शोध पत्र -
१-
उत्तराखण्ड की बोली भाषाओं का विकास
-----डॉ. उमेश चमोला
उत्तराखण्ड
में गढ़वाल और कुमाऊं दो मण्डल हैं। स्कन्द पुराण में हिमालय क्षेत्र को पांच
भागों में बांटा गया है। इनमें गढ़वाल क्षेत्र को केदारखण्ड और कुमाऊँ को
स्कन्दपुराण में कूर्मांचल नाम दिया गया है ।
गढ़वाल शब्द सन् 1500 और 1515
के बीच प्रचलन में आया। मुस्लिम इतिहास के लेखकों ने उत्तराखण्ड के स्थान पर
शिवालिक और कुमाऊँ शब्द का प्रयोग किया है। बहुत पहले ऊँचे पहाड़ों में छोटे-छोटे
किले रहते थे। राजा के द्वारा यह किले अपनी सुरक्षा के लिए बनाए जाते थे। इन्हें
गढ़ कहा जाता था। जब पंवार वंश के महाराजा अजयपाल ने इन गढ़ों के राजाओं को हराकर
एक बड़ा राज्य बनाया। इस राज्य को गढ़वाल कहा गया । इस राज्य में बोली जाने वाली
भाषा को गढ़वाली नाम दिया गया। इसी प्रकार कुमांऊँ में बोली जाने वाली भाषा
कुमाउनी के नाम से जानी जाने लगी। रूवाली(1980)ने
पन्द्रहवीं शताब्दी में ही कुमाउनी भाषा के चलन को माना है ।
गढ़वाली और कुमाउंनी हिन्दी के साथ बहुत समानता दिखाते हैं। दोनो की लिपि
देवनागरी है। कई शब्द इनमें समान हैं। इसी आधार पर ग्रियर्सन,कैलाग,सुनीति
कुमार चटर्जी आदि विद्वान गढ़वाली और कुमाउनी को हिन्दी की उपभाषा या बोली मानते
हैं। डॉ हरिदत्त भट्ट ‘‘शैलेश‘‘,चन्द्रमोहन
रतूड़ी आदि विद्वान गढ़वाली औैर कुमांउनी को हिन्दी जैसी स्वतन्त्र भाषा मानते
हैं। चन्द्रमोहन रतूड़ी,भजन सिंह‘सिंह‘
और अबोध बन्धु बहुगुणा तो हिन्दी को गढ़वाली की अपभ्रंश भाषा मानते
है। इन विद्वानो का विचार है कि गढ़वाली हिन्दी से नहीं उपजी है बल्कि हिन्दी
गढ़वाली से उपजी है। गढ़वाली और कुमाउनी को हिन्दी की तरह अलग भाषा मानने वालों का
तर्क है कि गढ़वाली में एक भाव विशेष को व्यक्त करने के लिए कई शब्द हैं जैसे
हिन्दी में गन्ध के लिए सुगन्ध(अच्छी गन्ध) और दुर्गन्ध(बुरी गन्ध )शब्दो का
प्रयोग किया जाता है। गढ़वाली में गन्ध के लिए कई शब्द प्रयोग में आते हैं। यहाँ
हर गन्ध के लिए अलग-अलग शब्द हैं। जैसे कपड़ा जलने की गन्ध को कुतराण,किसी
वस्तु के सड़ने-गलने से आने वाली गन्ध के लिए सड़्याण,मूत्र से
पैदा गन्ध को चुराण, मल से संबंधित गन्ध को गुवांण, सीलन
से पैदा गन्ध को स्यपाण, तेल जनित गन्ध को तेलाण जैसे शब्द प्रयोग में
आते हैं। इसी प्रकार गढ़वाली,कुमाउनी और अन्य भाषाओं में लोकवार्ता
साहित्य के रूप में गीत,गाथा,कथा,अवाणा-पखाणा
(पहेलियां,लोकोक्तियां आदि) में आए शब्द बहुत सामर्थ्यवान हैं। ये शब्द सामाजिक
आचार-विचार,खान-पान,कर्मकाण्ड
और लोकमानस के विचार और भावनाओं को जानने के माध्यम हैं। यह सब इन भाषाओं को अलग
और विशिष्ट भाषाओं की पंक्ति में खड़ा करते हैं। इन भाषाओं का अलंकार विधान,विशिष्ट
बोलचाल का ढंग, और बिम्बविधान जैसे गुण इन्हें अलग भाषा मानने
का आधार प्रदान करते हैं।
जार्ज ग्रियर्सन अपने भाषा वर्गीकरण में हिमाचली को पश्चिमी पहाड़ी,नेपाली
को पूर्वी पहाड़ी और गढ़वाली तथा कुमाउनी को मध्य पहाड़ी भाषा का दर्जा देते हैं। ग्रियर्सन
गढ़वाली और कुमांउनी को आवर्त्य अपभ्रंश से उत्पन्न भाषा मानते हैं। वे राजस्थानी
को भी आवर्त्य अपभ्रंश से ही आई हुई भाषा मानते हैं। डॉ धीरेन्द्र वर्मा, डॉ
उदय नारायण तिवारी, डॉ टी0एन दवे और डॉ
भोला शंकर व्यास जैसे भाषाविद् गढ़वाली और कुमाउनी को शौरसैनी प्राकृत से निकली
भाषा मानते हैं । डॉ गोविन्द चातक ने अपनी पुस्तक ‘गढ़वाली
भाषा‘ में यह बात स्पष्ट की है कि यह दोनो भाषायें शौरसैनी प्राकृत से ही निकली हैं। डॉ धीरेन्द्र
वर्मा का कहना है कि एक हजार ईस्वी के बाद अपभ्रंश भाषाओं ने नई बोलियों का रूप
लिया। इसी समय गढ़वाली और कुमाउनी भाषा आकार लेने लग गई थी।
कई शिलालेख, ताम्रपत्र
और फरमान आज भी मौजूद हैं। यह गढ़वाली और कुमाउनी भाषा के विकास के काल और स्वरूप
को बतलाते हैं। इनमें से एक शिलालेख देवलगढ़ में है। यह सन् 1460
के समय का है। इस पर लिखा है-‘अजैपाल कु धर्मपाथौ,भण्डारी
करौं कु।‘ यह
श्रीनगर और टिहरी के निकट बोली जाने वाली गढ़वाली को बतलाता है। इसी तरह सन् 1608
का एक शिलालेख देवप्रयाग मन्दिर में पाया गया। इस पर लिखी भाषा संस्कृत और गढ़वाली
के मिलेजुले रूप को बतलाती है। अन्य दो शिलालेखों में एक भक्तियाणा श्रीनगर के
लक्ष्मीनारायण मन्दिर का है जो सन् 1612 में राजा
पृथ्वीपति शाह के समय का है। दूसरा टिहरी के निकट माली देवल गाँव के लक्ष्मी
नारायण मन्दिर का है, इसका समय 1842 है । यह
सभी शिलालेख गढ़वाली भाषा की प्राचीनता को सि़द्ध करते हैं। सन् 1667
का राजा फतेहशाह के समय का ताम्रपत्र और फरमान इस तथ्य को बतलाते हैं कि उस समय
गढ़वाली राजकाज की भाषा थी। पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी का मानना है कि गढ़वाली में
लिखे अन्य ऐतिहासिक लेख,पत्र जैसी सामग्री उस समय श्रीनगर दरबार में
रही होगी। सन्1803 में गोरखों की लड़ाई में यह नष्ट हो गई होगी। (देखें
गढ़वाल का इतिहास)।
सन् 1915 से पहले गढ़वाल
में राजभाषा के रूप में गढ़वाली और साहित्य की भाषा संस्कृत थी। यही कारण है आज भी
गढ़वाली पर संस्कृत का प्रभाव दिखाई पड़ता है। उस समय गढवाली विद्वानो ने गढ़वाली में नहीं अपितु संस्कृत में कई ग्रन्थ लिखे । पंडित मेधाकर बुधाणा ने ‘प्रदीप
रामायण‘ और ‘मानोदय‘ काव्य
लिखा। बागीश ओझा ने ‘बागीश‘ नाम से एक
तन्त्र-मन्त्र वाली पुस्तक लिखी। इसी प्रकार पंडित तुलाराम बहुगुणा ने ‘बद्री
महात्म्य‘ और हरिदत्त नौटियाल ने राजगुरु‘नामक
पुस्तक लिखी। यह सभी ग्रन्थ संस्कृत में
ही लिखे गए। (गढ़वाल
का इतिहास)।
गढ़वाली में सबसे पहली प्रकाशित पुस्तक बाइबिल (बाइबिल का गढ़वाली अनुवाद) मानी
जाती है। रमा प्रसाद घिल्डियाल‘पहाड़ी‘ने ‘साहित्य
का जातीय रूप‘ निबन्ध में लिखा है कि सबसे पहले 1830
में ईसाई धर्म के प्रचारकों ने ‘न्यू टेस्टामेन्ट‘ का
अनुवाद गढ़वाली में किया। इसके बाद ‘गास्पेल ऑफ मैथ्यू‘ सन्1876
में छपी । पंडित गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल ने सन्1900 में ‘हितोपदेश‘
का गढ़वाली भाषा में अनुवाद किया ।इसलिए पंडित गोविन्द प्रसाद
घिल्डियाल को पहला गढ़वाली गद्य लेखक माना जा सकता है।
गढ़वाली भाषा में लोकसाहित्य के विकास के सोपान इस प्रकार माने जाते हैं-
1-प्रथम सोपान-सन् 1900 से पहले,
2-दूसरा सोपान-सन् 1901 से 1925
तक,
3-तीसरा सोपान- सन्1926 से 1950
तक,
4-चौथा सोपान- सन्1951 से 1975
तक,
5-पांचवां सोपान- 1976 से अब
तक।
गढ़वाली और कुमांउनी भाषाएं बहुत प्राचीन हैं। विभिन्न
ताम्र पत्र, शिलालेख और फरमान इन भाषाओं की प्राचीनता और
विकास के क्रम पर प्रकाश डालते हैं किन्तु इन साक्ष्यों के काल से भी पहले यह
भाषाएं अस्तित्व में थी। यह वैदिक श्रुतियों की तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक
चलती रही । इन भाषाओं का विकास का काल तय करना उतना ही कठिन है जितना काल का काल
तय करना। इन भाषाओं में कई लक्षण एक समान हैं । इनके मध्य जो अन्तर आया वह स्थान
विशेष के कारण आया । कहावत है कि बारह कोस पर भाषा बदल जाती है । इन भाषाओं में
अन्तर निकटवर्ती राज्यों की भाषाओं के प्रभाव के कारण भी पड़ा । जैसे गढ़वाली भाषा
पर प्रभाव हिमाचल की भाषा का भी प्रभाव है। इसी प्रकार कुमाउंनी पर तिब्बती और
पाली का प्रभाव देखने को मिलता है। इन्हीं कारणों से गढ़वाली और कुमांउनी की कई
उपबोलियां विद्वानो ने बताई हैं ।
उत्तराखण्ड में गढ़वाली और कुमांउनी की तरह
जौनसारी, भोटि, रंवाल्टि
जैसी अन्य भाषाएं भी हैं। इन भाषाओं में संबंधित क्षेत्रों की संस्कृति, खानपान, रीतिरिवाज
का प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है। इन भाषाओं पर व्यापार का प्रभाव भी देखने को
मिलता है। इसका एक उदाहरण रुद्रप्रयाग,टिहरी आदि
जनपदों में चूड़ी बनाने और बेचने वाले लोग रहते हैं। इनकी बोली-भाषा नागपुर्या और
टिर्याली से भिन्न है। चूडि़यों को रंगाते समय ये लोग ऐसी बातें करते हैं जिनका
उद्देश्य मनोरंजन करना मात्र होता है। ऐसा वे चूड़ी रंगने के कठिन काम में मन
बहलाने के लिए करते हैं। ऐसी बातों को रंगाळि कहा जाता है। दूर-दूर तक के गाँवों
में चूड़ी का व्यापार करने के लिए जाने के कारण रंगाळि वाली बात इन गाँवों में भी
फैल गई । आज भी जब कोई कोरी गप मारता है तो लोग व्यंग्य करते हुए कहते हैं-‘‘ बहुत
हो गया अब रंगाळि लगाना बन्द कर।‘‘
उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं को कई भाषा वैज्ञानिक
हिन्दी की बोली मानते हैं। इन भाषाओं में कई शब्दकोष लिखे गए हैं। कई लिखे जा रहे
हैं। इन भाषाओं के लेखक अलग-अलग विधाओं में साहित्य रच रहे हैं। यह अब बोली नहीं
रह गई हैं अपितु धीरे-धीरे मानक भाषा का रूप लेती जा रही हैं ।
सन्दर्भ संकेत-
1-ग्रियर्सन,भारत का
भाषा सर्वेक्षण,
2-शैलेष,डॉ हरिदत्त भट्ट,गढ़वाली
भाषा और उसका साहित्य,
3-तिवारी,डॉ उदय नारायण,हिन्दी
भाषा का उद्भव और विकास।
4-रतूड़ी,हरिकृष्ण, गढ़वाल का इतिहास,भागीरथी
प्रकाशन गृह, सुमन चौक,टिहरी, चतुर्थ
संस्करण ।
5-रूवाली, केशवदत्त, उद्गम
के आधार पर कुमाउनी शब्दों का वर्गीकरण,उत्तरीय
प्रकाशन,जनकपुरी,दिल्ली।
6-शर्मा, देवदत्त, मध्य
पहाड़ी बोलियों में आग्नेय तथा तिब्बत-वर्मी तत्व, उत्तरीय
प्रकाशन,
जनकपुरी,दिल्ली।
7-शर्मा,डॉ ब्रह्मदेव,गढ़वाली
भाषा एवं साहित्य का विकासोन्मुख परिचय,गढ़वाली
साहित्य संकलन,प्रथम संस्करण, 2001, हेमवती
नन्दन बहुगुणा गढ़वाल
विश्वविद्यालय, श्रीनगर,गढ़वाल
के लिए आदर्श पुस्तक भण्डार श्रीनगर,गढ़वाल
द्वारा प्रकाशित।
8-भट्ट,डॉ दिवा,उत्तराखण्ड
की लोकसाहित्य परम्परा,अल्मोड़ा बुक डिपो द
माल,अल्मोड़ा,उत्तराखण्ड।
साहित्य प्रभा , अक्टूबर – दिसंबर २०१७ , उत्तराखण्ड की बोली भाषाओं का विकास,
शोध आलेख द्वारा डॉ. उमेश चमोला, सम्पादक – डॉ,.
चन्द्र सिंह तोमर’मयंक’ आमवाला, डाकघर –तपोवन., नालापानी देहरादून , उत्तराखंड से
साभार |
शोध पत्र -
२-उत्तराखण्ड
के संस्कार गीतों का भाषिक स्वरूप, क्षेत्रीय
भाषाओं के विकास से इनका सम्बन्ध और इनके विकास में महिलाओं का योगदान
-----डॉ. उमेश चमोला
संस्कार गीत लोकसाहित्य की अनमोल थाती हैं । जो
सृजन किसी एक व्यक्ति के द्वारा नहीं अपितु जनमानस के बीच से उपजता है, उसे
ही लोकसाहित्य कहा जाता है। लोकसाहित्य अर्थात् लोक के द्वारा रचित और लोक में रचा
बसा साहित्य। लोक शब्द ऋग्वेद में आया
है। ऋग्वेद के अनुसार परमेश्वर की नाभि से अंतरिक्ष,सिर से
द्युलोक अर्थात् नक्षत्र और तारे ,पैरों से भूमि और दिशा बनी । परमेश्वर
के कानो से लोक की उत्पत्ति हुई । लोक परमेश्वर के कानो से बना । यह कथन
लोकसाहित्य में श्रुति परम्परा की ओर संकेत करता है । यहाँ पर लोक शब्द के दो अर्थ
हैं- आम जन और स्थान।
लोकसाहित्य की कई विधाएं हैं । इनमें लोकगीत भी
एक विधा है । लोकगीत कैसे उत्पन्न होता है ? इस
सम्बन्ध में महादेवी वर्मा का कथन
प्रासंगिक है- ‘‘जब मानव सुख-दुख जैसे भावों में डूब जाता है तो
उसके भाव आँसू,आह भरने,चेहरे पर
प्रसन्नता और हँसी जैसे आनुभविक और आंगिक चेष्टाओं तक ही सीमित नहीं रहते। वह हर्ष
और वेदना का रूप धारण कर कण्ठ से साकार होकर गीतों के स्वरों में फूट जाते हैं। इन
गीतों की रचना कोई एक कवि नहीं करता । यह आम लोक की अज्ञात सृष्टि है।‘‘
हमारे मनीषियों ने हमें सोलह संस्कारों को निभाने का विधान दिया है। जन्म,विवाह,चूड़ाकर्म,जैसे
मांगलिक अवसरों पर हृदय का आह्लाद और किसी की मृत्यु पर शोक का भाव इन संस्कारों
से सम्बन्धित गीतों में व्यक्त होता है । इन गीतों को संस्कार गीत कहा जाता है । मोहन
लाल बाबुलकर ने उत्तराखण्ड के लोकगीतों को आठ भागों में बांटा है। इनमें एक भाग
संस्कार गीत का भी है । संस्कार गीतों को बाबुलकर ने जन्म,मृत्यु
और विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में विभक्त किया है। उन्होंने मांगलिक
गीतों के छब्बीस भाग बताए हैं। इनमें स्तुति गीत (मांगलिक अवसरों पर गणेश आदि
देवों की स्तुति वाले गीत), निमंत्रण देने सम्बन्धी गीत, बांद
देते (हल्दी हाथ के) समय के गीत ,बारात की तैयारी विषयक गीत, बारात
पहुंॅचने के समय वाले गीत, धूलि, अर्ध्य
के गीत, वर
को देखते समय के गीत, कन्या के रूप सम्बन्धी गीत, कन्यादान
के समय के गीत, फेरों के समय के गीत, विवाह
के बाद के गीत, बारात जाने के समय के गीत, खुद(मायके
और परिजनो की याद संबंधी) गीत, गृह प्रवेश के गीत और गाली देने( मेहमानो
से मजाक ) संबन्धी गीत प्रमुख हैं।
किसी भी
क्षेत्र में प्रचलित संस्कार गीत वहाँ की भाषा के विकास में सहायक होते हैं । इन
गीतों से क्षेत्रीय भाषाएं ही समृद्ध नहीं होती अपितु यह राष्ट्रीय भाषाओं की धुरी
भी मानी जाती हैं। डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों में, ‘‘मेरा
विश्वास है कि हिन्दी बिना जनपदों की बोलियों को साथ लेकर आगे नहीं बढ़ सकती । भाषाओं
की दृष्टि से इन गाँवों की भाषाओं में बहुत मसाला भरा रहता है।‘‘
यह संस्कार गीत भाषाओं के विकास में किस प्रकार
भूमिका निभाते हैं ? इसे समझने के लिए हमें इन गीतों के भाषिक
स्वरूप को समझना पड़ेगा । इन गीतों की भाषा सरल,आसानी से
समझने योग्य और आम जन की भाषा होती है । इनमें सूक्ष्म
चित्रण करने की क्षमता होती है। इन गीतों की रचना लोक काव्यशास्त्रीय मानकों को
ध्यान में रखकर नहीं करता है। इनमें काव्यशास्त्रीय तत्व अपने आप आ जाते हैं । ये
गीत अपनी विविध प्रकृति की तरह सरसता में भी विविधता दिखाते हैं।
बच्चे के जन्म के समय गाए जाने वाले गीतों में वात्सल्य रस देखने को मिलता
है। चूड़ाकर्म संस्कार से संबन्धित इस गीत को देखिए-
‘‘नाई रे
नाई,तू मेरू भाई,धर्म को भाई,
मेरा
लाडा पीड़ा न लाई, पीड़ा न लाई,
त्वे
द्यूलो नाई मीं कानो तैं कुण्डल,
शाल,दुशाला।‘‘
इस गढ़वाली गीत में एक माँ नाई से कहती है कि वह
उसका धर्म भाई होगा । वह चूड़ाकर्म करते समय बच्चे को कोई पीड़ा न पहुंॅचाए। वह उसे कानो के कुण्डल और शाल-दुशाला देगी ।
कुछ ऐसा ही भाव इस कुमाउनी गीत में भी देखने को
मिलता है-
नाउ
बेटा,नाउ बेटा,पीड़ जन करिए,
यो
रे केशा, यो रे
केशा दूदले धोया,
अमिरत
सींचा,घिरते लै पौंछा,
इनुरै
केशा पीड़ जन करिए‘‘
विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले कई गीत श्रृंगार
रस प्रधान होते हैं। वर को देखने के समय और कन्या के रूप विषयक गीतों में संयोग
श्रृंगार देखने को मिलता है। कन्या की विदाई के गीतों में करुण रस की आद्रता होती
है। विवाह के समय मेहमानो और जीजा-साली से संबंधित गीतों में हास्य रस की अनुभूति
का आस्वाद लिया जा सकता है। मरण विषयक शोकगीत शान्त रस से सिक्त रहते हैं।
संस्कार गीत उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, पुनरुक्ति
प्रकाश और अनुप्रास आदि अलंकारों से सुसज्जित रहते हैं । बच्चे के जन्म के समय गाए
जाने वाले इस गढ़वाली गीत में अलंकार की छटा देखते ही बनती है-
‘‘तू होलो
मेरा तपस्या को जायो,
तू
बणलो बाळा कुल की जोत।‘‘
संस्कार गीतों में शब्द विन्यास की सादगी देखी
जा सकती है । ये साहित्यिक आडम्बरों(रस,छन्द अलंकार आदि
का जबरन प्रयोग) से मुक्त जनमानस की सामूहिक अभिव्यक्ति होती हैं । इनमें विशेष
कल्पना तत्व और बिम्बविधान भी दर्शनीय होता है। उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं गढ़वाली,कुमांउनी
आदि में विपुल शब्द भण्डार होने का एक कारण यह गीत भी हैं । वैश्वीकरण के इस दौर
में इन भाषाओं पर बाजारवाद का प्रभाव देखने को मिल रहा है। क्षेत्रीय भाषाओं के
संरक्षण के लिए संस्कार गीतों को संरक्षित करना अनिवार्य है। ये गीत प्रकृति के
गीत हैं। इनकी लय, माधुर्यता, और
स्वाभाविकता किसी को भी अपनी ओर खींचने की
सामर्थ्य रखती है ।
इन
गीतों के विकास में नारियों का अप्रितम योगदान है । इसका एक कारण नारियों में इन
गीतों को रचने और मृदु वाणी में गाने की जन्मजात प्रवृत्ति होती है । शायद लगभग
सभी संस्कार गीतों की रचना और इनको धुनबद्ध स्त्रियों ने ही किया होगा । दूसरा
कारण यह है कि उत्तराखण्डी समाज में स्त्री विकास की धुरी है । स्त्रियां माँ, सास, दीदी
(बड़ी बहिन), भुली(छोटी बहिन), ननद, साली
आदि के रूप में सोलह संस्कारों को निभाती हैं । विशेषकर शादी-ब्याह में इनकी यह
भूमिकायें देखी जा सकती हैं । यहाँ की
नारी डान्डी-कांठी (ऊंची-नीची पर्वत श्रेणियां) की गोदी में बसे गाँवों की प्रकृति
में जन्म लेती हैं, पलती हैं और बड़ी होती है । पहाड़ में पहाड़
जैसे कठिन जीवन को जीती यह नारियां अपने
मन को हल्का करने के लिए इन गीतों को रचती और गाती हैं । इसलिए नारी के बिना
संस्कार गीतों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । लोकसाहित्य के मर्मज्ञ रामनरेश
त्रिपाठी का यह कथन इसी बात को पुष्ट करता है- ‘‘लोकगीतों
में कवित्व है । जब यह गीत नारी के कण्ठ से निकलते हैं तो इनका सौन्दर्य माधुर्य
और उन्माद कुछ और ही हो जाता है । खेद है कि मैं लेखनी के नोक से इन्हें अपने
पाठकों तक नहीं पहुंचा सकता । यूरोप में यह कार्य फोनोग्राफ के रिकार्ड से किया
गया है । विधाता ने नारी के कण्ठ में जो मिठास दी है और जो लचक भरी है, उसे
मैं लोहे कलम से कैसे और कहाँ से ला सकता हूँ ? जब
ये गृह देवियां इन गीतों को गाती हैं तो इन्हें सुनकर चराचर के प्राण तरंगित हो
जाते हैं । ऐसा लगता है जैसे आकाश आश्चर्य में पड़ गया है । जैसे प्रकृति कान
लगाकर इन गीतों को सुन रही है।‘‘
सन्दर्भ संकेत-
1-भट्ट,डॉ दिवा,उत्तराखण्ड
की लोकसाहित्य परम्परा, श्री अल्मोड़ा बुक डिपो द माल,
अल्मोड़ा,उत्तराखण्ड।
2-बाबुलकर, मोहनलाल, गढ़वाली
लोकसाहित्य की प्रस्तावना, भागीरथी प्रकाशन गृह
बौराड़ी,नई टिहरी,उत्तराखण्ड।
3-गुप्त, विष्णु, संपादक, प्रसाद, डॉ
आद्या लेखक, नवनीत लोकसाहित्य,कनु
प्रकाशन,शास्त्री
नगर, मेरठ,उत्तर
प्रदेश।
4-नौटियाल, शिवानन्द, गढ़वाल
के लोकगीत एवं लोकनृत्य, सुलभ प्रकाशन, लखनऊ,उत्तर
प्रदेश।
5-चातक,डॉ
गोविन्द,गढ़वाली लोकगीत,राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली।
साहित्य प्रभा , जनवरी –
मार्च २०१७ , उत्तराखण्ड के संस्कार गीतों का भाषिक स्वरूप, क्षेत्रीय भाषाओं के विकास से
इनका सम्बन्ध और इनके विकास में महिलाओं का योगदान, शोध आलेख द्वारा डॉ. उमेश चमोला सम्पादक – डॉ,. चन्द्र सिंह तोमर’मयंक’ आमवाला,
डाकघर –तपोवन., नालापानी देहरादून , उत्तराखंड से साभार |
शोध पत्र -
३-महा
कवि कालिदास के साहित्य में गढ़वाल हिमालय का परिवेश
-----डॉ. उमेश चमोला
हिमालय प्राचीन काल से ऋषि-मुनियों , कलाकारों
एवं साहित्यकारों की सृजना का विषय रहा है । शिव एवं मत्स्य पुराण, महाभारत, नैषद्
चरित्रम्, साहित्य
दर्पण आदि ग्रन्थों से हिमालय के आख्यान जुड़े हैं । माघ और भारवि की कविताओं का
वर्ण्य विषय भी हिमालय ही रहा है किन्तु हिमालय को नगाधिराज, पृथ्वी
का मानदण्ड तथा जड़ नहीं अपितु देवात्मा के रूप में प्रतिष्ठित तो कविकुल शिरोमणि
कालिदास ने ही किया है। स्कन्द पुराण में हिमालय को नेपाल प्रदेश, कूर्माचल
(कुमांऊॅ), केदारखण्ड, जालन्धर
और कश्मीर में बांटा गया है । इनमें से केदारखण्ड अब गढ़वाल के नाम से जाना जाता
है जो कि वर्तमान में उत्तराखण्ड का एक मण्डल है।
महाकवि
कालिदास ने अपने ग्रंथों में गढ़वाल हिमालय के सामाजिक-सांस्कृतिक तथा प्राकृतिक
परिवेश का सरस चित्रण किया है। मेघदूत के उत्तरमेघ में अलकापुरी के मनोरम शब्द
चित्र खींचे गए हैं । पूर्वमेघ में तिरेपनवें श्लोक से आगे सत्र की समाप्ति तक
महाकवि ने कनखल (हरिद्वार से ऊपर), हिमालय
के निवासियों, ग्राम बधुओं, जंगल
के पशुओं और तरु-लताओं का विशद वर्णन किया है । एक स्थान पर प्रसंग आता है-
‘‘तस्माद्गच्छेरनुकनखलं
शैलराजा वर्तीणा,जह्नो कन्यां सगरतनयस्वर्ग सोपानपंक्तिम् ‘‘(पूर्वमेघ,54)
अर्थात् कनखल में तुमको सगर पु़त्रों को स्वर्ग प्रदान करने वाली
स्वर्ग की सोपान गंगाजी मिलेगी।
गढ़वाल के जंगलों में कस्तूरी मृग (उत्तराखण्ड
का राज्य पशु ) आज भी पाए जाते हैं। कालिदास ने मेघदूत में कस्तूरी मृगों के बैठने से महकती शिलाओं का वर्णन किया है-‘‘आसीनानाम्
सुरभितशिलम् नाभिगन्धै मृगाणाम्‘‘।
उत्तरमेघ में काव्य का नायक यक्ष मेघों से कहता है- ‘‘मेघ!
तुम वहॉं जाओ जहॉ सुन्दर यक्ष कन्यायें मन्दाकिनी की फुहारों से शीतल हुए पवन में
उसके किनारे उगे कल्पवृक्षों की छाया में बैठकर अपनी ऊष्णता मिटाती है।‘‘
स्पष्ट है मेघदूत में वर्णित कनखल, मन्दाकिनी, मानसरोवर, कैलाश
गंगा, अलकनन्दा
और अलकापुरी उत्तराखण्ड के गढ़वाल हिमालय में ही स्थित हैं। सत्रह सर्गों के
कुमारसम्भव महाकाव्य में बदरिकाश्रम के निकट गंधमादन पर्वत, मानसरोवर, सुमेरु
कैलाश , अमरावती
और औषधिप्रस्थ का वर्णन है । इसके साथ ही रात को चमकने वाली जड़ी बूटियों का वर्णन
आया है । आज भी गढ़वाल के जंगलों में रात को चमकने वाली जड़ी बूटियां पाई जाती हैं
। कालिदास ने अपने ग्रन्थों में कई गुफाओं का वर्णन किया है । बदरिकाश्रम में आज
भी कई रहस्यपूर्ण गुफाएं हैं जो व्यास गुफा, स्कन्द
गुफा, नारद
गुफा, मुचकुन्द
गुफा आदि नामों से जानी जाती है।
गढ़वाल का लोकाचार है कि वर के अभिभावक कन्या का
हाथ मांगने कन्या के माता-पिता के पास जाते हैं। कुमार सम्भव में प्रसंग आया है जब
महादेव पार्वती से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो पार्वती अपनी सहेली के माध्यम से
महादेव को कहलाती है-‘‘मेरे विवाह करने या न करने वाले मेरे पिता
हिमालय हैं। इसलिए आप उन्हें जाकर मना लीजिए-‘ ‘अथ
विश्वात्मने गौरी संदिदेश मिथः सखीम दाता में भूभृतानाथ प्रमाणीक्रियतामिति।‘‘
महादेव
के कहने पर सप्तऋषि गन्धमादन पर्वत के मध्य में स्थित हिमालय नरेश की औषधिप्रस्थ
नामक राजधानी में कन्या का हाथ मांगने के लिए पहुॅचते हैं। औषधिप्रस्थ नगर वहॉ था
जहॉ गन्धमादन पर्वत है जिसके चारों ओर गंगा की धाराएं बहती थी और चमकीली जड़ी
बूटियां प्रकाश करती थी-‘‘गंगा स्रोतः परिक्षिप्तं व प्रान्त
ज्वलिता औषधि (6,38) । कल्कि पुराण में औषधिप्रस्थ की स्थिति को इस
प्रकार बताया गया है- ‘‘यत् गंगा निपतिता पुरा ब्रह्मपुरा सृता
औषधिप्रस्थ नगरस्या दूरे सानुरुत्तमम‘‘।
महापण्डित राहुलसांकृत्यायन ने कालिदास रचित साहित्य
के बारे में लिखा है- ‘‘हिमवान के किरातों का परिचय कालिदास (चौथी सदी)
को भी था । शायद उन्हें भारत की सबसे ऊॅची चोटी नन्दा देवी की निवासिनी
नन्दा(पार्वती) का पता था । कुमार कार्तिकेय के जन्म को उन्होंने यहीं माना था।‘‘
कुमार
सम्भव के देवसैनानी कार्तिकेय गढ़वाल के प्राचीन राजवंश कार्तिकेयपुर के राजाओं के
कुलदेवता के रूप में पूजित थे । उनकी राजधानी कार्तिकेयपुर वर्तमान जोशीमठ(चमोली
जिले) के दक्षिण में थी।
कालिदास कृत अभिज्ञान शाकुन्तलम नाटक का
प्रारम्भ कण्वाश्रम और मालिनी नदी के तट से किया गया है। मालिनी नदी गढ़वाल की
अजमेर पट्टी के पर्वत पृष्ठ से निकलती है । इसकी कथा का समापन गढ़वाल की हेमकूट
पर्वतमाला से होता है । केदारखण्ड(अ057) में कण्वाश्रम
से बद्रीनाथ के निकट नन्दागिरि पर्वत तक केदार क्षेत्र ( गढ़वाल) की सीमा बताई गई
है- ‘‘कण्वाश्रमम् समारभ्य यावन्नन्दगिरिभवेत्,तावत्क्षेत्र
परंपुण्यं भुक्ति-मुक्ति प्रदायकम् ‘‘ आखेट करते हुए
दुष्यन्त को गिरिचर इव नागः कहना यह सिद्ध करता है कि दुष्यन्त पहाड़ी क्षेत्र में
ही आखेट कर रहे थे।
अभिज्ञान शाकुन्तलम में वर्णित ऋषियों का अन्न नीवार और श्यामाक ( झंगोरा और
कोदा) आज भी गढ़वाल का प्रमुख खाद्यान्न है । शकुन्तला का अपने कन्धे पर गांठ देकर
वल्कल वस्त्र (भ्यूल तथा भांग की छाल से बने स्थानीय परिधान त्यूंखे ) को पहनने का
ढंग गढ़वाली स्त्री का है । अभिज्ञान शाकुन्तलम के छटे अंक में शकुन्तला के विरह
में तड़पते दुष्यन्त कण्वाश्रम के चित्र
में मालिनी नदी और हिमालय की तलहटी के साथ-साथ वल्कल वस्त्र टंगे हुए पेड़ को भी
बनाने की बात करते हैं। हस्तिनापुर में शंकुन्तला को राजा दुष्यन्त के सम्मुख
प्रस्तुत करते समय कण्व के शिष्यों को हिमगिरि उपत्यका के अरण्यवासी कहा गया है-‘‘हिमगिरेरुपत्यकारण्य
वासिनः।
कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में अयोध्या के राजाओं का वर्णन अयोध्या
से नहीं अपितु गढ़वाल में गंगा तट पर स्थित कण्वाश्रम से किया है । विक्रमोर्वशीयम
नाटक की शुरुआत भी गढ़वाल हिमालय में बदरिकाश्रम के निकट गंधमादन और हेमकूट
पर्वतों से किया है । विक्रमोर्वशीयम का चौथा अंक राजा पुरुरुवा का उर्वशी के साथ
मन्दाकिनी के तट पर गंधमादन वन में क्रीड़ा करते हुए समाप्त होता है । पॉचवें अंक
में हिमालय और गंगा का स्मरण किया गया है-‘‘हिमवति
जलधौ च व्यस्ततोयेव गंगा‘‘ । रघुवंश में हिमालय के भोजपत्र, बांस-रिंगाल
के वन,गिरि गुफायें ,पथरीली घाटी, रात में चमकने
वाली जड़ी बूटी, कस्तूरी मृगों और सुगन्धित देवदारु वनो का
उल्लेख है।
चौथे सर्ग में हिमालय नरेश के साथ रघु की सेना
के युद्ध के वर्णन में पर्वतीय सेना को पत्थर बरसाते हुए चित्रित किया गया है । गढ़वाल
52 गढों का समन्वित रूप है । ये गढ़ पर्वत शिखरों पर स्थित थे । इन
गढ़ों की स्थिति और यहॉ पत्थरों की बहुतायत इस युद्ध की स्थली को गढ़वाल होना
सिद्ध करती है । डॉ ल0द0जोशी ने अपने शोधग्रंथ खस फेमिली लौ
में लिखा है-‘‘ Fighting with stones was well known in these hills. The folklore
mentions such warfare and we find relics of by gone days in stones heaps at
hill tops.
कालिदास के ग्रंथों में वर्णित जड़ीबूटियां गढ़वाल में आज भी पाई जाती हैं । इनका
उपयोग प्राचीन काल से आज तक किया जाता रहा है।
कालिदास के साहित्य में गढ़वाल हिमालय
का विशद और प्रामाणिक वर्णन श्री भजन सिंह ‘सिंह‘ ने अपने लघु शोधप्रबन्ध ‘कालिदास
के ग्रंथों में गढ़वाल हिमालय‘ में किया है जोकि डॉ यशवन्त सिंह कठोच
द्वारा सम्पादित ‘सिंह भारती‘ में
प्रकाशित है। ‘प्रकृति वैभव का आगार गढ़वाल हिमालय‘
उपशीर्षक में श्री भजन सिंह‘सिंह‘
लिखते हैं-‘‘कालिदास की रचनाओं में स्थान-स्थान पर
गढ़वाल की प्रकृति के जीव-जन्तुओं तथा वन उपवनो के रमणीय चित्र चित्रित हैं । हिमालय
के इस प्रकृति वर्णन में कुछ विद्वानो को कश्मीर का भान होता है किन्तु कश्मीर
हिमालय और कालिदास वर्णित हिमालय में जो अन्य तथ्य अंकित हैं वे सम्पूर्णतः कश्मीर
पर नहीं अपितु गढ़वाल हिमालय पर लागू होते हैं।‘‘
इसी प्रकार डॉ हरिदत्त भट्ट ‘‘शैलेश‘‘,
डॉ शिवानन्द नौटियाल, चैतराम
भट्ट आदि साहित्यकारों ने अपने विभिन्न आलेखों में कालिदास के साहित्य में गढ़वाल
हिमालय का विशद वर्णन किया है।
-------
साहित्य प्रभा , अप्रैल – जून
२०१४ , महाकवि कालिदास के साहित्य में गढ़वाल हिमालय का परिवेश, शोध आलेख द्वारा
डॉ. उमेश चमोला , सम्पादक – डॉ,. चन्द्र सिंह तोमर’मयंक’ आमवाला, डाकघर –तपोवन.,
नालापानी देहरादून , उत्तराखंड से साभार |
शोध पत्र -
४-
चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की कविताओं में विभिन्न युगीन प्रवृत्तियाँ
-----डॉ. उमेश चमोला
चन्द्रकुँवर
बर्त्वाल का जन्म 20 अगस्त 1919 को
उत्तराखण्ड के जनपद रुद्रप्रयाग में स्थित मालकोटी नामक गांव में हुआ था। क्षय रोग
से ग्रस्त होने के कारण अट्ठाईस वर्ष की अल्पायु में 14 सितम्बर
1947 को वे इस असार संसार से विदा हो गए ।
जीवन के इस अल्पकाल में क्षय रोग से संघर्ष करते
हुए भी उन्होंने हिन्दी साहित्य को अनमोल विरासत सौंपी है। उन्होंने कहानी, बालकहानी, संस्मरण, व्यंग्य
लेख तथा निबन्ध लिखे । उनके काव्य संग्रहों में नन्दिनी, गीत
माधवी, पयस्विनी, जीतू, प्रणयिनी
आदि प्रमुख हैं । गद्य साहित्य की तुलना में उन्हें अधिक प्रसिद्धि काव्य रचनाओं
से मिली ।
चन्द्रकुंवर बर्त्वाल को मूलतः छायावादी
काव्य-चेतना का समर्थ कवि माना जाता है । उन्होंने अपनी कविताओं में हिमालयी
प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य का चित्रण किया है । डॉ गंगा प्रसाद विमल के शब्दों
में-‘‘कवि की चित्ती(अंतस्तल) में सर्जना की प्रमुख संवाहिका के रूप में
प्रकृति जितनी मार्मिक प्रभावोत्पादक भूमिका निभाती है। इसके दृष्टांत के रूप में
चन्द्रकुंवर बर्त्वाल को लिया जा सकता है।‘‘
डॉ मुनिराम सकलानी चन्द्रकुँवर बर्त्वाल को किसी
वाद विशेष में आबद्ध कवि नहीं मानते। वे लिखते हैं- ‘‘भले ही
चन्द्रकुँवर बर्त्वाल को किसी वाद विशेष
में आबद्ध नहीं किया जा सकता है किन्तु ‘फटे बांस का
लट्ठ‘ जैसी प्रगतिशील और जनाक्रोशी रचना करने
वाला कवि एक ओर तो फूलों के छायावाद को
बरबाद करने की बात करता है दूसरी ओर छायावाद से अनुप्राणित और दुखवाद से आप्लावित
रचनाएं भी प्रस्तुत करता है। ‘‘डॉ उमाशंकर सतीश ‘इतने
फूल खिले‘ पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं- ‘‘चन्द्रकुँवर
बर्त्वाल ने छायावाद और प्रगतिवाद का सारतत्व तो ग्रहण किया किन्तु छायावादी कवि
बनने से वे बाल-बाल बच गए।‘‘ चन्द्रकुँवर
बर्त्वाल की कविता-
‘लगी
दीखने आज हिमालय की बर्फानी रजत चोटियां,
बादल आज देखते ही रह गए, बर्फ से भरी घाटियां‘
के बारे में प्रोफेसर शेर सिंह बिष्ट का यह कथन
उल्लेखनीय है- ‘‘उनकी इस कविता का शब्दविधान न तो पूर्णतः
छायावादी है और न छायावादेत्तर । वरन दोनो का मिश्रण इसमें देखा जा सकता है । इस
कविता की पहली दो पंक्तियों को दिनकर की कविता शैली की तरह देखा जा सकता है जबकि
अन्तिम दो पंक्तियों को प्रसाद की काव्य शैली की तरह ।‘‘
कविवर चन्द्रकुँवर बर्त्वाल समतामूलक सामाजिक
व्यवस्था के पक्षधर हैं । कविता ‘आओ हे नवीन युग, आओ
हे सखा शान्ति के‘ में वे
एक ही ईश्वर द्वारा निर्मित दुनियां में सबके प्रगति की कामना करते हैं । प्रकृति
के सौन्दर्य का चित्रण करने में सिद्धहस्त इस कवि का ध्यान उपेक्षित कंकड़-पत्थरों
की ओर भी जाता है । कंकड़-पत्थरों के प्रतीकात्मक रूप का प्रयोग कर वे
राजाओं-उमरावों और पूंजीपतियों को चेताने
से नहीं चूकते-
‘‘राजाओं,उमरावों
के पाँवों से घृणा है इन्हें,
मजदूरों के पाँवों को धरते वे अपने सिर पर,
इन्हें देख डरते हैं सेठानी जी के चप्पल,
राहों में पड़े हुए धूल भरे ये कंकड़ पत्थर।‘’
इतना ही नहीं समाज का शोषण करने वालों को वे इस
कविता में शोषित वर्ग द्वारा विद्रोह किए जाने की भयावहता के प्रति आगाह करते हुए
कहते हैं‘‘ ‘‘भूल से
इन्हें छू ले यदि कभी किसी राजा के पाँव,
तो ये
उनके तलवे काटकर दें उसे खून से तर‘‘।
इस
कविता को शोषित वर्ग के स्वाभिमान को जगाने वाली कविता भी कहा जा सकता है ।
‘मेरे
धर्म मुझे अब तुम उदार होने दो’ कविता में
वे हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई
आदि के बीच धर्म के नाम पर खिंची रेखा को मिटाना चाहते हैं । इसी प्रकार ‘सवर्णों
के प्रति‘ कविता में वे सवर्णों का
अस्पृश्यता को त्यागने का आह्वान करते हैं।
प्रभातकालीन सौन्दर्य का चित्रण बर्त्वाल इस प्रकार करते हैं-
‘‘सूरज ने
सोने का हल ले, चीरा नीलम का आसमान,
किरणो ने कोमल हँस असंख्य, बोए प्रकाश के पीत गान‘‘।
इन पंक्तियों में कवि ने प्राकृतिक सौन्दर्य का
चित्रण सर्वथा नए रूपकों का प्रयोग कर किया है। इन पंक्तियों पर डॉ लक्ष्मण सिंह
बटरोही का विचार उल्लेखनीय है- ‘‘सारी पृथ्वी में सबसे शक्तिशाली देवता
के रूप में पूजे जाने वाले सूर्य को चन्द्रकुँवर बर्त्वाल ने एक मेहनतकश हलवाहे के
रूप में चित्रित किया है जो हिन्दी में पहली बार हुआ है। संसार के सबसे शक्तिशाली
देवता को उस समय हलवाहा कहना क्या दुस्साहस नहीं है जहाँ सवर्णों के द्वारा हल छूने से ही उन्हें जाति से
बाहर कर दिया जाता है । ‘‘
चन्द्रकुँवर बर्त्वाल ने अपनी कविताओं में सामाजिक विद्रूपताओं की खुलकर
खिल्ली उड़ाई है। ‘रावण दहन‘ कविता
में समाज के दोगलेपन का मजाक वे कुछ ऐसे उड़ाते हैं-
‘‘मेरा
अपमान कर रहे जो, उनके दस क्या सौ होंगे मुँह,
पर
सदा रहेगा एक गधा, उनके ऊपर करता शासन‘‘।
वर्तमान समय में भी यथार्थ की जमीन पर खड़ी यह
कविता उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कवि द्वारा कविता सृजन के काल में।
लार्ड मैकाले की शिक्षा पर आधारित व्यवस्था को
चित्रित करती उस समय लिखी उनकी कविता हमें
आज भी हमें अपने इर्द-गिर्द यथार्थ के रूप में दिखाई देती है-
‘मेड इन
जापान खिलौनो से सस्ते हैं
लार्ड मैकाले के ये नए खिलौने,
इनको ले लो अंग्रेजी खूब बोलते ये।‘
एक कविता में उन्होंने पण्डित जी और मुल्ला जी
के संस्कृत और उर्दू के स्वर्ग में बोले जाने के प्रश्न पर छिड़े विवाद को दिखाया
है । अन्त में मुल्लाजी ने पण्डितजी की चोटी पकड़ी और पण्डित जी ने मुल्ला की
दाड़ी । इस कविता को पढ़ने से व्यंग्य के साथ-साथ होंठों पर हंसी भी छूट जाती है ।
इसी प्रकार समाज में व्याप्त अंधविश्वासों पर वे इन पंक्तियों में व्यंग्य करते
हैं-
‘‘मछलियां
सिफारिश करेंगी गंगा जी से,
तब तो
फिर क्या वे किसी द्वार से
चाहेंगे, पहुंचेगे स्वर्ग लोक में‘‘।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है । हम इस परिवर्तन की धारा में बहते तो हैं
किन्तु यह विश्लेषण करना नहीं चाहते कि परिवर्तन की आंधी में हमने किन मूल्यों को
खोया है ? इस
आशय का भाव उनकी कविता ‘जमाना‘ में स्पष्ट होता
है।
इस
प्रकार चन्द्रकुँवर बर्त्वाल की कविताओं को किसी युग विशेष की प्रवृत्तियों से
नहीं बांधा जा सकता है । उनकी भावधारा और काव्यगत शैली स्वच्छन्द है । केदारनाथ
सिंह के शब्दों में-‘‘उनकी कविताओं के अनेक लय हैं। एक तो गीतपरक
कविताओं के कोमल स्वर वाला रूप है दूसरा वह रूप है जो यथार्थ की सख्त जमीन पर खड़ा
हुआ हुआ है।‘‘ डॉ
उमाशंकर सतीश चन्द्रकुँवर की रचनाओं में छायावादेत्तर काव्य चेतना और भारतीय
चिन्तन की काव्यधारा की अभिव्यक्ति को मानते हैं।
सन्दर्भ संकेत-1-सकलानी, डॉ
मुनिराम, केदारमानस, त्रैमासिक
शोध पत्रिका,
संपादकीय में। डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल हिन्दी अकादमी
उत्तराखण्ड,देहरादून।
2-पाठक
शेखर, संपादक ‘इतने फूल खिले‘पहाड़
पोथी प्रकाशन
नैनीताल,उत्तराखण्ड।
3-बिष्ट,प्रोफेसर
शेर सिंह। चन्द्रकुँवर बर्त्वाल की कविताएंःभाव बोध
के स्तर केदारमानस, त्रैमासिक
शोध पत्रिका में। डॉ पीताम्बर
दत्त बड़थ्वाल, हिन्दी
अकादमी उत्तराखण्ड,देहरादून।
4-बटरोही, डॉ
लक्ष्मण सिंह, महाकाल के शिखर पर
कालीदास: चन्द्रकुँवर बर्त्वाल।
केदारमानस, त्रैमासिक
शोध
पत्रिका, में। डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल हिन्दी अकादमी
उत्तराखण्ड,देहरादून।
शोध पत्र -
५-
महाकवि कालिदास के साहित्य
में वनस्पति विज्ञान
-----डॉ. उमेश चमोला
महाकवि कालिदास रचित साहित्य के विविध आयाम हैं
| कालिदास के साहित्य में प्रकृति अनेक रूपों में बोलती है | मानव स्वभाव से
जिज्ञासु रहा है | वह प्रकृति में घटित
घटनाओं का आनंद लेता रहा है | साथ ही इन
घटनाओं के कारणों का क्रमबद्ध, व्यवस्थित , प्रयोग आधारित एवं परीक्षित अध्ययन भी
करता है | यही अध्ययन विज्ञान कहलाता है | जब हम यह अध्ययन वनस्पतियों के सन्दर्भ में करते
हैं तो इसे वनस्पति विज्ञान नाम दिया जाता है | वनस्पति विज्ञान के अंतर्गत हम
वनस्पतियों का वैज्ञानिक अध्ययन अपनी जिज्ञासा को शांत करने तथा ज्ञानार्जन करने
के लिए करते हैं | इसके अलावा मानव जीवन के कल्याण के लिए भी वनस्पतियों का अध्ययन
करते हैं |
वनस्पति विज्ञान, विज्ञान की अन्य शाखाओं की भांति क्रिया – कारण सिद्धांत
पर आधारित है | इसके अनुसार किसी घटना के पीछे कोई न कोई तर्कसम्मत कारण अवश्य
होता है | क्या ? क्यों ? किस प्रकार ? आदि प्रश्न वैज्ञानिकता को आधार प्रदान
करते हैं | अवलोकन, निरीक्षण, वर्गीकरण ( समानता और असमानता के आधार पर वस्तुओं और
जीवों में भेद करना ), प्रयोगीकरण, तार्किक चिंतन करना आदि विज्ञान से सम्बंधित
कौशलों में सम्मिलित किए जाते हैं |
विज्ञान और साहित्य की प्रकृति अलग – अलग है | जहाँ साहित्य वैयक्तिक
अनुभूति, भावोद्गार और कल्पना पर आधारित होता है वहीं विज्ञान प्रयोग आधारित सत्य
पर बल देता है | इस प्रकार साहित्य अपनी किसी भी विधा में पूर्ण रूप से
वैज्ञानिकता का निर्वहन करे यह संभव नहीं है | महाकवि कालिदास रचित साहित्य पर भी
यह बात लागू होती है | कालिदास रचित
साहित्य मेघदूत, अभिज्ञान शाकुंतलम, कुमार संभव, रघुवंश, ऋतु संहार आदि में
वनस्पति विज्ञान से सम्बंधित संबोंध यत्र – तत्र देखे जा सकते हैं |
मेघदूत का उत्तरमेघ पूर्ण रूप से अलकापुरी के मनोरम चित्रों से ओत प्रोत है
| मेघदूत का शब्द चित्रकार पर्वतीय प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षक है | पूर्वमेघ में
भी तिरेपनवें श्लोक से आगे सत्र की समाप्ति तक पर्वतीय प्रकृति का यह सूक्ष्म
निरीक्षक कनखल से ऊपर हिमालय के निवासियों, ग्राम बंधुओं , किन्नरों तथा वन पशुओं
के साथ – साथ तरु लताओं का भी शब्दचित्र खींचता है | “ आसीनानाम सुरभितशिलम नाभिगंधे मृगाणाम
“ – अर्थात हिमालय में
कस्तूरी मृगों के बैठने से शिलाएँ महकती थी – कवि का अवलोकन पर आधारित यह
प्रत्यक्ष ज्ञान कोरी कल्पना नहीं अपितु वैज्ञानिकता पर आधारित है | सात – आठ हजार
फुट की ऊँचाई पर फैले उत्तर गढ़वाल के देवदारु वृक्षों की रगड़ से आग लगने का वर्णन
और पीले बांसों में वायु भरने पर मधुर स्वर निकलने का वर्णन कवि के सूक्ष्म अवलोकन
, प्रत्यक्षीकरण एवं वैज्ञानिकता पर आधारित है | उत्तरमेघ में यज्ञ द्वारा मेघों
को मंदाकिनी के तट पर कल्पवृक्षों की छाया में बैठकर तपन मिटाती हुई यक्ष कन्याओं
के पास भेजना , उन्हें मानसरोवर का जल पीने तथा कल्पवृक्षों के कोमल पत्तों को
हिलाकर कैलाश पर्वत पर घूमने को कहना पादप पारिस्थितिकी के अंतर्गत जैविक ( यक्ष
कन्यायें और कल्प वृक्ष ) तथा अजैविक ( मेघ और जल ) के अन्योन्याश्रित संबंधों पर
प्रकाश डालता है |
कुमार संभव में वर्णन आता है – “ वहाँ गुफाओं
में रात को चमकने वाली जडी बूटियां बहुत होती हैं | ये जड़ी बूटियां किरात और उनकी
प्रियतमाओं के प्रेमालाप के समय बिना तेल के दीपक बन जाती हैं |’’ यह कल्पना प्रधान काव्य की अतिशयोक्तिपूर्ण
अलंकारिक पंक्ति नहीं अपितु स्फुर्दीप्ति नामक जैव रासायनिक वैज्ञानिक घटना से
प्रेरित जड़ी बूटियों की विशेषता पर आधारित वैज्ञानिक कथन है | हिमालय के पर्वत
निर्झरों पर दिन के समय सूर्य की किरणों के पड़ने से इंद्र धनुष का चमकना और दिन
ढलने पर दृष्टिगोचर न होना प्रकाशीय वैज्ञानिक घटना वर्ण विक्षेपण को प्रदर्शित कर
रहा है |
“कुल्याम्भोभि
प्रसृति चपले: शाखिनोधौतमूलाम”
अर्थात पानी की गूलों से वृक्षों की सफ़ेद जड़ें धुली हुई लग रही थी – अभिज्ञान
शाकुंतलम की ये पंक्तियाँ भी पादप पारिस्थितिक तंत्र को दर्शा रही है | अभिज्ञान
शाकुंतलम में वर्णित ऋषियों का अन्न नीवार और श्यामक ( झंगोरा और कोदा ) आज भी
गढ़वाल का प्रमुख खाद्यान्न है | यह वनस्पति विज्ञान के अंतर्गत आर्थिक वनस्पति
विज्ञान से समानता दिखा रहा है | इसी प्रकार शकुन्तला का अपने कंधे पर गांठ देकर
भ्युंल तथा भांग की छाल से बने स्थानीय परिधान त्युंखे का पहनना इथेनोबोटनी (
जिसमे पारंपरिक प्रचलित तरीकों एवं वनस्पतियों का उपयोग किया जाता है से जुडा प्रसंग है | महाकवि कालिदास वाशिष्ठ
आश्रम की मनोहर प्रकृति का वर्णन इस प्रकार करते हैं – “वहाँ हिमालय पर्वत के निर्झरों की
ठण्डी फुहारों से लदा हुआ और मंद – मंद कम्पित वृक्षों के पुष्प गंध में बसा हुआ
पवन बहता है | “
यह दृश्य हिमालय की स्वच्छ पारिस्थितिकी
को दिखा रहा है |
कालिदास कृत ग्रंथों में अर्जुन, अग्निमंथ,अशोक, रुद्राक्ष, माधवी लता,
अगरू, इलायची, कदम्ब, केला, अमलताश, पीत चन्दन, पलाश, इंगुदी, इन्दीवर (नील कमल ),
काश, केशर, बुरांस, कुटज, चमेली, कुमुद, केतकी,कचनार, बांस, बेर, खजूर, चन्दन,
गुड़हल, जामुन , तेजपात, पान, इमली, दर्भ, दूब, देवदारु, नारियल, कमल गट्टा,
चिरौंजी, सुपारी, कंदूरी, भोजपत्र, महुआ , मालती , मोथा , जूही, रक्त पलाश, लोथ,
जलवेतस आदि औषधीय पादपों का उल्लेख मिलता है | इनका औषधीय उपयोग प्राचीन काल से आज
तक किया जाता रहा है |
सन्दर्भ संकेत -
१- कठोच,
डॉ. यशवंत सिंह, सिंह भारती, भागीरथी प्रकाशन गृह टिहरी , उत्तराखंड |
२- उनियाल,
डॉ. माया राम , - संस्कृत साहित्य में पर्यावरण एवं कालिदास की वनस्पतियाँ, श्री
राम आयुर्वेद मंदिर दतिया मध्य प्रदेश |
साहित्य प्रभा , अप्रैल – जून २०१३ , महाकवि कालिदास के साहित्य में
वनस्पति विज्ञान – शोध आलेख द्वारा डॉ. उमेश चमोला, सम्पादक – डॉ,. चन्द्र सिंह
तोमर’मयंक’ आमवाला, डाकघर –तपोवन., नालापानी देहरादून , उत्तराखंड से साभार |
शोध पत्र -
६- रवीन्द्रनाथ टैगोर के साहित्य के विविध पक्ष
-----डॉ. उमेश चमोला
विश्व साहित्य को गीतांजलि जैसी अमर कृति देने
वाले गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को बचपन में प्यार से सभी रवि का नाम से पुकारते
थे | उस समय किसे पता था कि यह विलक्षण बालक साहित्य आकाश में चमक कर अपना नाम
सार्थक करेगा |
रवींद्रनाथ टैगोर ने बारह – तेरह वर्ष से ही
कविता लिखना शुरू कर दिया था | उनकी प्रारम्भिक कविताओं में ‘वनफूल’ कविता
पद्यबद्ध कहानी के रूप में लिखी गई थी | वैष्णव पदावली से प्रेरित होकर उन्होंने
‘भानु सिंहर पदावली’ लिखी | बाल्यावस्था में ही उन्होंने ‘ब्रह्म संगीत’ की रचना
की | इसकी प्रमुख पंक्तियाँ इस प्रकार थी – ‘’नयन तोमारे, पाय न देखिते,
रयेछ
नयने –नयने |’’ अर्थात् आँख तुमको देख न पाती बसे हुए हो तुम आँखों में
|
जब रवीन्द्र
सत्रह वर्ष के हुए तो उन्हें अध्ययन के लिए बड़े भाई सत्येन्द्र के साथ
इंग्लैंड भेजा गया | वहां रहकर उन्होंने ‘भग्न
ह्रदय’ काव्य का सृजन किया | लन्दन से उनके द्वारा भेजी गई चिट्ठियाँ योरोप
प्रवासीय पत्र में प्रकाशित हुई | इसके बाद उन्होंने ‘बाल्मीकि प्रतिभा’ गीत नाट्य
लिखा | इस गीत नाट्य में बाल्मीकि के राम नाम के जाप से ह्रदय परिवर्तन होने तथा
महाकवि बनने तक सरस चित्रण है | गीत नाट्यों के साथ ही उन्होंने अन्य विभिन्न
नाट्यों की भी रचना की | ‘सांध्य गीत’ और ‘प्रभात संगीत’ उनकी गीत रचनाओं का
संग्रह है | रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बाल साहित्य पर आधारित रचनाओं द्वारा भी विश्व
साहित्य को समृद्ध किया | उनकी ‘निरझरेर
स्वप्न भंग’ कविता बहुत चर्चित रही | इस कविता में सूरज की गर्मी पाकर हिमाच्छादित
चोटियों से बर्फ पिघलने और इससे जल पाकर झरझराते झरने के आह्लादित होने का सजीव
वर्णन है | ‘विष्टि पड़े टुपुर’ बच्चों के लिए लिखी उनकी पहली कविता मानी जाती है |
‘शिशु भोलानाथ’ उनका शिशु गीत आधारित रचना
संग्रह कहा जा सकता है | ‘कडि ओ कोमल’ ‘प्रभात संगीत’ ‘छवि ओगान’ एवं ‘मानसी’ उनकी
1886 से 1890 तक रचित काव्य रचनाएँ हैं | इन रचनाओं
में उनका प्रबुद्ध कवि रूप सामने आता है | 1894 में
रचित उनकी कविता ‘सोनारतरी’ में आध्यात्मिकता और परमसत्ता के प्रति प्रेम की असीम भावना महसूस की जा सकती
है | 1894 में ही रचित चित्रा
और 1910 में रचित ‘गीतांजलि’
साहित्य एवं अध्यात्म की श्रेष्ठ रचना कही जा सकती है | इसमें अलौकिकता को नया
आयाम प्रदान किया गया है |
रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले अपनी पारिवारिक पत्रिका
‘भारती’ के लिए लिखते रहे | फिर उन्होंने
नई पत्रिका ‘बालक के लिए’ में शिशु गीत, कविता, कहानी, नाटक और लघु उपन्यास लिखना
शुरू किया | ‘करुणा’, चोखेरवाली’ ‘शेष लेखा’ ‘नटीर पूजा’ और ‘यार्दोत्सव’ उनकी
प्रसिद्द रचनाएँ हैं | सात अगस्त 1941 को
रक्षा बंधन के दिन वे इस संसार से विदा होकर उस अव्यक्त सत्ता से मिलन हेतु
महाप्रयाण कर गए | उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था | मृत्यु से पहले
उन्होंने इस गीत की रचना की और इच्छा प्रकट की कि उनकी मृत्यु पर इसे गाया जाए –
‘सम्मुख
शांति पारावार
भाषाओ
तरणी हे कर्णधार ‘’| ( सामने शांति पारावार, खोल दो नैया हे कर्णधार) |
गुरुदेव
का बहुआयामी व्यक्तित्व उनकी रचनाओं में झलकता है | कविता, चित्रकला, संगीत,
उपन्यास, कहानी, नाटक, गल्प लेखन, निबंध एवं संस्मरण सामाजिक – राजनीतिक और
दार्शनिक पक्षों पर आधारित हैं | उनकी पुस्तक ‘मेरा बचपन’ से पाठक उनके बचपन के
रोचक संस्मरणों से परिचित होते हैं | चैत्र – बैसाख के महीने फेरी लगाने वालों
द्वारा कुल्फी का बर्फ ( वर्तमान में आइस क्रीम ) बेचना, बंगाल में एक प्रकार के
नाटक का प्रस्तुतीकरण और शौकिया यात्रा को बच्चों द्वारा देर रात चोरी छिपकर देखना
तथा भूत और डाकुओं की कहानी सुनने से जुडी रोचक घटनाएँ हमें उनके बचपन की यादों से
जोडती हैं |
‘राजा
का महल’, ‘मेंह बरसता टपर टुपुर’, ‘रात अँधेरी क्या हुई’, नाम उसका मोती झील,
‘फूल’, छोटी सी हमारी नदी, उनकी बाल कवितायेँ हैं | ये बाल सुलभ मन के उदगार हैं |
बाल साहित्य की महत्वपूर्ण विधा लोरी को वे साहित्य सीखने की पहली विधा मानते हैं
जो जीवन भर बच्चों के मन को मोहित किए रहती हैं | बाल कहानी ‘तोता’ शिक्षा और
शिक्षार्थी के सम्बन्ध को दर्शाती है | शिक्षा के साधनों पर ही ध्यान केन्द्रित करना और
शिक्षार्थी को न समझे जाने की तत्कालीन शैक्षिक व्यवस्था पर यह कहानी चोट करती है
| उस समय रची गई यह कहानी वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था पर भी लागू होती है | ‘छात्र
की परीक्षा’ नाटक पारंपरिक जड़ता से ग्रस्त शिक्षण व्यवस्था पर क़रारा व्यंग्य है | नाटक
के अंत में प्राप्त सन्देश – गधे को पीटकर घोडा नहीं बनाया जा सकता पर घोडा पिटते –
पिटते गधा बन जाता है | यह शारीरिक दंड आधारित शिक्षा व्यवस्था में बदलाव कि
आवश्यकता पर बल देता है | ‘भानु सिंह की पत्रावली की तीसरी चिट्ठी’ और अब्दुल
मांझी की गप’ बाल सुलभ चेष्टाओं को चित्रित करती है | ‘बिरछा बाबा’ नाट्य रचना
अंधविश्वासों पर व्यंग्य करती है | बाल उपन्यास ‘राजर्षि’ जिसे बाद में ‘विसर्जन’
नाटक के रूप में परिवर्तित किया गया , में पशुबलि प्रथा का विरोध किया गया है |
बाल साहित्य के इतर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अन्य
कहानियां भी लिखी | ‘दृष्टिदान’, ‘क्षुदित पाषाण’, ‘महा माया’, ‘कंकाल’, ‘भिखारन’,
‘पात्र और पात्री’, ‘पोस्ट मास्टर’, ‘कवि का ह्रदय,’ ‘गूंगी’, ‘प्रेम का मूल्य’,
‘अपरिचिता’, ‘दुल्हन’, ‘दीदी’, ‘एक
रात’, ‘संजो,’ ‘लल्ला बाबू की वापसी’, ‘समाज का शिकार’, ‘दृष्टिदान’, ‘कंगाल,’ ‘नई
रोशनी ‘, ‘हालदार,’ ‘परिवार’, ‘अनाधिकार प्रवेश’, ‘कवि और कविता’ उनकी प्रमुख
कहानियां हैं | इन कहानियों में तत्कालीन
सामजिक – राजनीतिक परिस्थिति, नारी की महानता और प्रेम का ह्रदयस्पर्शी चित्रण है
| ‘अंतिम प्यार’ कहानी चित्रकार के आदर्श, चित्रकारिता हेतु समर्पण तथा उसके जीवन
में आये दुखों का सजीव चित्र खींचती है तो
‘कवि और कविता’ कवि की भावुकता तथा प्रेम
और समर्पण को दिखाती है | ‘कवि का ह्रदय’ कवि ह्रदय की असीम गहराई की भावात्मक
प्रस्तुति है | ‘पोस्ट मास्टर’ कहानी में बालिका रतन के डाकपाल से निश्छल प्रेम और
विछोह का मार्मिक वर्णन है | ‘सजा’ उस बहू
की कहानी है जो पति के लिए अपराधों को
अपने सिर लेती है | ‘नई रोशनी’
समाज में आये नकारात्मक बदलावों और स्त्री के पुरुष के प्रति समर्पण की
कहानी है | ‘अनाधिकार प्रवेश’ उस विधवा के जीवन पर आधारित कहानी है जो सब के लिए
क्रूर है | समर्पित है तो एक मंदिर के लिए | कहानी की अंतिम पंक्तियाँ व्यंग्य
विनोद शैली को व्यक्त करती हैं – ‘इससे सम्पूर्ण विश्व के सब देवता प्रसन्न हुए
लेकिन गाँव का समाज रूपी देवता अत्यंत क्रोधित हुआ |’
‘
अपरिचिता’ कहानी में तत्कालीन सामजिक परिस्थितियों , कन्या विवाह तथा कन्या के
पिता के स्वाभिमान को दिखाया गया है | ‘गूँगी’ एक गूँगी लडकी कि करुण कहानी है जिसके अन्त:करण की अव्यक्त पीड़ा को
ईश्वर के अलावा कोई सुन न सका और उसके पति ने दूसरा विवाह कर लिया | ‘एक रात’
कहानी सामाजिक बन्धनों में जकड़े सच्चे प्रेमी की तस्वीर को प्रस्तुत करती है तो
‘लल्ला बाबू की वापसी’ अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी है | यह एक स्वामिभक्त नौकर की
वफादारी और त्याग की कहानी है जो मालिक के बच्चे की मौत के बाद उसे अपना बच्चा
सौंप देता है |
इस प्रकार गुरुदेव के साहित्य में हमें जीवन के
विविध पक्षों के दर्शन होते हैं | उनके साहित्य में गहन पीड़ा के स्वर हैं , सरसता
है , सामाजिक व्यवस्था पर चोट है तथा समाज शब्दों के बीच मुखरित हो स्वयं बोलता है
| साथ ही अव्यक्त अलौकिक सत्ता से मिलन की उत्कट चाह भी है |
सन्दर्भ
संकेत -
१-
रवीन्द्र नाथ टैगोर की सर्वश्रेष्ठ
कहानियां, परिक्रमा प्रकाशन नई दिल्ली |
२-मेरा बचपन – रवीन्द्रनाथ टैगोर,
हिन्दी अनुवाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी, एक्सप्रेस बुक सर्विस दिल्ली |
साहित्य
प्रभा , अक्टूबर – दिसंबर २०१३ , रवीन्द्रनाथ टैगोर के साहित्य के विविध पक्ष,, शोध आलेख द्वारा डॉ. उमेश
चमोला, सम्पादक – डॉ,.
चन्द्र सिंह तोमर’मयंक’ आमवाला, डाकघर –तपोवन., नालापानी देहरादून , उत्तराखंड से
साभार |
शोध पत्र
७-प्रकृति के चतुर चितेरे कवि के रूप
में चन्द्रकुंवर
- डॉ. उमेश चमोला
‘‘हम मिस्टर बटन के इस कथन से पूर्ण सहमत
हैं कि मन्दाकिनी के स्रोत की ओर जिसने नागपुर के अविस्मरणीय तटवर्ती क्षेत्रों का
भ्रमण किया है वह उन्हें आजीवन नहीं भूल सकता। सर्वदा हिमाच्छादित शिखरों के
निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रकृति वैभव तो सर्वोत्कृष्ट है।’’
प्रसिद्व पर्यटक लेखक ’ वाल्टन की यह पंक्तियाँ नागपुर क्षेत्र
के प्रकृति वैभव का वर्णन करती है। प्रकृति के चितेरे कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की
जन्मस्थली भी यही क्षेत्र है। मालकोटी हो या उनका दूसरा गांव पंवालिया दोनों
प्रकृति की सुरम्य गोद में बसे हैं। कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल के संवेदनशील हृदय पर इसी प्रकृति ने सीधा
प्रभाव डाला। यही कारण है उन्होंने काव्य में प्रकृति के विविध शब्द चित्र खीचें
हैं।
हिमाच्छादित पहाड़ों के प्रति कवि
आत्मीय है। इस भावना को व्यक्त करती हुई कविता देखिएः ‘‘प्यारे समुद्र मैदान जिन्हें नित रहें, उन्हें वहीं हों प्यारे
मुझको तो हिम से भरे हुए, अपने पहाड़ ही प्यारे हैं।‘’
हिमालय की बर्फानी रजत चोटियों का शब्द
चित्र कवि इस प्रकार खींचता है:
‘‘लगी दीखने आज हिमालय की
बर्फानी रजत चोटियाँ
बादल आज देखते ही रह गए
बर्फ से भरी घाटियाँ’’।
हिमाच्छादित चोटियों से पिघलती हुई
हिमशिला का प्राकृतिक चित्र देखिए: -
‘‘रोवेगी रवि के चुम्बन से, अब सानन्द हिमानी,
फूट पडे़गी गिरि-गिरि के
उर की उन्मद वाणी’’।
कविता ‘हिमालय’ में कवि पहाड़ के शिखरों पर चन्द्रप्रभा के समान बिखरी पवित्रता को
अपने जीवन में लाना चाहता है तो वहीं ‘सन्तोष’ कविता में हिमगिरि में ही स्थित छोटे
से घर में आजीवन रहने की अपनी भावना यों व्यक्त करता है:-
‘‘हिमगिरि में छोटा सा घर हो, धूप सेकने को दिन भर हो,
एक सुखद आँगन हो जिसमें, बहती रहे हवा निर्दोष
मुझको इसी में सन्तोष’’।
कवि द्वारा हिमालय की प्रकृति पर लिखी
कविताओं में विविधता है। ’
डॉ. गोविन्द
चातक के शब्दों में:
‘‘ हिमालय पर लिखी इतनी अधिक कवितायें
किसी और कवि के नाम से नहीं मिलती। भावों का इतना वैविध्य भी अन्यत्र नहीं दिखता।
उन्होंने हिमालय को प्रातः,
सन्ध्या, चाँदनी वर्षा में विभिन्न छवियों में
चित्रित किया ही साथ ही कई सन्दर्भों में जीवंत व्यक्तित्व भी प्रदान किया है।’’
कवि पहाड़ एवं नदी के स्वभाव का चित्रण
इस प्रकार करता है:
‘‘हे गिरि! चाहे कितनी सुन्दर धानी हो,
कितने ही सुन्दर वन हों पुलिनों पर
चाहे कैसी ही छवि गुन्जन करती फूलों
में
पर न रूकी सरिता रहती अपने कूलों में’’
अविरल बहने वाली यह सरिता कवि की
दृष्टि में सृजन एवं उल्लास की उद्गात्री है तभी तो कवि कहता है ।
‘‘वह हिमगिरि के देवदारू बन में है विचरण
करती
नीरद कुंज बनाकर, वह शशि बदनी सी रहती
वह तट पर उल्लास, उछाल, छलक कर बहती
पत्थर में वह फूल खिला, फेनिल लहरें हँसती।
कवि का इस सरिता से जुड़ी हृदय की वेदना
की ओर ध्यान जाता है जिसे संसार पढ़ नहीं पाया -
‘‘आज सरिता के किनारे, बैठकर मै सुन रहा हूँ।
कह रही तट से निराशा भरी तटिनी
कहीं कितनी बार मैंने, निज हृदय की वेदना, विश्व में कोई न मेरी
वेदना को पढ़ सका’’।
कवि की कविताओं में मेघ विविध रूपों
में चित्रित हैं। मेघों के गरजने एवं वर्षा का सुन्दर दृश्य देखिए -
‘‘मेघ गरजा, घोर नभ में मेघ गरजा
गिरी वर्षा, प्रलय रव से गिरी वर्षा’’
इसी प्रकार
‘‘जिन पर मेघों के नयन झरे, वे सब के सब हो गए हरे’’।
वर्षा में बादलों के बीच गरजती हुई
विद्युत का कवि काल नागिनी के रूप में इस प्रकार चित्र खींचता है: -
‘‘बार-बार डंसती बादल को, ज्योतित करती अंधकार को,
अशनि तीक्ष्ण उद्दीप्त फनों को,
वह
प्रकाश की काल नागिनी।
मेघ पुंज में खेल रही है, एक ज्योति की काल नागिनी’’।
ग्राम्य जीवन से जुड़े उपमानों का सटीक
प्रयोग करते हुए कवि इसी स्थिति को दूसरे रूप में भी दिखाता है -
‘‘सुन घन गर्जन छितर दौड़ती, गो समूह सी बदली
ग्वाले की लकुटी सी, रह-रह चमक रही बिजली
असफल होकर क्रोध कर रही इधर-उधर
दौड़ती पवन घेर गगन वर्षा उजली’’ ।
‘‘ नभ में वर्षा ध्वनि छाई, उर में पावस ऋतु आई’’ -
कवि का यह भावोद्गार वर्षा के प्रति
गहरे जुड़ाव को प्रदर्शित करता है। कवि का बादलों के प्रति इतना अनुराग है प्रवास
में जब वह बादलों को बरसते हुए देखता है उसे अपनी मातृभूमि के बादल याद आ जाते
हैं।
‘‘ झर रहे होंगे वहाँ भी, मेघ लोचन’’।
कवि की बादलों के प्रति इतनी गहरी
आत्मीयता है कि उसे वर्षा में भी माँ के वात्सल्य स्वरूप के दर्शन होते हैं:
‘‘कितने प्रवास बाद भरे माँ के, नीर-क्षीर से भरे स्तन
कितने प्रवास बाद आज वर्षा माँ नभ में
छाई है।’’
कवि दूसरी कविता में पहाड की दृढता एवं
बादल की चपलता को इस प्रकार व्यक्त करता हैः
‘‘ गिरि हैं वैसे ही हरे-भरे
मैं ही बादल सा बदल गया’’
चन्द्रकुँवर बत्र्वाल की कविताओं में
मेघ और वर्षा के अनेक चित्रात्मक रूप देखे जा सकते हैं।’
डॉ.
गोविन्द चातक के शब्दों में -
‘‘ वर्षा उनकी सबसे प्रिय ऋतु है। उनकी
कविताओं में वर्षा के विशुद्व चित्र भी मिलते हैं और उद्दीप्त स्मृति के भावाद्र
चित्र भी। ‘तोड दिया बिजली ने बादल, कभी खींच खरतंर असिधारा, चीर रही वह कोमल बादल’’
जैसे कठोर बिम्ब कम ही है। वर्षा
सुन्दरी के नर्तन चुम्बन और मधु सिंचन के बिम्ब ही अधिक है। मेघों का नीलवसन पहनना, विद्युत के गहने धारण करना, पादपों का भादों का मेघ बन जाना, गगन में मेघों का तूर्य बुनना, उनका राजहंस सा स्वच्छ कलेवर धारण करना, देहहीन शोभन अनंग सा बन जाना और शाल
वृक्ष जलद यान का टिक जाना ही नहीं वरन मन्दाकिनी के जल में वरूण का लीला करना
उनके वर्षा सम्बन्धी अनुभवों को व्यक्त करता है।
कवि की ‘प्रभात’ कविता में पुष्प, भ्रमर पवन, तरू पल्लव आदि उपमानों का प्रयोग
दृष्टव्य हैः-
‘‘मुझे जगाना पुष्प बनाकर
इस सुखपूर्ण भुवन में,
मुझे उड़ाना भ्रमर बनाकर,
फिर इस मृदु मंद पवन में
खग-मृग, तरू पल्लव
जे कुछ भी बनकर फिर जागूं मैं
मुझे सदा रखना अपनी ही
कल किरणों के वन में
इसी प्रकार नील गगन में उदित सूर्य की
प्राकृतिक सुन्दरता की काव्यात्मक अभिव्यक्ति देखिए-
‘सूरज ने सोने का हल ले, चीरा नीलम का आसमान
किरणों ने कोमल हंस असंख्य, बोए प्रकाश के पीत गान
कवि के काव्य में फूल विविध रूपों में
सुगन्ध बिखेरते दृष्टिगत होते हैं। ‘आमंत्रण’ कविता में फूलों के देश का चित्र कवि
यों खींचता है
‘‘मेरे साथ-साथ आओ तुम, फूलों के देश में ले जाऊँगी मैं
जहाँ मनोहर झरने सदा नाचते रहते, घन छाया में’’
इसी प्रकार रैमासी के दिव्य फूलों का
चित्रण देखिए -
‘‘कैलाशों पर उगते रैमासी के दिव्य फूल
माँ गिरिजा दिन भर चुन, जिनसे भरती अपना दुकूल’’
फूलों के माध्यम से कवि जीवन की कटु
यथार्थता को इस प्रकार व्यक्त करता है:-
‘‘खिलते जैसे फूल स्वस्थ सुगठित वृक्षों
पर,
रूग्ण द्रुमों को किस प्रकार वे फूल
मिलेंगे’’
‘पतझड देख अरे मत रोओ, वह बसन्त के लिए मरा’
जैसे आशावादी स्वर देने वाला प्रकृति
का यह चितेरा कवि फूलों को नव सृजन एवं आशावाद के प्रतीक के रूप में चित्रित करता
हैः-
‘‘अब छाया में गुंजन होगा, वन में फूल खिलेंगे
दिशा-दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ
उठेंगे।
जीवन की नश्वरता के बीच शाश्वत आनन्द
का दार्शनिक स्वरूप कवि प्रकृति के उपमानों का प्रयोग करते हुए यों प्रकट करता है:
‘‘मै मर जाऊँगा, पर मेरे जीवन का आनन्द नहीं
झर जाएंगे पत्र, कुसम तरू, पर मधुर प्राण बसंत नहीं’’
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। कवि आशावादी है कि सुख शान्ति लेकर नवीन युग
बीते अशांति रूपी झरे हुए पत्रों से चलकर आएगा-
‘‘आओ! हे नवीन युग, आओ हे सखाशान्ति के
चलकर झरे हुए पत्रों पर गत अशान्ति के।
प्रकृति की गोद में पला, बड़ा, बसा हुआ यह कवि नदी, पर्वत, पेड़ और पौधों के गीत ही गुनगुनाना
चाहता है:-
‘‘आओ गाएँ छोटे गीत
पेड और पौधों के गीत
आओ गाएँ सुन्दर गीत
नदी और पर्वत के गीत।’’
इस प्रकार कवि चन्द्रकुँवर बत्र्वाल
प्रकृति के सफल शब्द चित्रकार हैं। ’ डॉ. हरिदत्त भट्ट ‘‘शैलेश’’ के शब्दों में -
‘‘काफलपाको’’ के अमर गायक हे,
हिमगिरि
के कविवर चन्द्रकुँवर,
प्रकृति के अति चतुर चितेरे, गीत रचे हैं कितने सुन्दर
तन मन मानस में रचा बसा, हिमालय किया तुमने जीवंत
कितने नवरंग भरे उसमें, अपनी कल्पना के कलावन्त’’।