शनिवार, 25 जनवरी 2020

कुछ यादें , कुछ बातें 13





लेखन और  मेरे पत्रमित्र श्री मिट्ठन लाल अरोड़ा 
       जब मैं डिग्री कालेज में पढ़ता था तो अख़बारों में पत्र कालम के अंतर्गत अपने आलेख भेजता था | सप्ताह में कम से कम दो पत्र मेरे प्रमुख समाचार पत्रों में छपते ही रहते थे | इन पत्रों पर कई विद्वान पाठकों की प्रतिक्रिया पोस्ट कार्ड के माध्यम से  प्राप्त होती रहती थी  | वे मेरे पत्रमित्र बन गये थे | कुछ दिन पहले जब मैं अपने किताबों की आलमारी में एक किताब ढूढ   रहा था तो एक पुरानी किताब के अन्दर उस समय के कुछ मित्रों के भेजे पत्र मुझे
 मिले |  तो उन पत्रों को देखकर उन पत्रमित्रों की याद ताजा हो गई | इन पत्रमित्रों में से एक प्रमुख नाम था – मिट्ठन लाल अरोड़ा डिप्टी कलैक्टर सेवानिवृत्त जो मुजफ्फरनगर के रहने वाले थे | जब भी समाचार पत्र में प्रकाशित मेरा कोई पत्र उन्हें अच्छा लगता था तो वे पोस्टकार्ड में उसके बारे में लिखकर मुझे बधाई सन्देश भेजते रहते थे | इसके अलावा तीज त्यौहार और राष्ट्रीय पर्वों पर उनके शुभकामना सन्देश पोस्ट कार्ड के माध्यम से मुझे प्राप्त होते रहते थे | मैं भी उनके पत्रों का जवाब देता था | डिग्री कालेज में पढने के समय से शुरू हुई यह पत्रमित्रता राजकीय सेवा में आने तक भी चलती रही | मैंने अपनी पहली पुस्तक ‘राष्ट्रदीप्ति’ की स्क्रिप्ट  उनको भेजी थी | उन्होंने इस पर अपनी प्रतिक्रिया मुझे भेजी | मैंने इसे पुस्तक में स्थान दिया था | वर्ष २००४ में जब मैं लमगौन्डी (जिला रुद्रप्रयाग ) से नरेंद्रनगर आया तो सामान की शिफ्टिंग के कारण उनके भेजे पत्र इधर उधर हो गये | इसलिए श्री अरोड़ा जी से संपर्क टूट गया |   अब इतने वर्षो बाद मुझे उनके भेजे गये पत्र पुरानी किताब के अन्दर मिले तो उनकी याद ताजा हो गई | क्या पता फेसबुक के माध्यम से उनके बारे में पता चल पाए  और उनसे फिर से संपर्क हो जाए | इस आशा के साथ इस पोस्ट को साझा कर रहा हूँ |


शनिवार, 18 जनवरी 2020

drishti: कुछ बातें, कुछ यादें 12 ...

drishti: कुछ बातें, कुछ यादें 12 ...:       बचपन में पिताजी को कविता लिखते और, और लोगों को   सुनाते हम देखते रहते थे | इसलिए देखते ही देखते कविता के प्रति कब आकर्षण पैदा हो गय...

कुछ बातें, कुछ यादें 12 लेखन और बचपन के अनुभव


      बचपन में पिताजी को कविता लिखते और, और लोगों को  सुनाते हम देखते रहते थे | इसलिए देखते ही देखते कविता के प्रति कब आकर्षण पैदा हो गया , पता ही नहीं चला | माँजी लिखती नहीं थी किन्तु माँजी के पास गढवाली भाषा की लोकोक्ति, मुहावरे और शब्दों का अकूत भंडार है | इसलिए पिताजी से हमें लेखन का संस्कार मिला  और माँ जी से लोक में प्रचलित कहावतों, मुहावरों आदि  से परिचय | बचपन में न जाने कितनी लोककथाएं माता जी के श्री मुख से हमें सुनने को मिली थी |
   कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद मेरा चयन एकीकृत परीक्षा के जरिए आवासीय छात्रावास श्रीनगर के लिए हुआ | छात्रावास में अंग्रेजी और हिन्दी के  महत्वपूर्ण अखबार पढने को मिल जाते थे | इसके अलावा श्रीनगर में नंदन, चम्पक, पराग, चंदामामा, लोटपोट, मधु मुस्कान और प्राण के और अन्य कामिक्स हम बाजार से खरीदकर चोरी छिपकर पढ़ते थे | इससे पढने – लिखने के प्रति हमारी रूचि बढ़ती गई | बचपन से ही मेरी रूचि भाषण,वाद – विवाद और कविता पाठ में रही थी | जब मैं कक्षा 10 का विद्यार्थी था , एक बार हिन्दी सप्ताह के अंतर्गत विद्यालय में राष्ट्रभाषा से सम्बंधित  भाषण प्रतियोगिता  चल रही थी | मैंने भी इसमें भाग लिया था | मैंने अपने भाषण के बीच में श्री मैथिलीशरण गुप्त की कविता की यह पंक्तियाँ भी उद्धरित करने के लिए शामिल की थी – बिना राष्ट्रभाषा स्वराष्ट्र की गिरा आप गूंगी असमर्थ,
                    एक भारती बिना हमारी , भारतीयता का क्या अर्थ ?’’
मुझसे पहले सीनियर कक्षा के छात्र का नंबर आया | उसने अपने भाषण में इसी कविता की पंक्तियाँ कह दी| यह सुनकर  मुझे निराशा हुई कि उन्हीं पंक्तियों को मैं फिर कैसे दुहराऊँ? उस दिन मैंने मन में संकल्प किया कि मैं भाषण को अलंकारिक और रोचक बनाने के लिए स्वयं की लिखी कविताओं का प्रयोग करूँगा | इसके बाद मैंने जिस भी भाषण और वाद – विवाद प्रतियोगिता  में भाग लिया उसमें अपनी कविताओं का प्रयोग किया | इस प्रकार इन प्रतियोगिताओं के साथ कविता लिखने का अभ्यास भी शुरू हुआ  जो इंटर कालेज से शुरू होकर उच्च शिक्षा तक चलता रहा |
 जब हम कक्षा 11 में पढ़ते थे | प्रमोद कुकरेती और मेरा चयन वाद – विवाद प्रतियोगिता के लिए विकासखंड स्तर से जिला स्तर के लिए हुआ था | जिला स्तर पर यह कार्यक्रम बालिका इंटर कालेज श्रीनगर में हुआ | हमारे छात्रावास अधीक्षक डॉ० लक्ष्मी प्रसाद नैथानी सर ने मुझे गीता के श्लोक की पंक्तियाँ नोट कराई और कहा कि भाषण के बीच में इनका प्रयोग करना | मैंने इन पंक्तियों को याद करने का प्रयास किया | ये याद भी हो गई थी | मैंने सुविधा के लिए कागज के एक टुकड़े में लिखकर प्रतियोगिता में पढने के लिए अपने पास रखा | जैसे ही मैंने
कागज का वह टुकड़ा पोडियम पर पढने के लिए रखा और अपनी बात को पुष्ट करने के लिए कहा,
गीता में भी कहा गया है | वैसे ही वह कागज का टुकड़ा हवा से उड़कर एक निर्णायक की मेज पर  पहुँच गया | यह देखकर वह मुस्कराए | अचानक हुए इस घटनाक्रम से मेरा भाषण का प्रवाह कुछ पलों के लिए रुका किन्तु मैंने अपने को तुरंत संभालते हुए गीता के उस श्लोक का भाव हिन्दी में सुना दिया | हमारी टीम (प्रमोद कुकरेती और मैं ) ने प्रथम स्थान प्राप्त किया |
     बच्चों की लेखन क्षमता को उभारने में विद्यालय की पत्रिका की महत्वपूर्ण भूमिका होती है | राजकीय इंटर कालेज श्रीनगर में ‘वाणी’ वार्षिक पत्रिका का प्रकाशन किया जाता था | ;वाणी के संपादन का कार्य हिन्दी के गुरूजी डॉ. विष्णु दत्त कुकरेती करते थे | वाणी पत्रिका में मेरे दो आलेख ‘प्रतिकूलताएँ व्यक्तित्व निर्माण मे सहायक’ और ‘राष्ट्रीय एकता में बाधक राष्ट्रभाषा समस्या’ प्रकाशित हुए थे | एक लेखक के रूप में इनके प्रकाशित होने पर मुझे बहुत खुशी हुई थी | जब मैं कक्षा 11 का छात्र था डॉ. कुकरेती गुरूजी ने  ‘वाणी’ पत्रिका क छात्र सम्पादक के रूप में मेरा चयन किया था | इससे लेखन के प्रति मेरी रूचि और उत्साह बढ़ गया  |
    छात्रावास में शाम के समय एक दिन मैं अपने कमरे में अकेला था | मेरे कमरे की खिड़की से आसमान का एक छोर दिखाई देता था | उस छोर पर क्षितिज पर मैं सूर्यास्त के बाद की रंगीन आभा जिसे स्वीली घाम कहा जाता है , को देख रहा था | उस नयनाभिराम दृश्य को देखकर मेरे  मन में कविता की कुछ पंक्तियाँ आ रही थी | तभी मुझे छात्रावास अधीक्षक डॉ. नैथानी सर का स्वर सुनाई दिया, बेटा! प्रेयर का समय हो गया है | मैं तुम्हें पांच मिनट से आवाज दे रहा हूँ | तुम्हें सुनाई नहीं दिया | फिर कुछ रूककर बोले , बेटे ! तुम्हारे पिताजी शायद तुम्हें उतना नहीं जानते होंगे जितना मैं तुम्हें जान गया हूँ | तुम्हें अनुकूल परिस्थितियां मिल गई तो तुम अच्छे लेखक बन सकते हो |
     आज कुछ रचनात्मक शिक्षक दीवार पत्रिका के माध्यम से बच्चों की सृजनात्मक क्षमताओं को अभिव्यक्ति का मंच देने का सार्थक प्रयास कर रहे हैं | उस समय दीवार पत्रिका जैसा रचनात्मक मंच नहीं था | ऐसे में हम कभी – कभी विद्यालय के बोर्ड पर समाचारों के साथ – साथ कुछ सूक्तिपरक वाक्य खोजकर लिखते थे | एक बार शिवरात्रि के अवसर पर मैंने अपनी कविता बोर्ड पर लिखी थी | उसकी अंतिम पंक्तियाँ थीं – ‘ह्रदय से हटे तमस, यही हो भावना,
                                     यही शिवरात्रि की शुभकामना |’
इस कविता को पढ़कर डॉ. विष्णुदत्त कुकरेती सर ने मुझे बधाई दी | इस कविता के और क्या –क्या पक्ष हो सकते हैं ? उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया | इसके बाद मैंने इस कविता के दो – तीन पद्यांश और लिखे थे | मुझे अब वह कविता याद नहीं है |
c- डॉ. उमेश चमोला

बुधवार, 15 जनवरी 2020

मनोरमा बर्त्वाल कि गढ़वाली कहानी


ल्यणकटा रिवाज
         गातरी दादी ब्याळि अपणा गौ पौंछी। मुख इतगा दिप्प  दिख्येणू छो जन खळका का बाद नो ही हंवई ल्योली कू भूख। सुबेर मा सब्बी अपणा -खौला द्वाराकी दादीकू बम्बे रैबासा बारा मां पूछणौ उत्सूक छा। दाद्यू सब तै काणसू नौनू बम्बे मंचेष्ट नेवी मां छौ। परिवार बम्बे में तीन कमरों वाला फ्लैट मां रौन्दी छौ। दर्शन की ड्यूटी त जहाजूं मॉं ही रौन्दी छै पर नौनयालूंॅ पढै-लिखै बाना वू बम्बे मां रौणा छा। छः मैना बाद वापिस ऐ दादी-------- दर्शनै ब्वारीन खुटयूं  का चमड़ा चप्पल अर बरीक बोड़र वाली सूती घ्वती पैरें के भेंजी छै। दादी वापिस। दादी हाथ-मुख घ्वै तैं चोक मां धरी प्लास्टिकै कुरसी मां बेठी तबर्यों परताप द्ादान धै लगाई--बोजी परणाम-परणाम कबारि ऐनया ? तनै मिन सुणली छौ कि तुम वापिस औणा भाला गौं का हीरू दगड़ी ’’
परणाम द्यूरजी ! कन छन तुम ? शरील खुस्ब च ? हाँ बौजी ! हमरू त क्या छ---- यी उखेड़ा धार कांकरू पुंगड़ी---- हौल लगावा नाज बूता अर बालड़ी आई नी कि बान्दर-
ग्यूण्यू की डार-- रूवै जान्दा हमैतें।
त्ुम त भग्यान छना बौजी-- बडू ब्यटा मास्टर छोटू मर्चेण्ट नेबी मां-- ठाट कन छा तुमुन वख-- किलै आया इथ्या जल्दी ? येरां दां द्यूर जी -- तन ता तुम ठिक्की छन ब्वना। कम्मी भी कुछ नी च वख-- पर फलैटू मां कन जेलखानू होन्दू-- एक दौ भित्तर चल्या त भैर भी कन मां औण ? दर्शना नौनू दिन्न भर टूशैने मां रौन्दू द्यूरजी जबारी ऊं स्यू औन्दू तबारी तक घाम भी अछै जान्दू।
बौजी अफू औण क्या ह्वे तुम तैं ? दा द्यूर जी-- तथ्या फैड़ी मी सै नी जयैन्दू--नी सकदू मी चढी-- अर बाटू भी गबैडे जान्दू-- सि त बटन दबौन्दा अर स्वां एैंच-- स्वां मूड़ी, हें ?यन रन्दू वक्ख ? होर सुणा ना बोजी बम्बे बात्ता बम्बे रैन-सैन द्यूर जी मि त अधै छौ वक्ख कू रीति रिवाज देखी, दिक्क एैगी है मितै।
वक्ख सारी घाणी छोटी-छोटी--ब्वारी का गमला मां सतरौ डालू छौ अर वैपर औंला दाणी जतरी संतरी हुई छै।
परताप न आंखा ताड़ी तैं बोली- ऐ बौजी ! तथ्या नि ठग्या हमैतें । हमारा तथ्या झपन्याला डालूं पर संतरा का बड़ा-बड़ा दाणा होन्दा अर तुम-- चुप रा बौजी।
ना द्यूर जी-- गो का सौं--वक्ख सब कुछ हाकी किस्मा छन। घौरी का भोरू पर काण्ड़ा लगांया अर कुकुर बिस्तरा मां सेणा। नौन्यू का कपड़ा नी पैरया। हमरा गौं फुन त बुडया-खाड्या कूड़ी का सबसे अगन्या हाटी तिबारी मां सेन्दा खान्दा रौन्दा अर वख बुड्यूंत ैं सबसे पिछिन वाला कमरा मां घौरदा।
                ब्वारी तब उठदी जब काम वाली चल जान्दी। अर द्यूरजी खाण की रस्याण त गफ्फे  दगड़ी सुरूक करी घुटी देण। सपडाट नि कन खान्दी दौ, चिमचान खायू सवादी नी होन्दू ना मी तैं डौरी न मि भित्तर लिजान्दू अपणू खाणू-- यन लगदू जन चोरी करी खाणू होलू। तनै भली लपसपी दाल रन्दी, बरीक चौंल रन्दा मूलैम रोटी रन्दी पर द्यूर जी गौला बट्टी मूड़ी नी जान्दी।
      द्यूर जी कन जमानुू ऐगी बम्बे मां। ब्वारी-ब्वारी कन रन्दी छै। हमारा जमाना झपझपा बिलोज पैरी , लम्बी घौपेली, कखी बम्बे रिवाज हमारा गौ मां ना औ--वक्खा का औजी बिलोज छोटू करि देन्दा अर कपड़ा जादा काटी देन्दा । मेरू दरसनु ब्वनू छौ कि  माँजी अब बड़ा-बड़ा सैरू मां चीज-बस्त छोट्टी ह्वेगी। टैम कम च न लोगू मा-त बाबा ते बा’, माँजी तै मोम’, अर दीदी ते दीबोलदा, अर वटएपहौन्दू बल द्यूरजी एक तै मां त बल छवी  लगोन्दा पर आंखरों तै छट्वा करदा बल। अर तखा का नौ स्यवा नी लांदा जरा। सिन मौण हिलौन्दा बस ह्वेगी स्यवा सौली , चार दिनों ब्यो मी चम करी एक दिन मां ह्वे जाणू’’
                औ बौजी ! बम्बे मां त जादै आग लगी सैद। पर हमर गौ मां मी यीं छलारा छिट्टा पड़या। यख मी कन बैठ्या लाग यन्नी। पर जू भी हो द्यूरजी मेरो गौ भलू रौतेला डांडा, खौला द्वारो मां छवीं बाती। उरख्यल्यू मां खिखताह, अर पुगड्यू मां पड्याल, कम से कम मनख्यू मुख त दिख्ये जान्दा, बच्या त सुणी जान्दू , वख त द्यूर जी भितर क्वे, बच्चादूं नी अर भैर गाड्यू  कू पुपंयाट।
                पर बौजी देस जाणी तैलोग मुण्ड़ कपाली कना।
द्यूर जी देखदी गवा कब त आली अकल--जरूर आली--आखिर दाजुली अपणी तरफौं कात्दी अर घुण्ड़ी अपणी तरफा मुडदी। यन ल्यणकटा कपड़ा लत्ता बोली भाषा मा हम सब सदानि त नि बण्या रला ल्यणकटा।


  -मनोरमा बर्त्वाल, शाश्वत निलयम, काली मन्दिर एन्क्लेव, बद्रीपुर जोगीवाला देहरादून,
    मोबाइल संपर्क - 9528025295, 8126711707,

पुस्तक समीक्षा पुस्तक का नाम – बोगेंनविलिया की टहनी





लेखकजगदर्शन सिंह बिष्ट
समीक्षकडॉ. उमेश चमोला
        बोगेँनविलिया की टहनी को एक लम्बी कहानी या लघु उपन्यास कहा जा सकता है | कहानी मोहल्ले के उन लडकों पर आधारित है जो क्रिकेट के प्रति जूनून रखते हैं किन्तु उनके पास एक बैट तक नहीं है | इसलिए वे लकड़ी को बैट के आकार में काटकर कपड़े धोने के किए बनाई थापी का प्रयोग बैट के रूप में करते हैं | उन्हें दूसरी टीम से मुकाबला करना है इसलिए वे एक अच्छे बैट की तलाश में हैं | वे इसके लिए विभिन्न प्रयास करते हैं | एक दिन जब वे कालेज के मैदान में प्रैक्टिस कर रहे थे तो उनकी गेंद कालेज के ताला लगे एक कमरे में दरवाजे के एक टुकड़े को तोड़कर चली गई | जब वे वहाँ गेंद देखने गए तो उन्हें वहाँ एक बैट दिखाई दिया | उन्होंने वहाँ से बैट को निकालने और खेलने के बाद वहीं रखने का निर्णय लिया | इस बात का पता जब कालेज के एक छात्रनेता को चला तो उसने सब के सामने उनके इस काम के बारे में बता दिया | यह बात टीम के एक खिलाड़ी अभय के पिताजी को जब  पता चल जाती है | वह अभय को बुरी तरह डाँटते हैं | वह उसे उसी बोगेनविलिया की टहनी से पीटते हैं जिसकी मदद से उन्होंने कालेज के कमरे से बैट निकाला था | अभय इस बोगेनविलिया की टहनी को कलम के रूप में काटकर गमले में रोपता है | वह इस टहनी को  नियमित सींचने का निर्णय लेता है | वह इसे मंदिर की तरह पवित्र मानकर इस अपने जीवन के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार करता है | वह संकल्प लेता है कि भविष्य में वह ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा जिससे किसी का भी बुरा हो | वह परिश्रम और लगन से जीवन में ऊँचा मुकाम हासिल करेगा | दरअसल यह कहानी इस उपन्यास /कहानी के पात्र राघवेन्द्र सिंह रौतेला द्वारा लिखी पुस्तक में वर्णित कहानी है | जब उसके पिता देवेन्द्र सिंह  कहानी का प्रूफ देखते हैं तो उनकी आँखें आंसुओं से भर जाती है कि उनके बेटे ने पात्रों के नाम बदलकर अपने बचपन की ही घटना पर कहानी लिखी है | उन्होंने बोगेनविलिया की टहनी से किस निर्ममता से अपने बेटे को पीटा था | अब वह कहानी का पात्र राघवेन्द्र सिंह मैनेजर प्रोड्क्शन है |
   हमारे जीवन में ऐसी कोई न घटना कभी न कभी घटित होती है | यदि हम इसे सकारात्मक रूप से लें तो यह हमारे जीवन की दिशा बदल सकती है अन्यथा हम दिशाहीनता के शिकार भी हो सकते हैं | इस उपन्यास/ कहानी का उद्देश्य बचपन में बच्चों को गाइडेंस देकर सही दिशा की ओर उन्मुख करना है | स्वयं लेखक के शब्दों में, यदि हम  अपनी संतानों में बचपन की गलतियों को समय पर सुधार करें तो हमारे समाज में काफी बुराइयाँ स्वत: ही दूर हो जायेंगी और हम एक सुसंस्कृत समाज के निर्माण में सफल होंगे |
 कहानी वर्ष १९८४ की सिक्ख विरोधी दंगों की पृष्ठभूमि से भी जुडी  है | इसमें दिखाया गया है कि किस प्रकार चरणजीत का राजपुर देहरादून में स्थित ढाबा दंगाइयों ने जला दिया था और परिश्रम से उन्होंने फिर उसे एक अच्छे रेस्टोरेंट के रूप में बदल दिया था | इसे उन्होंने NF  (Never Forget  ) 84 नाम दिया | कहानी में कालेज लाइफ, कालेज राजनीति, क्रिकेट मैच (विशेषकर भारत और पाकिस्तान के बीच चलने वाला), के प्रति विद्यार्थियों की उत्सुकता और जूनून, क्रिकेट प्रेमी बच्चों द्वारा क्रिकेट के संसाधनों को जुटाने के लिये संघर्ष करना आदि का जीवंत वर्णन किया गया है | पाठक को कहानी पढ़ते समय उस दौर के क्रिकेट खिलाड़ी, फ़िल्मों के गाने, अभिनेता और 31 अक्टूबर १९८४ को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की स्थतियों आदि से परिचय प्राप्त होता है |
क्रिकेट के प्रति जुनूनी बच्चों द्वारा अपनी टीम के लिए चुनाव प्रचार की एवज में जमा रुपयों से क्रिकेट किट प्राप्त करने की योजना बनाना और बाद में इन जमा रुपयों से सिक्ख विरोधी दंगे से प्रभावित अपने दोस्त की सहायता करना युवाओं की सहृदयता को दिखाता है | बोगेनविलिया की टहनी को गमले में रोपते समय उसमे पानी डालने से पहले आंसुओं की बूंदों का गिरना पाठक को भावुक कर सकता है | कहानी में दैनिक बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया  है | छोटे – छोटे संवाद उपन्यास / कहानी की विषवस्तु को सहजता से आगे बढाने में सहायक हैं | ९१ पेजों में सिमटी कहानी  एक ही सिटिंग में पढी जा सकती है | पुस्तक का आवरण कहानी की विषयवस्तु के अनुरूप है | लेखक की यह पहली पुस्तक है | इस पुस्तक का पाठकों के बीच स्वागत होगा | ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए |  भविष्य में भी कहानी और उपन्यास  के अलावा संस्मरण विधा पर भी लेखक कलम चलाएंगे | ऐसी आशा की जा सकती है | 
पुस्तक का नाम – बोगेँनविलिया की टहनी
लेखक – जगदर्शन सिंह बिष्ट
प्रकाशक – समय साक्ष्य, 15 फालतू लाइन देहरादून, उत्तराखंड २४००१
प्रकाशन वर्ष – २०१९,
मूल्य – 100 रूपये मात्र
समीक्षक – डॉ उमेश चमोला

सोमवार, 13 जनवरी 2020

गढभाषा मा लिखदा राउमावि0पालाकुराली रूद्रप्रयाग का नानतिन


 
 राउमावि पाला कुराली मा सन 2016 मा  गढभाषा तै फैलास द्योणो अश्विनी गौड 'दानकोट',  जु राउमावि पाला कुराली जखोली
का विज्ञाना अध्यापक छन , तौंन मोबाइल लाइब्रेरी की स्थापना करी जैमा नै पुराणा साहित्यकारों की पोथी साहित्य बच्चों तक पहुँचाई अर भौत सारी लिखण पढण की कार्यशाला आयोजित करिन। ये से ननतिनो मा लिखण-पढ्न कि रूचि पैदा हवे | ननतिनोन भी कलम चलौण शुरु करि |
ल्यावा  बणांग जन गंभीर संवेदनशील विषय पर ननतिनो कि कवितों कि  देखा झलक---'----- 1
---बणांग---
जंगल मा
 
हम लोखुन
 
लगेलि आग,
अर जानवर ऐगिन
 
गौं मा,
अरे!
 
लोग अब पछतांणा
क्वे अरे रामः ब्वन्ना !
कनुके रौला
'
मनखि'
अर
 
भैसा-ग्वोरु बाखरा, सारी
यख त
बाघे डौर हव्ई भारी।
---अंकुश राणा राउमावि पाला कुराली कक्षा-7----
--2--
--
बण अर आग---
मेरा पहाडे डांडी कांठी
दिखैंदि छे, कन हरी-भरी
आग लगौंदा मनख्यूं
यन अन्याय क्यैक करीऽ।
हरी-भरी डाळी छे
ठंडु-ठंडु पाणी छो
बण फुक्येलो
त पाणी सूखुलू।
क्या मिलि तौ
 
बण जगैक
पाणी हवा सि द्येण
लग्या छा,
गौडी-धौंन काखड, बांदर,
तौंकु घास फल,
खांणा छा,
बण फूकी
सि बिचारा
भूखन फुक्योंणा
तुम क्या पता
सि कनुके रौणा !
आग लगोंदा मनख्यूं
यन किले नि सोची?
प्वथली रिख-बाघ
कतिग्यों कि छे यख आस
तौंकु घौर बण फुक्येलो
त!
हमारे गौं मा त होंण
तौंकु वास।
अम्बिका राणा   कक्षा -9
राउमावि पाला कुराली रूद्रप्रयाग
3----
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कबळाट---
ळोखुन बौंण फूकी
पुंगडि बणांई
अर तथ्या  खांणू  नि पाई
जथ्या हर्याळि निपटाई।
पर ये बौंणन
कति जीवूं तै
खांणू पुगाई।
हमुन बौंण
फूकी
अपड्वे भविष्य बिगाड़ी।
बणुमां आग लगैन,
जानवर छोडी जंगल,
मनख्यूं कि तरफ ऐन।
बौंण आग लगे
अब पछतांणा
बोला दूं
गौडी-भैस्यूं
क्या खिलांणा।
तुम बणांग बणों नी लगौंणा
आस औलाद फूकणां छिन
तुमतै त लाखडा, फल सब मिलि
पर अगने नी द्योखणा छिन।
लोखुन बौंण  बचाईं
अर
त्वेन आग लगाई
सचि बोल त्वेतै क्या
जरा भि दया नि आई?
सूखिग्ये पाणी -घास
मरिग्ये तेरी आस
धुंआ मा कबळाणा छिन
समाचारोंमा पछतांणा छिन।
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अपेक्षा राणा-कक्षा 8
राउमावि पाला कुराली जखोली रूद्रप्रयाग

4----
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बणांग------
हमुन बणूं आग लगाई
अपडि ज्यूंणै आस बुझाई
जबार बै बणों आग लगाई
बांदर सुंगूर गौं -सैरों मा आई
बणों भयंकर बणांग लगेली
बीमार्युन सरीलो सत्यनाश हवेगी
बण छोय्या पाणी बुसिग्ये
पाणी-पाणी हल्ला मचिग्ये
हमारा पुरखोंन बण हमुतै त बचाईं
अर
आग लगोंण मा
तुमुतै सरम भी नि आई।
भला भग्यान होला,
जौंन बौंण बचाईं
सैत्यूं पाळयूं त्वेन,
स्वे बौंण जगाईं।
------खुशी राणा, कक्षा  8
राउमावि पाला कुराली जखोली रूद्रप्रयाग
5----
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डाळा ना काटा----
पेड लगा,
धरती बचा,
डाळा ना काटा
प्रकृति कु ना करा अपमान
पेड लगे करा सम्मान
तबे होलु जीवन महान
बची रोली हमारी शान,
पेड लगा,
धरती बचा,
डाळा ना काटा
जब तक छिन पेड
तबारि तक भितर-भेर!
क्या तुम, क्या हम,
 
क्या जंगल कु राजा शेर?
पेड लगा,
धरती बचा,
डाळा ना काटा-----
तडतडा घाम मा
डाळो छैल
मिललू तबे जब
डाळा रोला,
पेड लगा,
धरती बचा,
डाळा ना काटा------
----मनीष मेहरा, राउमावि पाला कुराली, कक्षा-10