्ययन और शोध सम्बन्धी अनुभवों से प्राप्त ज्ञान को पाठकों से साझा करने
का प्रयास किया गया है | पुस्तक की विषयवस्तु को १५ अध्यायों में बांटा गया है |
इन अध्यायों में प्रभावी शिक्षण,बोलना,दूसरी भाषा को सीखना,व्याकरणीय, सामाजिक –भाषाई
और युक्ति दक्षता पर प्रकाश डाला गया है | इसके अलावा पढना सीखना और सिखाना ,पठन
कौशल का शिक्षण, लिखना, आंकिक चिंतन,संगीत एवं पठन कौशल,न्यूरोप्लास्टिसिटी,
हैन्डेडनेस ( बांये / दांये हाथ से लिखने की प्रवृत्ति ) तथा शिक्षण में हास
-परिहास के महत्व को समझाया गया है |
‘प्रभावी शिक्षण कार्य’ के अंतर्गत सीखने की
प्रक्रिया, लिखने – पढने के कौशल, मानव बुद्धि के विभिन्न प्रकारों, शैक्षिक
प्रक्रियाओं, शैक्षिक उपलब्धि के मूल्यांकन की प्रक्रियाओं आदि से सम्बंधित
जानकारियों के साथ शिक्षा से जुड़े सिद्धांतो और बातों की समझ को आवश्यक बताया गया
है | साथ ही आवश्यक कौशलों के शिक्षण में महत्व को भी बताया गया है | शिशु के जन्म
से 24 माह की अवधि तक बच्चों में बोलने के कौशल के चरणबद्ध विकास पर अध्याय 2
‘बोलना’ में प्रकाश डाला गया है | इसमें
यह बताया गया है कि जन्म के तुरंत बाद शिशु माँ की आवाज की लय /ताल –ध्वनि के साथ प्रतिक्रिया
व्यक्त करना शुरू कर देता है | 6 माह में वह शब्द ध्वनि की पहचान करने में सक्षम
हो जाता है | १२ माह में वह शब्दों से अर्थ जोड़ना शुरू कर देता है | १८ माह में वह
संज्ञा और क्रिया के अन्तरो को पहचानना
शुरू कर देता है | अध्याय में इस वैज्ञानिक सत्य को भी उल्लखित किया गया है कि एक
शिशु के मस्तिष्क में अवस्थित तंत्रिका कोशिकाएं दुनियाँ की सभी भाषाओँ की
ध्वनियों के प्रति प्रतिक्रिया देने में सक्षम होती है | इसलिए इस जन्मजात क्षमता
के सम्यक उपयोग के लिए ऐसा वातावरण सृजित किया जाना चाहिए जिससे उन्हें अनेक शब्द
और वाक्य सुनने को मिलें |इसके साथ ही इस अध्याय में जन्म के बाद के प्रारम्भिक
वर्षों में शिशु को अधिकतम चीजों के अवलोकन पर बल दिया गया है |
‘दूसरी भाषा को सीखना’ अध्याय में दूसरी भाषा के
महत्व को समझाया गया है |इसमें स्पष्ट किया गया है कि दूसरी भाषा को सीखने के लिए
उपयोग में लाई जाने वाली युक्तियाँ बच्चों की मातृभाषा की समझ और उसको बोलने की
योग्यता में सहायता पहुँचाती है | इसके बाद के अध्यायों में व्याकरण से सम्बंधित
दक्षता ( जैसे शब्द भंडार,भाषाई चिह्न विधान के नियम,शब्द निर्माण तथा वाक्य
संरचना),सामाजिक –भाषाई दक्षता (व्याकरण के स्वरूपों का सामाजिक सन्दर्भों के
अनुरूप उपयोग करना ),संवाद दक्षता,युक्ति दक्षता (शारीरिक हाव भाव तथा एक ही बात
को स्पष्ट करने के लिए आवश्यकतानुसार मिलते जुलते शब्दों का प्रयोग करना ) को
स्पष्ट किया गया है तथा ‘पढना सीखना और
सिखाना’ में इस वैज्ञानिक तथ्य को बताया गया है
कि मानव मस्तिष्क में पढने के लिए कोई हिस्सा निर्धारित नहीं है| अत: पढना एक
स्वाभाविक योग्यता नहीं है |इसलिए विद्यालय में भेजे जाने से पहले घर –परिवार में
पढने का वातावरण तैयार किया जाना चाहिए | इससे विद्यालय में उसे पढना सीखने की
योग्यता प्राप्त करने में सरलता होगी | पठन कौशल का विकास करने के लिए
विद्यार्थियों को सतत अभ्यास कराये जाने की आवश्यकता है | ‘लिखना’ अध्याय में
लिखने के कौशल के विकास के लिए बच्चों को चित्रण के पर्याप्त अवसर दिए जाने चाहिए
| देखना, सुनने और चित्रण करने के बाद लिखने का कौशल विकसित होता है | यह केवल शब्दों को लिखने के लिए ही सत्य
नहीं है अपितु अंकों को लिखने में भी लागू होता है |
प्राय: आम धारणा प्रचलित है कि संगीत का भाषा की उपलब्धि पर सकारात्मक
प्रभाव पड़ता है जबकि गणित जैसे विषयों में उपलब्धि को यह प्रभावित नहीं करता है |
‘आंकिक चिंतन’ में इस धारणा के विपरीत बताया गया है | संगीत का प्रशिक्षण प्राप्त
करते समय मस्तिष्क के जो भाग सक्रिय होते हैं वे ही भाग गणितीय प्रक्रियाओ को करते
समय भी सक्रिय होते हैं | इसलिए विद्यार्थियों को संगीत सम्बन्धी गतिविधियों में
भाग लेने के अवसर दिए जाने चाहिए | 4 और 5 वर्ष के बच्चों पर किये शोध के परिणामो
से ज्ञात हुआ है कि संगीत कौशलों के विकास होने पर पढने के विकास में भी वृद्धि
देखी गई |
‘हैंडेडनेस’
अध्याय में सामान्य कार्यों को दायें हाथ से करने और बांये हाथ से करने वाले लोगों
के बारे में बताया गया है | यदि बच्चा स्वाभाविक रूप से बांये हाथ से लिखता है तो
उसे दांये हाथ से लिखने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए | बुद्धि,जीवन में
सफलता और प्रसन्नता के सन्दर्भ में दांये हाथ से लिखने और बांये हाथ से लिखने
वालों के बीच कोई सार्थक अंतर नहीं होता है | इस अध्याय में बांये हाथ से लिखने
वाले प्रसिद्ध व्यक्तियों जैसे अल्बर्ट आईन्स्टीन, फ्रेंक्लिन,चार्ली चैपलिन ,सचिन
तेंदुलकर,करन जौहर,अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन आदि के उदाहरण दिए गए हैं |
पुस्तक
के अंतिम अध्याय ‘शिक्षण में हास –परिहास’ में शिक्षण में हास परिहास के महत्व पर
प्रकाश डाला गया है | साथ ही हास –परिहास का वातावरण बनाने में कुछ ध्यान रखने वाली बातों
जैसे बच्चों का मजाक न उड़ाना,जाति धर्म आदि के आधार पर उन पर कटाक्ष न करना आदि को
बताया गया है | हास –परिहास के सम्बन्ध में कुछ भ्रांत धारणाओं की ओर भी पाठको का
ध्यान खींचा गया है |हास –परिहास को समय के सम्यक निवेश की संज्ञा दी गयी है |
पुस्तक सरल भाषा में लिखी गयी है | इसमें
शिक्षण से जुड़े पक्षों को वैज्ञानिक और
मनोविज्ञान पर आधारित तथ्यों के साथ पुष्ट किया गया है | पुस्तक शिक्षकों ,शिक्षक –प्रशिक्षकों
और अनुसंधाताओ के लिए उपयोगी है | इसमें तथ्यों को बिन्दुवत दिया गया है | शैक्षिक अनुभवों के साथ जोडकर इन बिन्दुओं को
विस्तारित रूप दिए जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है | पुस्तक का आवरण पृष्ठ पुस्तक
की विषयवस्तु के अनुरूप है जो पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल है | पुस्तक
शीर्षक ‘सहज –सरल –सुगम शिक्षण’ के अनुरूप प्राथमिक शिक्षकों के शिक्षण को सहज सरल
सुगम बनाने में सफल होगी | शिक्षक , प्रशिक्षक और अनुसंधाताओं के लिए यह एक
दिग्दर्शिका के रूप में उपयोगी सिद्ध हो सकती है | पुस्तक उत्तराखण्ड विज्ञान
शिक्षा एवं अनुसन्धान केंद्र विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग उत्तराखण्ड शासन
द्वारा प्रकाशित की गई है जिसका कोई मूल्य निर्धारित नहीं है |
प्रकाशन
वर्ष -२०१६, प्रथम संस्करण |
समीक्षक -डॉ उमेश चमोला