रविवार, 2 अगस्त 2020

पाठ्य और पाठ्येतर क्रियाकलापोंको तनु (dilute) करती हैं एस.सी.ई.आर.टी. उत्तराखण्ड द्वारा विकसित लोक संगीतमय डिजिटल अधिगम सामग्री -

 

समीक्षा - डाॅ. उमेश चमोला
विद्यालयों में आयोजित होने वाले समस्त क्रियाकलापों को समझने की दृष्टि से प्रमुखतः दो रूपों में बांटा जाता रहा है- पाठ्य क्रियाकलाप और पाठ्येतर क्रियाकलाप । पाठ्य क्रियाकलाप के अंतर्गत पठन -पाठन से संबंधित गतिविधियों को सम्मिलित किया जाता रहा है। यह पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए आयोजित की जाती हैं। अन्य क्रियाकलाप जैसे- सांस्कृतिक और साहित्यिक  क्रियाकलापों को पाठ्येतर अर्थात् पाठ्य क्रियाकलापों से इतर गतिविधियों के रूप में रखा जाता रहा है।  इसके अलावा पाठ्येतर क्रियाकलापों को पाठ्य सहगामी अर्थात् पठन- पाठन के साथ साथ चलाई जाने वाली गतिविधियों के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है।  इन सभी क्रियाकलापों का उद्देश्य विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास करना है। जिन क्रियाकलापों को पाठ्येतर या पाठ्य सहगामी के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है वे भी पाठ्य क्रियाकलापों के रूप में नवाचारी शिक्षकों द्वारा वर्तमान समय में प्रयोग की जा रही हैं। इन गतिविधियों को पाठ्यक्रम में निर्धारित विषयवस्तु के शिक्षण का हिस्सा  बनाने से शिक्षण रोचक और उपलब्धिपूर्ण हो जाता है।  नौनिहालों के शैक्षिक विकास में व्यावहारिक रूप से सिद्ध इन्हीं शैक्षिक सिद्धांतों का क्रियान्वित रूप लगती हैं  राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् उत्तराखण्ड द्वारा समग्र शिक्षा के अंतर्गत गढ़वाली भाषा में विकसित लोक संगीतमय डिजिटल अधिगम सामग्री ।
   इसमें  उत्तराखण्ड के सामान्य ज्ञान से संबंधित विषयवस्तु पर आधारित 14 गीत तैयार किए गए हैं। ये चौदह गीत उत्तराखण्ड के प्रमुख नगर, जनजातियां, प्रमुख उत्सव एवं मेले, प्रमुख पर्यटन स्थल, धार्मिक स्थल,दर्रे,ग्लेशियर,पर्वत चोटियां, ताल एवं झील, नदियांॅ, वनस्पति एवं जन्तु, स्वतंत्रता संग्राम सैनानी एवं वीर सपूत, उत्तराखण्ड का इतिहास और उत्तराखण्ड की सूचनाएं जैसे विषयों पर लिखी गई हैं।
 इन गीतों को बच्चे आसानी से समझ पाएंगे क्योंकि गीतों में ठेठ गढ़वाली भाषा के शब्दों के स्थान पर हिन्दी के निकट की शब्दावली का प्रयोग किया गया है।  इसके साथ ही मूल गीत भी हिन्दी अनुवाद के साथ अलग से दिया गया है। गीत के चलते समय स्क्रीन पर गीत का हिन्दी अनुवाद भी साथ- साथ देखा जा सकता है।  प्रत्येक गीत में आए गढ़वाली भाषा के शब्दों का अलग से भी अर्थ स्पष्ट किया गया है।  हर गीत के लर्निंग आउटकम (अधिगम परिणाम ) भी दिए गए हैं । इन्हें प्राप्त करने के संदर्भ में गतिविधिपरक अभ्यास भी दिए गए हैं। इससे अधिगम संप्राप्ति के मूल्यांकन में सहायता प्राप्त होगी ।  इस आधार पर कहा जा सकता है कि पाठ्य और पाठ्येतर क्रियाकलापों के बीच की दीवार को तनु (dilute ) करने की दिशा में यह सार्थक प्रयास लगता है।
‘‘ हम रोजमर्रा के अनुभव से जानते हैं कि ज्यादातर बच्चे स्कूल की शिक्षा की शुरुआत से पहले ही भाषा की जटिलताओं और नियमों को आत्मसात कर पूर्ण भाषिक क्षमता रखते हैं।‘‘
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में वर्णित यह कथन शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में मातृभाषा के महत्व की ओर संकेत करता है। एस.सी.ई.आर.टी. उत्तराखण्ड द्वारा विकसित लोक संगीत आधारित डिजिटल सामग्री  बच्चों की मातृभाषा गढ़वाली में लिखी गई है।  उस भाषा में जिस भाषा से बच्चे का जुड़ाव जन्म से है। जो उसकी दुदबोली भी है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 मातृभाषाओं को प्रभावी समझ के लिए जरूरी मानती है। इसके अनुसार भाषाएं एक प्रकार के स्मृतिकोश का भी काम करती है। ये वे माध्यम भी हैं जिनसे अधिकतर ज्ञान का निर्माण होता है।  बच्चे की मातृभाषाओं को नकारना  या उनको मिटाने के प्रयास उसके व्यक्तित्व से हस्तक्षेप की तरह लगते हैं। प्रभावी समझ और भाषाओं के प्रयोग के माध्यम से बच्चे विचारों, व्यक्तियों और वस्तुओं तथा आस-पास के संसार से अपने आपको  जोड़ पाते हैं। (पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएं और आकलन, एन.सी.एफ 2005 का दस्तावेज पृष्ठ 41 )
अतः शिक्षण - अधिगम प्रक्रिया को रुचिकर और उपलब्धिपूर्ण बनाने में इन गीतों की भूमिका स्पष्ट है। यह लोकसंगीत आधारित डिजिटल सामग्री एस.सी.ई.आर.टी. उत्तराखण्ड के यू ट्यूब चैनल में अपलोड की गई है। इसका उपयोग विद्यार्थी और शिक्षक विद्यालय के अलावा घर और अन्य स्थानो पर भी कर सकते हैं।  वर्तमान कोरोना काल में  इस सामग्री का मोबाइल के जरिए प्रयोग बच्चों द्वारा घर में भी किया जा सकता है। प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं की तैयारी करने वाले अध्येताओं के लिए भी यह गीत उपयोगी हैं।
 उत्तराखण्ड के सामान्य ज्ञान पर आधारित इन गीतों का संगीत कर्णप्रिय और गायक-गायिकाओं द्वारा इन्हें मधुर स्वरों में गाया गया है। इनमें हारमोनियम, तबला,ढोलक,ढोल, दमाऊ,मसकबाजा, खांकर, चिमटा,मरकस, घुंघरू,मोरछंग, हुड़का,भंकोर,एकतारा, डौंर और थाली का प्रयोग किया गया है। गीतों में छपेली, जागर, राधाखंडी और रैप शैली उपयोग में लाई गई है।  धुंयाल, मंडाण, वार्ता, कहरवा और खेमटा ताल में गीतों को निबद्ध किया गया है। विविध लोकवाद्यों के वादन, शैली और तालों के अद्भुत समन्वय ने इन गीतों को कर्णप्रिय और मनोहारी बना लिया है।
 इन गीतों की रचना और गायन उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा के शिक्षकों द्वारा किया गया है। गीतों को ओम बधाणी, डाॅ.शिवानी राणा चंदेल,डाॅ. बिन्दु नौटियाल और सुधा ममगांईं ने स्वर दिया है। कोरस गायन डाॅ. शिवानी राणा चंदेल, डाॅ. बिन्दु नौटियाल , सुधा ममगांईं ,मोहित कुमार उपाध्याय और ओम प्रकाश नौगरियाल ने किया है। गीतकारों के रूप में डाॅ. नंद किशोर हटवाल, डाॅ. प्रीतम अपछ्याण, गिरीश सुन्दरियालमनोरमा बत्र्वाल, डाॅ. उमेश चमोला, अवनीश उनियाल, ओम बधाणी, सुधीर बत्र्वाल, डाॅ. बिन्दु नौटियाल, धीशराज शाह,नवीन डिमरी ‘‘ बादल‘‘ धर्मेन्द्र नेगी और देवेश जोशी ने अपना योगदान दिया है।  गीतों का संगीत संयोजन रणजीत सिंह ने और अकादमिक निर्देशन, संपादन और संकलन डाॅ. नन्द किशोर हटवाल ने किया है। ये गीत  डाॅ. आर मीनाक्षी सुन्दरम, सचिव विद्यालयी शिक्षा के संरक्षण में सीमा जौनसारी निदेशक अकादमिक शोध एवं प्रशिक्षण उत्तराखंड के निर्देशन में तैयार किए गए है। समन्वयन अजय कुमार नौडियाल, अपरनिदेशक एस.सी.ई. आर.टी. उत्तराखण्ड तथा मार्गदर्शक मण्डल के सदस्य के रूप में प्रदीप कुमार रावत विभागाध्यक्ष पाठ्यक्रम एवं शोध विभाग तथा राय सिंह रावत उपनिदेशक, एस.सी.ई.आर.टी. उत्तराखण्ड ने अपना योगदान दिया है।

 नई शिक्षा नीति में भी मातृभाषाओं के महत्व पर बल दिया गया है | अत: नई शिक्षा नीति के दिशा निर्देशों को जमीनी स्तर पर उतारने की दिशा में भी यह प्रयास सार्थक सिद्ध होगा | ऐसी उम्मीद की जा सकती है | 







https://www.youtube.com/watch?v=Ov8kvpOB6E8&t=18s

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