पुस्तक परिचय
उडि जौं अगास
कवि – गिरीश
सुन्दरियाल
समीक्षक – डॉ०
उमेश चमोला
पक्षियों से
काव्यात्मक संवाद है ‘उडि जौं अगास’
उत्तराखण्ड के विहंगम सौन्दर्य के बीच विभिन्न पक्षियों का मधुर स्वर ह्रदय
को आहलादित कर देता है | पक्षियाँ यहाँ के लोक जीवन में रची बसी हैं | इसीलिए अन्य
क्षेत्रों की तरह पक्षियाँ यहाँ की लोककथाओं, लोकगाथाओं, लोकगीतों आदि का अभिन्न
हिस्सा रही हैं | यहाँ की पक्षियों से सम्बंधित लोककथायें सामान्यतया दुखांत रही
हैं | इन कथाओं में प्राय: कथा के प्रमुख चरित्र की मृत्यु हो जाती है | मृत्यु के
बाद वह किसी पक्षी के रूप में जन्म लेता है | पूर्व जन्म के संस्कार के अनुसार उसे
विशिष्ट पक्षी का स्वर प्राप्त होता है | काफल पाको मिन नि चाखो, सौतेला पूरा पूर
पूर,आज-भोल, तिसमिली तीस-तीस, काग भाषा,घुघुती बैण जैसी लोककथाएँ कुछ उदाहरण हैं |
इसी प्रकार कई लोकगीतों में पक्षियों का वर्णन किया गया है | कुछ मांगल(मांगलिक
अवसर पर गाये जाने वाले गीत ) गीतों में
कौवे का आह्वान देखने को मिलता है | खेल गीत और लोरी गीतों में भी पक्षियाँ
चित्रित हुई हैं | घुघुती बासूती इसका उदाहरण है | इसी प्रकार विभिन्न रचनाकारों
की कहानियों, गीतों, कविताओं , खंड काव्य आदि का विषय भी पक्षियाँ रही हैं | इसी
श्रृंखला में कवि और गीतकार गिरीश सुन्दरियाल की पुस्तक ‘उडि जौं अगास’ को एक
महत्वपूर्ण प्रयास कहा जा सकता है | इस पुस्तक में उत्तराखण्ड में पाई जाने वाली
ऐसी पक्षियों को कविता में स्थान दिया गया है जो साहित्य में उपेक्षित रही हैं |
घुघुती, कौआ,गौरैया,कोयल, काफल पाको आदि लोकसाहित्य में बहु वर्णित पक्षियों के
साथ –साथ कवि द्वारा ढेंचू,ग्व्थनि, धिस्वलि,मल्यो ( पहाडी कबूतर),तीतर, सुव्वा
(तोता प्रजाति का पक्षी),नीलकंठ,चुफल्या
,कफ्फू,मोनाल,बंसरा,मुसफ्य्खडा,सुरड़ी,मेल्वड़ी,चकोर,सिंटुली(पहाडी मैना), कलचुंडी,
था थबडि (उड़ते हुए बीच में रूक कर संतुलन बनाने वाला पक्षी ), गरुड़,चील, तोता, लम्पुछ्या
(लम्बी पूंछ वाला पक्षी) कठफोड़वा,उल्लू, जल मुर्गी आदि पर भी कवितायेँ रची गई हैं
| ये कवितायेँ पक्षियों से कवि का
काव्यात्मक संवाद कही जा सकती हैं | इसी संवाद के बहाने कवि द्वारा पलायन के कारण
गाँव में बंजर पड़े खेत ,बचपन के लुप्त हो चुके खेल, थड्या – झुमैलो के स्थान पर
डिस्को पॉप का चलन आदि के प्रति ह्रदय की पीड़ा अभिव्यक्त हुई है | इसी प्रकार कुछ
कविताओं में वर्तमान राजनीति में आई मूल्य विहीनता पर व्यंग्य भी देखने को मिलता
है | ‘सूनि-गरुड़ – मंत्रिजि’ कविता में कवि वर्तमान नेताओं को सूनि-गरुड़ पक्षी की
संज्ञा देता है | सूनि-गरुड़ पक्षी हमेशा दिखाई नहीं देता है | पूजा विशेष के अवसर
पर ही दिखाई देता है | ऐसे नेताओं से कवि कहता है –
सूनि-गरुड़
मंत्रिजि आवा
उद्घाटन स्यो
करि जावा
काम भौं कुछ
हुयां न हुयां
ढूंगु तुम भी
चिपकै जावा |’
इसी प्रकार
‘चिलांग- नेता जी ‘ कविता में कवि चुनाव जीतने के बाद पांच साल तक गायब रहने के
बाद अचानक प्रकट होने वाले नेता जी को खरी खोटी सुनाता है |
कविताओं में कवि
द्वारा पक्षियों को
ताऊ,मामा,भान्जा,मौसी,समधी,दीदी, भुली( छोटी बहिन),पूफु(बुआ),भाभी,जैसे संबोधन
देना उनके प्रति कवि के अपनत्व की भावना
को दिखाता है | उत्तराखंड में सिंटूलि(पहाड़ी मैना ) पक्षी के बारे में कहा जाता है
कि यह पक्षी सुबह उठने के बाद जब भूखा रहता है तो मनुष्य के मल को खाता है | जब
उसका पेट भर जाता है तो वह दूसरी चिड़िया से कहता है – ‘ छि दीदी गू नि खाण ‘( हे
दीदी , अब गू (मानव मल) नहीं खाना है | दूसरे दिन जब उसे भूख लगती है तो वह कहता
है –‘गू नि खाण त क्या खाण ( मानव मल नहीं खाना है तो फिर क्या खाना है ?’ किसी
गलत कार्य को न करने की प्रतिज्ञा करने और फिर उस प्रतिज्ञा को तोड़ने वाले लोगों
के सन्दर्भ में यह कहावत उद्धृत की जाती है | कवि ‘सिंटूलि सकलि’ कविता में इस
पक्षी के बारे में प्रचलित परम्परागत सोच से हटकर प्रेम की भावना व्यक्त करता है |
कुछ कविताओं में मुहावरों और लोकोक्तियों का सुंदर प्रयोग किया गया है |’च्योलि
तिसलु’ कविता में जैसा बोयेगा वैसा काटेगा कहावत को कवि ने नया स्वरूप दिया है –
‘बुतिला जो
धतूर,
व्हाली कख
मसूर,’( अगर धतूरा बोयेंगे तो मसूर कैसे उगेगी )
इसी प्रकार
‘तितर भणजा’ कविता में ‘या त गुड ही जणदा
या त थौला ही जणदा,(परेशानी झेलने वाला ही परेशानी को समझता है) तथा ‘’गण घुघुती
स्वाणी’ में तातु दूध हुयूँ चा, घुटेणु न थुकेणू चा जैसे कहावतो का प्रयोग किया
गया है |
पुस्तक की
भूमिका कवि और रंगकर्मी श्री मदन मोहन डूकलान ने लिखी है | उन्होंने इन कविताओं के
बारे में अपना मत प्रकट किया है –‘इन कविताओं में कवि की कल्पना की उड़ान उसे
सातवें आसमान में पंहुचाती है किन्तु उसके पैर धरती में ही दिखाई देते हैं | हमारे
जीवन का कोई ऐसा रिश्ता –नाता नहीं है जिसके बारे में इन रचनाओं में बात नहीं हुई
है | मानवीय संबंधों और आपसी सरोकारों के सभी रंग इस पोथी में दिखाई देते हैं |
पहाडी जन जीवन और उसके सरोकारों और संबंधों का तानाबाना है यह गीति काव्य |(श्री
डूकलान द्वारा गढ़वाली में लिखे अंश का
भावानुवाद )| कविताओं में जहाँ ‘प्रोब्लम’ और टैम
जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है तो
ठेठ गढ़वाली शब्दों का प्रयोग भी किया गया है | इन शब्दों के साथ – साथ उनके अर्थ
भी दिए गए हैं | यह गढ़वाली भाषा के शब्दों को संरक्षित करने का प्रयास कहा जा सकता
है | गढ़वाली भाषा के पाठक जो अपना
शब्द भंडार बढाना चाहते हैं उनके
लिए यह ज्ञानवर्धक है |
पुस्तक का आवरण
आकर्षक है | मुद्रण स्पष्ट है | पुस्तक में पक्षियों पर आधारित ५३ कवितायेँ हैं |
अत: बिना इन पक्षियों को जाने इनका चित्रांकन संभव नहीं था | पक्षियों के
चित्रांकन को देखकर चित्रकार डॉ बी० एस० नेगी की पक्षियों के प्रति स्पष्ट समझ भी
व्यक्त होती है | अत: कवि के साथ –साथ चित्रकार को भी हार्दिक बधाई |
अंत में संग्रह
से ‘छ्वीं -बत’ कविता के कुछ अंश –
उडि जौं अगास ,
ज्यू ब्व्नू छ
आज
तुम दगडी हैंसु –खेलु
बनी पंछि आज
हे दगडयो आज
हे च्खुल्यों आज
औ हे मनखी
ह्म्हरा गैल
सरया दुन्या की
करला सैल
निरदुन्द ह्वे
उडला-फिरला
नचला अर
च्वीन्च्याट करला
प्रकाशक – समय
साक्ष्य 15 फालतू लाइन ,देहरादून २४८००१
मूल्य -१२५ रु
रचनाकार – गिरीश
सुंदरियाल
c- डॉ उमेश चमोला
प्रकाशन
वर्ष -२०१६
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