पुस्तक समीक्षा ;एक लपांग (गढ़वाली कविता -गीत संग्रह )
वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में परंपरागत शिल्प ;कुटीर उद्योगों ;स्थान्रीय पकवानों तथा सांस्कृतिक परम्पराओं की तरह क्षेत्रीय भाषाओँ के लुप्त होने के प्रति बुद्धिजीवियों द्वारा चिंता व्यक्त की जा रही है .सुखद पक्ष यह है की आज क्षेत्रीय भाषों में काफी कुछ रचा जा रहा है .
उत्तराखंड में गढ़वाली और कुमाउनी भाषा में कुछ समाचार पत्र तथा पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं .पहरू ,दुधबोली ,रन्त रैबार ,खबरसार आदि पत्र -पत्रिकाएं अपने प्रयासों से इन भाषाओं की समृधि के लिए प्रयास कर रही हैं .कुछ हिन्दी में प्रकाशित पत्रिकाएं जैसे युगवाणी ,रीजिनल रिपोर्टर ,उत्तराखंड स्वर ,बल्प्रहरी आदि गढ़वाली-कुमाउनी में लिखी रचनाओं को स्थान दे रही हैं . इसके साथ ही पुरानी पीढी के साथ-साथ युवा पीढी के कई रचनाकार विभिन्न विधाओं में इन भाषाओँ में साहित्य रचकर इन्हें समृध कर रहे है।इन सभी रचनाओं का वर्ण्य विषयों का केंद्र पहाड़ ही है.
पृथक राज्य बनने के बाद भी पलायन का बदस्तूर जारी रहना ,अव्यवस्थित विकास का मोडल और व्यवस्था के प्रति आक्रोश के प्रति रचनाकारों ने अपनी पीढ़ा व्यक्त की है .इन्ही रचनाकारों के मध्य अपनी पहली पुस्तक के साथ अपनी उपस्तिथि दर्ज की है संदीप रावत ने अपनी पुस्तक एक लपाग के साथ. संदीप रावत पेशे से विज्ञानं के शिक्षक हैं किन्तु उनके अन्दर एक बहुआयामी रचनाकार भी है. एक लपाग का अर्थ है -एक कदम .यद्यपि अपनी कविता,गीत एवं क्षणिकाओं के साथ कवि ने प्रथम पुस्तक के रूप में पहली लपाग बडाई है किन्तु इससे पहले संदीप रावत के गढ़वाली भाषा की एतिहासिक विकास यात्रा और गढ़वाली भाषा के व्याकरणिक स्वरुप पर आधारित शोधपरक आलेख विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।
समीक्ष्य पुस्तक में कवि ने ३६ कविताओं ,८ क्षणिकाओं तथा १८ गीतों को स्थान दिया है. इनमें मातृभूमि के प्रति प्रेम,पलायन ,वर्तमान नारी,पर्यावरण ,नववर्ष .जिंदगी,आध्यात्मिकता ,पहाड़,आज का वचपन,वर्तमान व्यवस्था ,भ्रष्टाचार , में गिरावट ,फेशन ,मध्यनिशेध ,गांवों की वर्तमान स्तिथि ,विकास योजना ,वसन्त ,शिक्षा,राजनीती में आइयॆ गिरावट आदि विषयों पर रचनाएँ आधारित है,
साहित्यकार-समीक्षक वीरेंद्र पंवार ने इस संग्रह की कविताओं के बारे में लिखा है-
संदीप रावत की रचनाओं की खास बात यह है कि तकरीबन सभी रचनाओं में गाँव और पहाड़ की चिंता मुखर होकर सामने आ रही है,इनमे पहाड़ी रीतिरिवाज ,खानपान,रहन-सहन ,पर्यावरण में आये बदलाव आदि की चिंताएं शामिल हैं,(पुस्तक में श्री वीरेंद्र पंवार के लिखे विचारों का हिंदी भावानुवाद )
इसी प्रकार साहित्यकार मदन मोहन duklan लिखते हैं-
''संदीप की छोटी कविता और क्षणिका अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली हैं,कम शब्दों में गहरी बात कहना ही कविता है,(पुस्तक में लिखित श्री duklan के विचारों का हिंदी रूपांतर)
संदीप रावत की कविताओं में उस पहाड़ी जीवन की खुद (एक मार्मिक याद ) भी दिखाई देती है जिसका आस्वाद नेई पीढ़ी नहीं ले पाई है. किन्गोड़ -हिसालू खाना,बचपन में रदाघुस्सी खेलना आदि की ranmani यादें कवी के अंतस्थल में रचिबसी है,
संग्रह की क्षणिकाएँ अपना ध्यान खीचने में सफल हैं .पहाड़ की दुर्दशा को चित्रित कराती ये क्षणिका देखिये -
खेती-पति-दनगार ,कुडी हुइन खंडवार ,
यी छ अब म्यार गौं कि अनवार .
इसी प्रकार नेताओं की अव्याहरिक घोस्नाओं पर तंज देखिये-
बिना तव्वो का भट भुजी गेन नेता,पानी मा पकोड़ी तलि गैन नेता .
इस प्रकार संदीप रावत की कविताओं के अलग-अलग रंग इस संग्रह में देखने को मिलते हैं .कविताओं में प्रयुक्त भाषा भावानुकूल है. दैनिक जीवन की भाषा का प्रयोग किया गया है .शिल्प की दृष्टि से अभी और कुछ किये जाने की आवश्यकता है.
संदीप रावत की इस प्रथम कृति का स्वागत किया जाना चाहिए,उनसे आशा की जानी चाहिए कि वे नए काव्य शिल्प,नए बिम्ब विधान और नवीन कलेवर की कविताओं तथा गीतों के साथ अभी और कई लपाग बढ़ाते रहेंगे और अपनी गध्य तथा काव्य रचनाओं से गढ़वाली साहित्य जगत को समृध करते रहेंगे .
पुस्तक का नाम-एक लपाग
कवि ---संदीप रावत
मूल्य-१ ५ ० रू
प्रकाशक-समय साक्ष्य ,1 5 फालतू लाइन देहरादून
समीक्षक ---डॉ उमेश चमोला
वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में परंपरागत शिल्प ;कुटीर उद्योगों ;स्थान्रीय पकवानों तथा सांस्कृतिक परम्पराओं की तरह क्षेत्रीय भाषाओँ के लुप्त होने के प्रति बुद्धिजीवियों द्वारा चिंता व्यक्त की जा रही है .सुखद पक्ष यह है की आज क्षेत्रीय भाषों में काफी कुछ रचा जा रहा है .
उत्तराखंड में गढ़वाली और कुमाउनी भाषा में कुछ समाचार पत्र तथा पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं .पहरू ,दुधबोली ,रन्त रैबार ,खबरसार आदि पत्र -पत्रिकाएं अपने प्रयासों से इन भाषाओं की समृधि के लिए प्रयास कर रही हैं .कुछ हिन्दी में प्रकाशित पत्रिकाएं जैसे युगवाणी ,रीजिनल रिपोर्टर ,उत्तराखंड स्वर ,बल्प्रहरी आदि गढ़वाली-कुमाउनी में लिखी रचनाओं को स्थान दे रही हैं . इसके साथ ही पुरानी पीढी के साथ-साथ युवा पीढी के कई रचनाकार विभिन्न विधाओं में इन भाषाओँ में साहित्य रचकर इन्हें समृध कर रहे है।इन सभी रचनाओं का वर्ण्य विषयों का केंद्र पहाड़ ही है.
पृथक राज्य बनने के बाद भी पलायन का बदस्तूर जारी रहना ,अव्यवस्थित विकास का मोडल और व्यवस्था के प्रति आक्रोश के प्रति रचनाकारों ने अपनी पीढ़ा व्यक्त की है .इन्ही रचनाकारों के मध्य अपनी पहली पुस्तक के साथ अपनी उपस्तिथि दर्ज की है संदीप रावत ने अपनी पुस्तक एक लपाग के साथ. संदीप रावत पेशे से विज्ञानं के शिक्षक हैं किन्तु उनके अन्दर एक बहुआयामी रचनाकार भी है. एक लपाग का अर्थ है -एक कदम .यद्यपि अपनी कविता,गीत एवं क्षणिकाओं के साथ कवि ने प्रथम पुस्तक के रूप में पहली लपाग बडाई है किन्तु इससे पहले संदीप रावत के गढ़वाली भाषा की एतिहासिक विकास यात्रा और गढ़वाली भाषा के व्याकरणिक स्वरुप पर आधारित शोधपरक आलेख विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।
समीक्ष्य पुस्तक में कवि ने ३६ कविताओं ,८ क्षणिकाओं तथा १८ गीतों को स्थान दिया है. इनमें मातृभूमि के प्रति प्रेम,पलायन ,वर्तमान नारी,पर्यावरण ,नववर्ष .जिंदगी,आध्यात्मिकता ,पहाड़,आज का वचपन,वर्तमान व्यवस्था ,भ्रष्टाचार , में गिरावट ,फेशन ,मध्यनिशेध ,गांवों की वर्तमान स्तिथि ,विकास योजना ,वसन्त ,शिक्षा,राजनीती में आइयॆ गिरावट आदि विषयों पर रचनाएँ आधारित है,
साहित्यकार-समीक्षक वीरेंद्र पंवार ने इस संग्रह की कविताओं के बारे में लिखा है-
संदीप रावत की रचनाओं की खास बात यह है कि तकरीबन सभी रचनाओं में गाँव और पहाड़ की चिंता मुखर होकर सामने आ रही है,इनमे पहाड़ी रीतिरिवाज ,खानपान,रहन-सहन ,पर्यावरण में आये बदलाव आदि की चिंताएं शामिल हैं,(पुस्तक में श्री वीरेंद्र पंवार के लिखे विचारों का हिंदी भावानुवाद )
इसी प्रकार साहित्यकार मदन मोहन duklan लिखते हैं-
''संदीप की छोटी कविता और क्षणिका अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली हैं,कम शब्दों में गहरी बात कहना ही कविता है,(पुस्तक में लिखित श्री duklan के विचारों का हिंदी रूपांतर)
संदीप रावत की कविताओं में उस पहाड़ी जीवन की खुद (एक मार्मिक याद ) भी दिखाई देती है जिसका आस्वाद नेई पीढ़ी नहीं ले पाई है. किन्गोड़ -हिसालू खाना,बचपन में रदाघुस्सी खेलना आदि की ranmani यादें कवी के अंतस्थल में रचिबसी है,
संग्रह की क्षणिकाएँ अपना ध्यान खीचने में सफल हैं .पहाड़ की दुर्दशा को चित्रित कराती ये क्षणिका देखिये -
खेती-पति-दनगार ,कुडी हुइन खंडवार ,
यी छ अब म्यार गौं कि अनवार .
इसी प्रकार नेताओं की अव्याहरिक घोस्नाओं पर तंज देखिये-
बिना तव्वो का भट भुजी गेन नेता,पानी मा पकोड़ी तलि गैन नेता .
इस प्रकार संदीप रावत की कविताओं के अलग-अलग रंग इस संग्रह में देखने को मिलते हैं .कविताओं में प्रयुक्त भाषा भावानुकूल है. दैनिक जीवन की भाषा का प्रयोग किया गया है .शिल्प की दृष्टि से अभी और कुछ किये जाने की आवश्यकता है.
संदीप रावत की इस प्रथम कृति का स्वागत किया जाना चाहिए,उनसे आशा की जानी चाहिए कि वे नए काव्य शिल्प,नए बिम्ब विधान और नवीन कलेवर की कविताओं तथा गीतों के साथ अभी और कई लपाग बढ़ाते रहेंगे और अपनी गध्य तथा काव्य रचनाओं से गढ़वाली साहित्य जगत को समृध करते रहेंगे .
पुस्तक का नाम-एक लपाग
कवि ---संदीप रावत
मूल्य-१ ५ ० रू
प्रकाशक-समय साक्ष्य ,1 5 फालतू लाइन देहरादून
समीक्षक ---डॉ उमेश चमोला
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें