जंगल
से जुड़ी बचपन की कई यादें आज भी तरोताजा हैं। जंगल में जहां पर बहुत सारे सूखे
पत्ते बिखरे पड़े होते, वहां से कोई गुजरता तो वह उन पत्तों को एक जगह
पर जमा कर उनकी ढेरी बनाता । वह इस ढेरी के ऊपर एक पत्थर रखता । इसे खड़पत्या देवता कहा जाता । यदि उस व्यक्ति के
बाद कोई और उस रास्ते जाता तो वह खड़पत्या को श्रद्धा की दृष्टि से देखता । बात में
पता चला कि यह जंगल में आग को लगने से बचाने का एक तरीका है। अगर किसी ने जलती हुई
माचिस की तीली को जंगल में छोड़ दिया तो बिखरे हुए सूखे पत्तों से आगे जंगल के बहुत
बड़े भाग में फैल सकती है। उस समय बच्चों के लिए आज की तरह मनोरंजन के साधन नहीं
थे। इसलिए जब मवेशियों को चुगाने के लिए जंगल ले जाते तो बच्चे वहीं अपने मनोरंजन
के साधनो की ढूंढ़ खोज करते । जंगल में
कहीं पत्थर की चट्टान होती, उसमें ऊपर से बैठकर फिसलते हुए बच्चे
नीचे की ओर आ जाते । यह रड़ाघूसी का खेल कहलाता । आजकल शहरों में पार्कों में
रड़ाघूसी का आधुनिक वर्जन देखने को मिल जाता है। इसमें बच्चे ऊपर से फिसलकर नीचे की
ओर आ जाते हैं । लगातार रड़ाघूसी खेलने से
पैंट, हाफ पैंट या पाजामा का पीछे का हिस्सा फट जाता । जंगल में मनोरंजन के
लिए एक और साधन था । वह था चीड़ की लंबी टहनी लेकर कोई उसके पीछे के हिस्से में बैठ
जाए और दूसरा व्यक्ति उसे चीड़ की पत्तियों के ऊपर से खींचकर नीचे लाए । जंगल में अन्य पक्षियों के साथ
कफ्फू और घुघुती पक्षी की आवाजें गूंजती थी । हम अपने दो हाथों को आपस में मिलाकर
एक गुफा जैसा बनाते थे । फिर दोनो हाथों के अंगूठों के बीच की खाली जगह पर मुंह से हवा फूंकते तो घुघुती और कफ्फू की आवाजें
निकालते थे। जब कफ्फू पक्षी कफ्फू-
कफ्फू की आवाज निकालता तो उसके साथ -साथ
हम भी उसकी आवाज की नकल उतारते थे । तब वह और भी तेजी से कफ्फू- कफ्फू की आवाज निकालता था । उस समय नई ब्याही गाय के
दूध और आटे से जब हलवा बनाया जाता तो खाने से पहले स्थानीय देवता और वन देवता को
भोग लगाया जाता था। पूजा पाठ के अवसर पर भी वन देवता का नाम अवश्य पुकारा जाता ।
कभी- कभी रात के अंधेरे में घर से बहुत दूर डांडे के जंगल में आग लगने से तरह-तरह
की आकृतियां जैसे किसी देश का नक्शा आदि देखने को मिलती थी । गांव के जंगल में
वनाग्नि से जले हुए पेड़-पौधे दिखाई देते तो बहुत बुरा लगता था । जंगल से जुड़ी ये
यादें मस्तिष्क में तैरती रही । राजकीय इंटर कालेज लमगौण्डी में जब मुझे ईको क्लब
प्रभारी के रूप में कार्य करने का अवसर मिला तो मैंने जंगल से संबंधित विषयवस्तु
पर बच्चों के लिए कुछ नाटिकाएं, पर्यावरण संबंधी नारे, कविताएं
और कुछ लोकगीत शैली पर आधारित गीत लिखे। वर्ष 2006 में एक
दिन मैंने उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षा संस्थान अल्मोड़ा के निदेशक पद्म
श्री प्राप्त डाॅ. ललित पाण्डे जी से पर्यावरण आधारित अपनी रचनाओं का जिक्र किया ।
मैंने यह भी कहा कि मैं इन्हें पुस्तक का रूप देना चाहता हूं । वे उत्तराखण्ड सेवा
निधि से इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए तैयार हो गए । यह पुस्तक ‘पर्यावरण
शिक्षा पाठ्य सहगामी क्रियाकलाप‘ नाम से प्रकाशित हुई थी ।
वर्ष
2011 में पूना में आयोजित एक कार्यशाला में भ्रमण के लिए हमें गरुड़ामाची
नामक स्थान के निकट के जंगल में ले जाया गया । जानकारी प्राप्त हुई कि यह जंगल ‘देव
वन‘ काली माता को अर्पित वन है। जब लोगों को वन के संसाधनो की जरूरत होती है तो
काली माता की पूजा के बाद इसे उपयोग के लिए खोला जाता है। जब लगता है कि अब वन के पेड़-पौधों के संरक्षण
की आवश्यकता है तो इसे फिर से बंद कर दिया जाता है। काली माता के भय से कोई जंगल
के साधनो का प्रयोग नहीं करता है। ऐसे ही देववन की परंपरा उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़
जिले में भी है। तब मैंने तय किया कि ‘देव वन‘ की
थीम पर एक बाल नाटिका लिखी जानी चाहिए जिससे नई पीढ़ी को भी इन परंपराओं के बारे
में जानकारी मिल सके । देववन, खड़पत्या, बणद्यो
(वन देवता), जंगल की आग आदि विषयों पर मैंने गढ़वाली में बाल
नाटिकाएं लिखी। साथ ही झुमेलो गीत शैली पर
आधारित एक पर्यावरण गीत लिखा । फिर उस पर एक गीत नाटिका तैयार की । इन सबका संकलन
वर्ष 2018 में ‘बणद्यो
कि चिट्ठि‘ नाम से समय साक्ष्य देहरादून से प्रकाशित हुआ।
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