बात तब की है जब हम एम० एस-सी में पढ़ते थे | एक दिन मित्रों ने कहा कि
एक कविता दाढ़ी पर होनी चाहिए | इस पोस्ट के माध्यम से मैं उस कविता को साझा कर रहा
हूँ | इस कविता में सहपाठी दिनेश पाण्डेय, मदन जगवान, सतीश लखेड़ा और देव कुमार के
नाम आये हैं | इनमें से मदन जगवान और सतीश
लखेड़ा से फेसबुक के माध्यम से संपर्क होता रहता है किन्तु दिनेश पाण्डेय और देव
कुमार से अभी संपर्क होना शेष है | प्रस्तुत है कविता
हे परम पिता, हे भगवान,
सृष्टि की रचना करते वक्त,
तू क्यों भूला ज्ञान ?
ज्ञानी तुझे ज्ञानी कहते,
पर तू है अन्यायी,
तेरे मन में कैसे आई ?
तूने दिए बालाओं को
लम्बे लहराते बाल,
लम्बे –लम्बे बालों में
गुलाब जैसे गाल,
पर बिना काँटों के नहीं
होता है गुलाब शोभित,
इसीलिये तो ईश्वर मैं
तेरी थेरी पर हूँ क्रोधित,
गुलाब जैसे गालों पर
देते कांटे रूपी दाढ़ी,
दाढ़ी वाली लडकी पर,
सोचो कैसे जमती साडी,
पर तूने सारी बात बिगाड़ी,
लड़कियों को गुलाबी गाल दिए ,
हमें मोच और दाढ़ी,
महाभारत काल में जैसे
द्रोपदी की बढ़ी थी साढी,
वैसे पाण्डेय जी की
बड़ रही देखो दाढ़ी,
देव तो कलियुगी देव हैं,
वे क्यों बनवाते दाढ़ी,
पर वीर सतीश लखेडा ने
काट दी दाढ़ी रूपी झाड़ी,
दाढ़ीविहीन मदन मुख पर
लाल चिह्न जब देखा,
खिंच गई उमेश मस्तक पर
चिंता की लम्बी रेखा,
दिल का हाल सुनाकर
मदन जी मुस्काए,
बोले दाढ़ी बना रहा था
ख्वाब मुझे तब आए,
ख्वाबों में मैं भूल गया
बना रहा हूँ दाढ़ी,
गाल कटा ब्लेड से जब
चुस्त हो गई नाडी,
प्रेमिका की याद में
लोग बहाते आँसू,
खून बहाकर मदन बन गए
कलियुगी प्रेमी धांसू |