शनिवार, 18 जनवरी 2020

कुछ बातें, कुछ यादें 12 लेखन और बचपन के अनुभव


      बचपन में पिताजी को कविता लिखते और, और लोगों को  सुनाते हम देखते रहते थे | इसलिए देखते ही देखते कविता के प्रति कब आकर्षण पैदा हो गया , पता ही नहीं चला | माँजी लिखती नहीं थी किन्तु माँजी के पास गढवाली भाषा की लोकोक्ति, मुहावरे और शब्दों का अकूत भंडार है | इसलिए पिताजी से हमें लेखन का संस्कार मिला  और माँ जी से लोक में प्रचलित कहावतों, मुहावरों आदि  से परिचय | बचपन में न जाने कितनी लोककथाएं माता जी के श्री मुख से हमें सुनने को मिली थी |
   कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद मेरा चयन एकीकृत परीक्षा के जरिए आवासीय छात्रावास श्रीनगर के लिए हुआ | छात्रावास में अंग्रेजी और हिन्दी के  महत्वपूर्ण अखबार पढने को मिल जाते थे | इसके अलावा श्रीनगर में नंदन, चम्पक, पराग, चंदामामा, लोटपोट, मधु मुस्कान और प्राण के और अन्य कामिक्स हम बाजार से खरीदकर चोरी छिपकर पढ़ते थे | इससे पढने – लिखने के प्रति हमारी रूचि बढ़ती गई | बचपन से ही मेरी रूचि भाषण,वाद – विवाद और कविता पाठ में रही थी | जब मैं कक्षा 10 का विद्यार्थी था , एक बार हिन्दी सप्ताह के अंतर्गत विद्यालय में राष्ट्रभाषा से सम्बंधित  भाषण प्रतियोगिता  चल रही थी | मैंने भी इसमें भाग लिया था | मैंने अपने भाषण के बीच में श्री मैथिलीशरण गुप्त की कविता की यह पंक्तियाँ भी उद्धरित करने के लिए शामिल की थी – बिना राष्ट्रभाषा स्वराष्ट्र की गिरा आप गूंगी असमर्थ,
                    एक भारती बिना हमारी , भारतीयता का क्या अर्थ ?’’
मुझसे पहले सीनियर कक्षा के छात्र का नंबर आया | उसने अपने भाषण में इसी कविता की पंक्तियाँ कह दी| यह सुनकर  मुझे निराशा हुई कि उन्हीं पंक्तियों को मैं फिर कैसे दुहराऊँ? उस दिन मैंने मन में संकल्प किया कि मैं भाषण को अलंकारिक और रोचक बनाने के लिए स्वयं की लिखी कविताओं का प्रयोग करूँगा | इसके बाद मैंने जिस भी भाषण और वाद – विवाद प्रतियोगिता  में भाग लिया उसमें अपनी कविताओं का प्रयोग किया | इस प्रकार इन प्रतियोगिताओं के साथ कविता लिखने का अभ्यास भी शुरू हुआ  जो इंटर कालेज से शुरू होकर उच्च शिक्षा तक चलता रहा |
 जब हम कक्षा 11 में पढ़ते थे | प्रमोद कुकरेती और मेरा चयन वाद – विवाद प्रतियोगिता के लिए विकासखंड स्तर से जिला स्तर के लिए हुआ था | जिला स्तर पर यह कार्यक्रम बालिका इंटर कालेज श्रीनगर में हुआ | हमारे छात्रावास अधीक्षक डॉ० लक्ष्मी प्रसाद नैथानी सर ने मुझे गीता के श्लोक की पंक्तियाँ नोट कराई और कहा कि भाषण के बीच में इनका प्रयोग करना | मैंने इन पंक्तियों को याद करने का प्रयास किया | ये याद भी हो गई थी | मैंने सुविधा के लिए कागज के एक टुकड़े में लिखकर प्रतियोगिता में पढने के लिए अपने पास रखा | जैसे ही मैंने
कागज का वह टुकड़ा पोडियम पर पढने के लिए रखा और अपनी बात को पुष्ट करने के लिए कहा,
गीता में भी कहा गया है | वैसे ही वह कागज का टुकड़ा हवा से उड़कर एक निर्णायक की मेज पर  पहुँच गया | यह देखकर वह मुस्कराए | अचानक हुए इस घटनाक्रम से मेरा भाषण का प्रवाह कुछ पलों के लिए रुका किन्तु मैंने अपने को तुरंत संभालते हुए गीता के उस श्लोक का भाव हिन्दी में सुना दिया | हमारी टीम (प्रमोद कुकरेती और मैं ) ने प्रथम स्थान प्राप्त किया |
     बच्चों की लेखन क्षमता को उभारने में विद्यालय की पत्रिका की महत्वपूर्ण भूमिका होती है | राजकीय इंटर कालेज श्रीनगर में ‘वाणी’ वार्षिक पत्रिका का प्रकाशन किया जाता था | ;वाणी के संपादन का कार्य हिन्दी के गुरूजी डॉ. विष्णु दत्त कुकरेती करते थे | वाणी पत्रिका में मेरे दो आलेख ‘प्रतिकूलताएँ व्यक्तित्व निर्माण मे सहायक’ और ‘राष्ट्रीय एकता में बाधक राष्ट्रभाषा समस्या’ प्रकाशित हुए थे | एक लेखक के रूप में इनके प्रकाशित होने पर मुझे बहुत खुशी हुई थी | जब मैं कक्षा 11 का छात्र था डॉ. कुकरेती गुरूजी ने  ‘वाणी’ पत्रिका क छात्र सम्पादक के रूप में मेरा चयन किया था | इससे लेखन के प्रति मेरी रूचि और उत्साह बढ़ गया  |
    छात्रावास में शाम के समय एक दिन मैं अपने कमरे में अकेला था | मेरे कमरे की खिड़की से आसमान का एक छोर दिखाई देता था | उस छोर पर क्षितिज पर मैं सूर्यास्त के बाद की रंगीन आभा जिसे स्वीली घाम कहा जाता है , को देख रहा था | उस नयनाभिराम दृश्य को देखकर मेरे  मन में कविता की कुछ पंक्तियाँ आ रही थी | तभी मुझे छात्रावास अधीक्षक डॉ. नैथानी सर का स्वर सुनाई दिया, बेटा! प्रेयर का समय हो गया है | मैं तुम्हें पांच मिनट से आवाज दे रहा हूँ | तुम्हें सुनाई नहीं दिया | फिर कुछ रूककर बोले , बेटे ! तुम्हारे पिताजी शायद तुम्हें उतना नहीं जानते होंगे जितना मैं तुम्हें जान गया हूँ | तुम्हें अनुकूल परिस्थितियां मिल गई तो तुम अच्छे लेखक बन सकते हो |
     आज कुछ रचनात्मक शिक्षक दीवार पत्रिका के माध्यम से बच्चों की सृजनात्मक क्षमताओं को अभिव्यक्ति का मंच देने का सार्थक प्रयास कर रहे हैं | उस समय दीवार पत्रिका जैसा रचनात्मक मंच नहीं था | ऐसे में हम कभी – कभी विद्यालय के बोर्ड पर समाचारों के साथ – साथ कुछ सूक्तिपरक वाक्य खोजकर लिखते थे | एक बार शिवरात्रि के अवसर पर मैंने अपनी कविता बोर्ड पर लिखी थी | उसकी अंतिम पंक्तियाँ थीं – ‘ह्रदय से हटे तमस, यही हो भावना,
                                     यही शिवरात्रि की शुभकामना |’
इस कविता को पढ़कर डॉ. विष्णुदत्त कुकरेती सर ने मुझे बधाई दी | इस कविता के और क्या –क्या पक्ष हो सकते हैं ? उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया | इसके बाद मैंने इस कविता के दो – तीन पद्यांश और लिखे थे | मुझे अब वह कविता याद नहीं है |
c- डॉ. उमेश चमोला

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