रविवार, 20 मई 2018




पुस्तक परिचय
उडि जौं अगास
कवि – गिरीश सुन्दरियाल
समीक्षक – डॉ० उमेश चमोला
पक्षियों से काव्यात्मक संवाद है ‘उडि जौं अगास’
 उत्तराखण्ड के विहंगम सौन्दर्य   के बीच विभिन्न पक्षियों का मधुर स्वर ह्रदय को आहलादित कर देता है | पक्षियाँ यहाँ के लोक जीवन में रची बसी हैं | इसीलिए अन्य क्षेत्रों की तरह पक्षियाँ यहाँ की लोककथाओं, लोकगाथाओं, लोकगीतों आदि का अभिन्न हिस्सा रही हैं | यहाँ की पक्षियों से सम्बंधित लोककथायें सामान्यतया दुखांत रही हैं | इन कथाओं में प्राय: कथा के प्रमुख चरित्र की मृत्यु हो जाती है | मृत्यु के बाद वह किसी पक्षी के रूप में जन्म लेता है | पूर्व जन्म के संस्कार के अनुसार उसे विशिष्ट पक्षी का स्वर प्राप्त होता है | काफल पाको मिन नि चाखो, सौतेला पूरा पूर पूर,आज-भोल, तिसमिली तीस-तीस, काग भाषा,घुघुती बैण जैसी लोककथाएँ कुछ उदाहरण हैं | इसी प्रकार कई लोकगीतों में पक्षियों का वर्णन किया गया है |  कुछ  मांगल(मांगलिक अवसर पर गाये जाने वाले गीत )  गीतों में कौवे का आह्वान देखने को मिलता है | खेल गीत और लोरी गीतों में भी पक्षियाँ चित्रित हुई हैं | घुघुती बासूती इसका उदाहरण है | इसी प्रकार विभिन्न रचनाकारों की कहानियों, गीतों, कविताओं , खंड काव्य आदि का विषय भी पक्षियाँ रही हैं | इसी श्रृंखला में कवि और गीतकार गिरीश सुन्दरियाल की पुस्तक ‘उडि जौं अगास’ को एक महत्वपूर्ण प्रयास कहा जा सकता है | इस पुस्तक में उत्तराखण्ड में पाई जाने वाली ऐसी पक्षियों को कविता में स्थान दिया गया है जो साहित्य में उपेक्षित रही हैं | घुघुती, कौआ,गौरैया,कोयल, काफल पाको आदि लोकसाहित्य में बहु वर्णित पक्षियों के साथ –साथ कवि द्वारा ढेंचू,ग्व्थनि, धिस्वलि,मल्यो ( पहाडी कबूतर),तीतर, सुव्वा (तोता प्रजाति का पक्षी),नीलकंठ,चुफल्या ,कफ्फू,मोनाल,बंसरा,मुसफ्य्खडा,सुरड़ी,मेल्वड़ी,चकोर,सिंटुली(पहाडी मैना), कलचुंडी, था थबडि (उड़ते हुए बीच में रूक कर संतुलन बनाने वाला पक्षी ), गरुड़,चील, तोता, लम्पुछ्या (लम्बी पूंछ वाला पक्षी) कठफोड़वा,उल्लू, जल मुर्गी आदि पर भी कवितायेँ रची गई हैं | ये कवितायेँ पक्षियों से  कवि का काव्यात्मक संवाद  कही जा सकती हैं |    इसी संवाद के बहाने कवि द्वारा पलायन के कारण गाँव में बंजर पड़े खेत ,बचपन के लुप्त हो चुके खेल, थड्या – झुमैलो के स्थान पर डिस्को पॉप का चलन आदि के प्रति ह्रदय की पीड़ा अभिव्यक्त हुई है | इसी प्रकार कुछ कविताओं में वर्तमान राजनीति में आई मूल्य विहीनता पर व्यंग्य भी देखने को मिलता है | ‘सूनि-गरुड़ – मंत्रिजि’ कविता में कवि वर्तमान नेताओं को सूनि-गरुड़ पक्षी की संज्ञा देता है | सूनि-गरुड़ पक्षी हमेशा दिखाई नहीं देता है | पूजा विशेष के अवसर पर ही दिखाई देता है | ऐसे नेताओं से कवि कहता है –
सूनि-गरुड़ मंत्रिजि आवा
उद्घाटन स्यो करि जावा
काम भौं कुछ हुयां न हुयां
ढूंगु तुम भी चिपकै जावा |’
इसी प्रकार ‘चिलांग- नेता जी ‘ कविता में कवि चुनाव जीतने के बाद पांच साल तक गायब रहने के बाद अचानक प्रकट होने वाले नेता जी को खरी खोटी सुनाता है |
कविताओं में कवि द्वारा  पक्षियों को ताऊ,मामा,भान्जा,मौसी,समधी,दीदी, भुली( छोटी बहिन),पूफु(बुआ),भाभी,जैसे संबोधन देना उनके प्रति कवि के अपनत्व की  भावना को दिखाता है | उत्तराखंड में सिंटूलि(पहाड़ी मैना ) पक्षी के बारे में कहा जाता है कि यह पक्षी सुबह उठने के बाद जब भूखा रहता है तो मनुष्य के मल को खाता है | जब उसका पेट भर जाता है तो वह दूसरी चिड़िया से कहता है – ‘ छि दीदी गू नि खाण ‘( हे दीदी , अब गू (मानव मल) नहीं खाना है | दूसरे दिन जब उसे भूख लगती है तो वह कहता है –‘गू नि खाण त क्या खाण ( मानव मल नहीं खाना है तो फिर क्या खाना है ?’ किसी गलत कार्य को न करने की प्रतिज्ञा करने और फिर उस प्रतिज्ञा को तोड़ने वाले लोगों के सन्दर्भ में यह कहावत उद्धृत की जाती है | कवि ‘सिंटूलि सकलि’ कविता में इस पक्षी के बारे में प्रचलित परम्परागत सोच से हटकर प्रेम की भावना व्यक्त करता है | कुछ कविताओं में मुहावरों और लोकोक्तियों का सुंदर प्रयोग किया गया है |’च्योलि तिसलु’ कविता में जैसा बोयेगा वैसा काटेगा कहावत को कवि ने नया  स्वरूप दिया है –
‘बुतिला जो धतूर,
व्हाली कख मसूर,’( अगर धतूरा बोयेंगे तो मसूर कैसे उगेगी )
इसी प्रकार ‘तितर भणजा’ कविता में ‘या त गुड  ही जणदा या त थौला ही जणदा,(परेशानी झेलने वाला ही परेशानी को समझता है) तथा ‘’गण घुघुती स्वाणी’ में तातु दूध हुयूँ चा, घुटेणु न थुकेणू चा जैसे कहावतो का प्रयोग किया गया है |
पुस्तक की भूमिका कवि और रंगकर्मी श्री मदन मोहन डूकलान ने लिखी है | उन्होंने इन कविताओं के बारे में अपना मत प्रकट किया है –‘इन कविताओं में कवि की कल्पना की उड़ान उसे सातवें आसमान में पंहुचाती है किन्तु उसके पैर धरती में ही दिखाई देते हैं | हमारे जीवन का कोई ऐसा रिश्ता –नाता नहीं है जिसके बारे में इन रचनाओं में बात नहीं हुई है | मानवीय संबंधों और आपसी सरोकारों के सभी रंग इस पोथी में दिखाई देते हैं | पहाडी जन जीवन और उसके सरोकारों और संबंधों का तानाबाना है यह गीति काव्य |(श्री डूकलान द्वारा  गढ़वाली में लिखे अंश का भावानुवाद )| कविताओं में जहाँ ‘प्रोब्लम’ और टैम  जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है  तो ठेठ गढ़वाली शब्दों का प्रयोग भी किया गया है | इन शब्दों के साथ – साथ उनके अर्थ भी दिए गए हैं | यह गढ़वाली भाषा के शब्दों को संरक्षित करने का प्रयास कहा जा सकता है | गढ़वाली भाषा के पाठक  जो  अपना  शब्द भंडार  बढाना चाहते हैं उनके लिए यह ज्ञानवर्धक है |
पुस्तक का आवरण आकर्षक है | मुद्रण स्पष्ट है | पुस्तक में पक्षियों पर आधारित ५३ कवितायेँ हैं | अत: बिना इन पक्षियों को जाने इनका चित्रांकन संभव नहीं था | पक्षियों के चित्रांकन को देखकर चित्रकार डॉ बी० एस० नेगी की पक्षियों के प्रति स्पष्ट समझ भी व्यक्त होती है | अत: कवि के साथ –साथ चित्रकार को भी हार्दिक बधाई |
अंत में संग्रह से ‘छ्वीं -बत’ कविता के कुछ अंश –
उडि जौं अगास ,
ज्यू ब्व्नू छ आज
तुम दगडी हैंसु –खेलु
बनी पंछि आज
हे दगडयो आज
हे  च्खुल्यों आज
औ हे मनखी ह्म्हरा गैल
सरया दुन्या की करला सैल
निरदुन्द ह्वे उडला-फिरला
नचला अर च्वीन्च्याट करला
प्रकाशक – समय साक्ष्य 15 फालतू लाइन ,देहरादून २४८००१
मूल्य -१२५ रु
रचनाकार – गिरीश सुंदरियाल
c-  डॉ उमेश चमोला
प्रकाशन वर्ष -२०१६




शनिवार, 12 मई 2018

drishti: पुस्तक समीक्षा ‘झुम्पा’( गढ़वाली बाल कविता संग्रह...

drishti:

पुस्तक समीक्षा ‘झुम्पा’( गढ़वाली बाल कविता संग्रह...
: पुस्तक समीक्षा ‘झुम्पा’( गढ़वाली बाल कविता संग्रह ) कवि –यतेन्द्र गौड़ ‘यति’ समीक्षक –डॉ ० उमेश चमोला विविध कविता रूपी फलों का झुम्पा है...


पुस्तक समीक्षा ‘झुम्पा’( गढ़वाली बाल कविता संग्रह )
कवि –यतेन्द्र गौड़ ‘यति’
समीक्षक –डॉ ० उमेश चमोला
विविध कविता रूपी फलों का झुम्पा है ‘झुम्पा’ बाल कविता संग्रह
‘झुम्पा’ शब्द का अर्थ होता है गुच्छा |
पेड़ों पर लटकते हुए फलों के गुच्छे सबका मन मोह लेते हैं | इन लटकते हुए फलों को तोड़ने के लिए बच्चों को उछलकूद करते हुए देखने पर अपना बालपन याद आता है |उत्तराखण्ड के प्राकृतिक सौन्दर्य,रीतिरिवाज ,पशु –पक्षी,खेती और जंगल की भावभूमि पर आधारित कविता रूपी फलों का झुम्पा लेकर आऐ हैं यतेन्द्र गौड़ ‘यति’ अपने गढ़वाली बालकविता संग्रह में | पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ ० नन्द किशोर ढ़ोंडियाल’अरुण’ संग्रह की कविताओं को प्रकृति के बीच लिखी गई कविता मानते हैं | वास्तव में संग्रह की कविताओं में उत्तराखण्ड की प्रकृति बोलती है | यहाँ की डांडी –कांठी,वनस्पतियाँ,बुग्याल,यहाँ के फल जैसे भमोरा,बेडू,हिसर,किनगोड,काफलआदि, घुघुती,गौरैया,हिलांस पक्षियाँ,पहाडी व्यंजन (कोदे की रोटी,माखन की डली,तिल की चटनी, चोलाई की सब्जी,कंडाली का साग ),पहाडी वस्त्र और आभूषण,परम्परागत वाद्य ढोल –दमों ,तीज –त्योहार( दीपावली,हरेला,होली) यह सब आयें हैं संग्रह की कविताओं में | इसके अलावा राष्ट्र प्रेम,तिरंगा,पंद्रह अगस्त तथा कलाम त्वैतैं सलाम जैसी कविताओं में कवि के ह्रदय की राष्ट्र प्रेम की भावना व्यक्त होती है |
इन कविताओं में प्रकृति की गोद में पले –बड़े नौनिहालों की मनोभावना अभिव्यक्त होती है | ग्रामीण नौनिहाल जो गाय की बछिया से भी संवाद करता है |जो खेतों में मक्का के बीज बोने पर प्रतीक्षारत है छोटे –छोटे ख़ूबसूरत पौधों के उगने की |उसे डर भी है रात्रि के समय सेही और दिन के समय आतंक के पर्याय बने बंदरों से कहीं वे उसके सपने को धुल धूसरित न कर दें | जो चखुलों (पक्षियों ) की तरह निस्सीम गगन में सपनो की उड़ान भरने को व्यग्र है |जो घाम(सूर्य के प्रकाश) की तरह चारों दिशाओं में फैलना चाहता है और पानी की धारा की तरह गतिशील रहना चाहता है |
‘कंडली की झपाक’ ‘अब क्या जी कन्न’ और ‘असल मा तुम च्हाणा क्या छन जैसी कविताएँ इसी बच्चे के ह्रदय की पीड़ा को स्वर देती हैं कि वह बड़ों से कुछ कहना चाहता है पर वे सुने तो सही | ‘कंडली की झपाक’ पाठक को उस कालखंड की ओर ले जाती है जब बच्चे को स्कूल और घर में किसी अपराध के लिए हाथ पर कंडली (बिच्छू घास ) लगाने की सजा दी जाती थी | कंडली की झपाक की कल्पना मात्र से शरीर में सिहरन हो उठती थी | वर्तमान समय में परिस्थितियां बदल चुकी हैं | अब बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार अतीत का विषय हो चुका है | इसी तरह वर्तमान कंप्यूटर के युग में पाटी (तख्ती ) पर लिखना एक ऐतिहासिक घटना हो चुकी है | कवि अभी भी पाटी को भूला नहीं है | उसे याद है पाटी पर लिखे अक्षर चमक के साथ अंकित हों ,इसलिए उस पर बोतल से रगडा जाता था | इसे घोटा लगाना कहते थे | ‘घुट्या रे’ कविता में कवि जीवन रूपी पाटी पर परिश्रम रूपी घोटा लगाने की सलाह देता है |
गिनती पर आधारित बाल कवितायेँ हिन्दी में काफी लिखी जा चुकी हैं | जैसे एक था राजा का बेटा,दो दिनों से भूखा लेटा | कुमाउनी भाषा में ऐसा प्रयोग नान्तिनो कि सजोलि’ में विनीता जोशी ने भी किया है | “झुम्पा’ में कवि इसी प्रकार की कविता के माध्यम से नौनिहालों से गिनती गाने का आह्वान करता है |
संग्रहीत कविताओं में ग्रामीण जीवन मुखरित हो उठता है |
कविताओं में आम प्रचलन में प्रयुक्त गढ़वाली शब्दों का प्रयोग किया गया है | बाल कविताओं की कई विशेषताओं में से एक है ध्वन्यात्मकता का समुचित प्रयोग | यतेन्द्र गौड़ की इस संग्रह की ‘माछि टुलुक’ ,खिल्वारोलि’ और ‘बूंदा “ कवितायेँ विशिष्ट ध्वन्यात्मकता के कारण बच्चों को रोचक लग सकती हैं |’झम्म झमले’ और ‘पट्ट गीत’ में लोकगीत शैली का प्रयोग किया गया है | इस कारण इन्हें बच्चों द्वारा गाया जा सकता है | वर्तमान समय में शहरी मध्य और उच्च वर्ग के बच्चों के लिए बाल साहित्य खूब लिखा जा रहा है किन्तु बाल साहित्य में ग्रामीण क्षेत्र का बच्चा आज भी उपेक्षित है | यह बात हिन्दी बाल साहित्य के लिए है | गढ़वाली भाषा में तो आज कविताओं के लेखन पर बहुत जोर चल रहा है | गद्य साहित्य उपेक्षा का शिकार है | कविताओं में भी बाल साहित्य उपेक्षित है |ऐसे में यतेन्द्र गौड़ ‘यति’ का यह प्रयास आशा की किरण कहा जा सकता है | उन्होंने गाँव की माटी में जन्मे, खेलने –कूदने और गाँव की प्रकृति में रचे बसे बच्चे के लिए अपनी लेखनी चलाई | कवि का यह प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है | आज गाँव के परिवेश में भी बदलाव आ चुका है | अत: बाल कविताओं में भी यह बदलाव दिखाई देना समय की मांग है | आशा है कवि भविष्य में गाँव के बदले हुए परिवेश को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाएंगे | कवि को इस संग्रह के लिए बधाई |
अंत में संग्रह से किरम्व्लु’ कविता की कुछ पंक्तियाँ –
लब्बि स्या लंगत्यार ल्हेकि,
इक्सन्या इकसार ह्वेकि,
बाटू हिटणा सुर सुरीकि,
हाँ !किरम्व्लु जी कख बिटिकि?

जाणि कख बरात आज,
पण निशाण कख गाजा बाजा,
को च ब्योला कख छ डोला
हे किर्म्वलु जी कुछ त बोला |

---प्रकाशक –समय साक्ष्य
15 फालतू लाइन देहरादून २४८००१
वर्ष -२०१७
मूल्य -१०० रु |
कवि संपर्क -9411585692


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