ह्वटस्एप
में एक संदेश पढ़ने को मिला । कोई व्यक्ति किसी के घर मेहमान के रूप में आता है। वह
वहां एक बच्चे को पूछता है,‘‘बेटा! तुम बड़े होकर क्या बनोगे ? बच्चा कहता है,‘‘मैं बड़ा होकर कुछ भी बनूं पर ऐसा आदमी
बिलकुल नहीं बनूंगा जो किसी बच्चे से पूछे कि तुम बड़े होकर क्या बनोगे ?‘‘
बचपन में यह सवाल मुझसे भी कई बार पूछा गया था ।
मुझे इस सवाल का उत्तर नहीं सूझता था । मैं इस प्रश्न के उत्तर पर चिन्तन करने लगा
कि मुझे बड़ा होकर क्या बनना चाहिए। बहुत छोटे में जब गाड़ी में बैठकर कहीं जाते थे
तो बड़ा मजा आता था । स्टेशन आने पर मन करता कि काश स्टेशन कुछ और आगे होता । तब मन
में आने लगा कि मुझे बड़ा होकर ड्राइवर बनना चाहिए। मजे ही मजे रहेंगे । जहां चाहों, वहां घूमने को मिल जाएगा ।
स्कूल
जाने के समय जुलाई- अगस्त के महीने में मेले जैसी रौनक देखने को मिलती थी ।
किताब-कापी लेने वालों की स्टेशनरी की दुकान में भीड़ जमा रहती थी । तब मैं सोचने लगा था,‘‘मुझे बड़ा होकर बुक सेलर बनना चाहिए। चारों ओर किताबें ही किताबें। जब
ग्राहक दुकान में न आएं तो जिस किताब को भी पढ़ना चाहे, पढ़ सकता है।‘‘ अब मेरी आंखों में बड़ा होकर बुक सेलर बनने का सपना तैरने लगा था ।
अब मैंने बड़ा होकर क्या बनोगे ? इस
प्रश्न के उत्तर में बुक सेलर शब्द को अंकित कर दिया था । वर्षों तक यह सपना मेरे
मन में अंकित रहा था ।
कक्षा
6 या 7 की बात रही होगी । मैंने अपने जमा पैंसों से कुछ कंचे (कांच की
गोलियां) खरीदी थी। इन्हें अंटी भी कहा जाता था। उन दिनो बच्चों में अंटी खेलना
काफी लोकप्रिय खेल था । मैंने कुछ अंटी खेल में जीती थी । मेरे पास एक बड़ी डिब्बी
भर अंटी हो गई थी । एक दिन मैंने यह डिब्बी अपने सहपाठियों को दिखाई । मेरे एक दोस्त रमेश की आंखों में वह डिब्बी खटकने
लगी। उसने मुझसे कहा,‘‘उमेश! यह डिब्बी मुझे दे दे। मैं कल
तुझे वापस लौटा दूंगा।‘‘ मैं उसकी बातों में आ गया । मैंने उसे
वह डिब्बी दे दी । चार -पांच दिन गुजर गए । उसने वह डिब्बी मुझे नहीं लौटाई । एक
दिन वह एक फटी पुरानी किताब लाया । उसने मुझे किताब देते हुए कहा,‘‘इस किताब को पढ़कर दो-तीन दिन के बाद
लौटा देना ।‘‘ वह किताब बी.ए स्तर की हिन्दी साहित्य
की किताब थी । मैंने उस किताब को पढ़ा । उसमें लिखी कुछ बातें मेरी समझ में आई ।
कुछ बातें समझ में नहीं आई । दो-तीन दिनो के बाद मैं रमेश को वह किताब लौटाने लगा
तो वह बोला, ‘‘ जो अंटी की डिब्बी मैं तुझसे मांगकर ले
गया था, वह कहीं खो गई है। उसके बदले तू इस
किताब को अपने पास ही रख ले ।‘‘ किताब को पाकर मुझे बहुत खुशी
हुई। मुझे मेरे दूसरे दोस्त ने बताया कि रमेश कह रहा था कि उसने उमेश को
बेवकूफ बनाकर अंटी की डिब्बी प्राप्त की है ।
यह कक्षा 4 की बात है। पिताजी एक दिन मेले से जलेबी लाए थे। वह जलेबी अखबार के
लिफाफे में पैक की गई थी । जलेबी खाने के बाद लिफाफा फेंका ही जाने वाला था कि
मेरी नजर उस पर पड़ी । उसमें महात्मा गांधी पर लिखी हुई एक कविता प्रकाशित थी ।
मैंने उसमें लिखी कविता को कागज में उतार दिया था । इसके बाद मैंने वह कविता याद
कर ली थी । उस दौर में हर शनिवार को विद्यालयों में बालसभा होती थी । इसमें रुचि
के हिसाब से बच्चे गीत,कविता, कहानी आदि सुनाते थे । मैंने वह कविता बालसभा में सुना दी । मेरी माँ
जी जो मेरी शिक्षिका भी थी,
को बहुत आश्चर्य
हुआ कि मैंने कोर्स की किताब से बाहर की वह कविता कहां से प्राप्त की और उसे कब
याद किया ? जब मैंने माँ जी को पूरी बात बताई तो माँ
जी बहुत खुश हुई ।
उस समय हिन्दुस्तानी बुक डिपो अलीगढ़ से ‘शिक्षक बन्धु‘ नाम की एक पत्रिका आती थी । उसके हर
अंक में एक कविता छपी रहती थी । मैं इसमें
लिखी कविताओं को याद कर बालसभा, पन्द्रह
अगस्त, छब्बीस जनवरी आदि पर्वों पर सुनाता
रहता था । एक बार मैं एक दोस्त के साथ विवाह में सम्मिलित हुआ । दक्षिणा में हमें
पांॅच- पांॅच रुपए मिले । मेरे दोस्त ने मुझसे पांच रुपए मांगे और कहा कि वह कुछ
दिन के बाद लौटा लेगा। कई दिन गुजर गए । उसने मेरे रुपए नहीं लौटाए। एक दिन उसने
मुझे ‘एक लोटा पानी‘ नाम की एक पुरानी किताब देते हुए कहा, ‘‘मैंने तेरे जो पांच रुपए देने थे, उसके बदले यह किताब रख ले।‘‘
इस किताब में प्रेरक कहानियां थी। जब मैं एकीकृत
परीक्षा से चयनित होकर श्रीनगर इण्टर कालेज में भर्ती हुआ तो कक्षा 11-12
में छात्रावास अधीक्षक डाॅ. लक्ष्मी प्रसाद नैथानी जी ने मुझे अखबार मंत्री
बनाया। अखबार मंत्री का काम सभी के
द्वारा अखबार पढ़े जाने के बाद इनको
संभालना होता था। इस कार्य से मुझ बहुत लाभ हुआ। जब भाषण, वाद विवाद या निबन्ध प्रतियोगिताएं
होती थी तो मुझे संदर्भ सामग्री जुटाने में अखबारों से मदद मिल जाती थी।
पुस्तकों से मेरा बचपन से ही गहरा नाता रहा।
जीवन की जटिल परिस्थितियों में पुस्तकें मेरी मार्गदर्शक रहीं । एक बार बालतोड़
बिगड़ जाने के कारण मैं लगभग एक महीने तक बिस्तर पर रहा । इस एक माह की अवधि में
मैंने वे सारी पुस्तकें पढ़ डाली , सामान्य
परिस्थितियों में व्यस्तता के कारण जो मैं नहीं पढ़ पाया था ।
मैंने यह पाया कि जीवन में घोर विपत्ति के समय
पुस्तकों ने मुझे अवसाद का शिकार होने नहीं दिया। यह पुस्तकों की ही कृपा थी जो हर
विपत्ति मुझे छूकर वापस चली गई।
सुन्दर
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