कुछ बातें, कुछ यादें 7
पिताजी और व्यावहारिक शिक्षा
मेरे जीवन निर्माण में कई शिक्षकों का अविस्मरणीय योगदान रहा । मेरा सौभाग्य रहा कि मैंने प्राथमिक स्तर की शिक्षा माँजी और जूनियर तक की शिक्षा पिताजी के सानिध्य में ही प्राप्त की थी। तब पिताजी भीरी जिला रुद्रप्रयाग में कार्यरत थे। पिताजी अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत और गणित के जानकार शिक्षक के रूप में ख्याति प्राप्त थे। मुझे याद है पिताजी छुट्टी के दिन भी बच्चों को घण्टों निशुल्क पढ़ाते थे। भीरी में जहां हमारा निवास था वहां एक अतिरिक्त कमरा भी पिताजी ने अपने पास रखा था। इसमें बच्चे रात के समय भी पढ़ाई करते थे। उस समय इसे बसेरा आना कहते थे । उस समय यही प्रभावी उपचारात्मक /सुधारात्मक शिक्षण का तरीका था। जहांॅ तक मुझे याद है कि पिताजी ने कभी आकस्मिक अवकाश नहीं लिया था। विषय आधारित पढ़ाई के साथ ही पिताजी बच्चों को पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों में भाग लेने को प्रेरित करते थे। पिताजी सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ व्यावहारिक ज्ञान के पक्षधर थे। उनका मानना था कि जो शिक्षा बच्चों को स्वावलम्बी न बना पाए वह बेकार है। मैं कक्षा 7 में पढ़ता था। एक दिन पिताजी ने मुझे परात में आटा निकाल कर दिया और आटे को गूंथने की प्रक्रिया समझाई । उन्होंने कहा कि बताए गए तरीके से मुझे आटा गूंथना है। देखते ही देखते मैंने आटा गूंथना सीख लिया। इसी प्रकार उन्होंने मुझे रोटी बनाने के लिए कहा। शुरू - शुरू में तवे में गोल रोटी के स्थान पर बेडोल आकृतियां नक्शे जैसी बनी। बाद में मैं गोल और पतली रोटी बनाना सीख गया। पिताजी की प्रेरणा और सीख से मुझे कक्षा 7 में आटा गूंथना, रोटी,दाल, चौंसा, सब्जी और भात बनाना आ गया था। इसके साथ ही मैं बरतन साफ करना और कपड़े धोना भी सीख गया था। यही शिक्षा का व्यावहारिक पक्ष है। पिताजी की प्रेरणा से कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद एकीकृत परीक्षा में चयनित होकर मैं श्रीनगर चला गया। वहांॅ छात्रावास में बना बनाया खाना मिल जाता था । इण्टरमीडिएट उत्तीर्ण करने के बाद मैंने बिड़ला संघटक महाविद्यालय श्रीनगर में प्रवेश लिया । बी0एस-सी0, एम0 एस-सी0 आदि के समय पिताजी की दी गई व्यावहारिक शिक्षा मेरे बड़े काम आई । मुझे याद है कमरा आदि की व्यवस्था होने के बाद मैंने कभी होटल में खाना नहीं खाया। मुझे खाना बनाने में कभी आलस्य नहीं हुआ। कक्षा 8 आने तक पिताजी के शिक्षण और दिशा निर्देशन से हिन्दी के साथ -साथ मेरी अंग्रेजी भाषा पर भी पकड़ हो गई थी। यही कारण था जब एकीकृत परीक्षा से चयनित होकर मैंने रा0इ0का0 श्रीनगर में कक्षा 9 में प्रवेश लिया तो अंग्रेजी पृष्ठभूमि के सहपाठियों के साथ मुझे कभी असहज महसूस नहीं हुआ बल्कि मैं अंग्रेजी के गुरू जी का भी प्रिय बना रहा।
बचपन से ही हम पिताजी को कवितायें सुनाते हुए देखते थे। देखते ही देखते साहित्य का संस्कार हम में भी आ गया। मैं जब भी कोई कविता,कहानी या अन्य रचनाएं लिखता था तो पिताजी उस रचना के प्रथम पाठक होते थे। जहां रचना के प्रति माँ जी की प्रतिक्रिया में सत्यता के साथ ही ममता के कारण निष्पक्षता में कमी भी देखने को मिलती है वहीं पिताजी रचनाओं पर निष्पक्ष टिप्पणी करते थे और रचना के बारे में महत्वपूर्ण सुझाव भी देते थे। मैं भी कई बार पिताजी की कविताओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी करता था तो पिताजी सहज रूप से स्वीकार करते थे। पिताजी अपनी रचनाओं के प्रकाशन के प्रति लापरवाह थे। उनको अपनी कई कविताएंॅ याद थी । उन्होंने अपनी कविताओं को कई लोगों को सुनाया किन्तु पत्र-पत्रिकाओं में भेजने के प्रति उनकी रुचि कम थी। जो रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में छपी भी थी उनके संकलन के प्रति पिताजी उदासीन ही रहे । हमने मॉजी और पिताजी को बचपन से अध्यापन कर्म में देखा। माँजी और पिताजी की भी यही महत्वाकांक्षा थी कि उनके बच्चे शिक्षक बने। उन्होंने अपने शिक्षण कर्म से हमारे मन में शिक्षक के रूप में कॅरियर के प्रति ग्लैमर का भाव पैदा किया । मैं बचपन से ही शिक्षक बनने का स्वप्न देखा करता था। यह माँजी और पिताजी से प्राप्त संस्कारों के कारण ही हुआ। शिक्षक दिवस के अवसर पर सभी गुरुजनो को नमन । पूज्य पिताजी का श्रद्धा स्मरण ।
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